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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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रविवार, 19 मई 2013

बहज़ाद लखनवी


१.

एक चेहरा साथ साथ रहा जो मिला नहीं
किसको तलाश करते रहे कुछ पता नहीं

शिद्दत की धूप तेज़ हवाओं के बावजूद
मैं शाख़ से गिरा हूँ नज़र से गिरा नहीं

आख़िर ग़ज़ल का ताजमहल भी है मकबरा
हम ज़िन्दगी थे हमको किसी ने जिया नहीं

जिसकी मुखालफ़त हुई मशहूर हो गया
इन पत्थरों से कोई परिंदा गिरा नहीं

तारीकियों में और चमकती है दिल की धूप
सूरज तमाम रात यहां डूबता नहीं

किसने जलाई बस्तियाँ बाज़ार क्यों लुटे
मैं चँद पर गया था मुझे कुछ पता नहीं
२.


अब है ख़ुशी ख़ुशी में न ग़म है मलाल में
दुनिया से खो गया हूँ तुम्हारे ख़याल में 

मुझ को न अपना होश न दुनिया का होश है
मस्त होके बैठा हूँ तुम्हारे ख़याल में 

तारों से पूछ लो मेरी रुदाद-ए-ज़िन्दगी
रातों को जागता हूँ तुम्हारे ख़याल में 

दुनिया को इल्म क्या है ज़माने को क्या ख़बर
दुनिया भुला चुका हूँ तुम्हारे ख़याल में 

दुनिया खड़ी है मुन्तज़िर-ए-नग़्मा-ए-अलम
'बेहज़द' चुप खड़े हैं किसी के ख़याल में



३.


उन आँखों का आलम गुलाबी गुलाबी 
मेरे दिल का आलम शराबी शराबी 

निगाहों ने देखी मुहब्बत ने मानी 
तेरी बेमिसाली तेरी लाजवाबी 

ये दुद-दीदा नज़ारें ये रफ़्तार-ए-नाज़ुक 
इन्हीं की बदौलत हुई है खराबी 

खुदा के लिए अपनी ऩज़ारो को रोको 
तमन्ना बनी जा रही है जवाबी 

है "बहज़ाद" उनकी निगाह-ए-करम पर 
मेरी ना-मुरादी मेरी कामयाबी



४.


ऐ जज़्ब-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए

ऐ दिल की ख़लिश चल यूँ ही सही चलता तो हूँ उनकी महफ़िल में
उस वक़्त मुझको चौंका देना जब रंग पे महफ़िल आ जाए

ऐ रहबर-ए-कामिल चलने को तैयार तो हूँ पर याद रहे
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए

हाँ याद मुझे तुम कर लेना आवाज़ मुझे तुम दे लेना
इस राहे-मोहब्बत में कोई दरपेश जो मुश्किल आ जाए

अब क्यूँ ढूँढ़ू वह चश्म-ए-करम होने दो सितम बालाए सितम
मैं चाहता हूँ ऐ जज़्ब-ए-ग़म मुश्किल पस-ए-मुश्किल आ जाए

इस जज़्ब-ए-ग़म के बारे में एक मशविरा तुमसे लेना है
उस वक़्त मुझे क्या लाज़िम है जब तुम पे मेरा दिल आ जाए



५.


ज़िंदा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं 
जलता हुआ दिया हूँ मगर रोशनी नहीं 

वो मुद्दते हुईं हैं किसी से जुदा हुए 
लेकिन ये दिल की आग अभी तक बुझी नहीं 

आने को आ चुका था किनारा भी सामने 
ख़ुद उसके पास मेरी ही नैया गई नहीं 

होठों के पास आए हँसी क्या मज़ाल है 
दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं 

ये चाँद ये हवा ये फ़िज़ा सब है मंद-मंद 
जो तू नहीं तो इन में कोई दिलकशी नहीं



६.


तुम नग़्मा-ए-माह हो अन्जुम हो तुम सोज़-ए-तमन्ना क्या जानो
तुम दर्द-ए-मुहब्बत क्या समझो तुम दिल का तड़पना क्या जानो

सौ बार अगर तुम रूठ गये हम तुम को मना ही लेते थे
इक बार अगर हम रूठ गये तुम हम को मनाना क्या जानो

तख़्रीब-ए-मुहब्बत आसाँ है तामीर-ए-मुहब्बत मुश्किल है
तुम आग लगाना सीख गये तुम आग बुझाना क्या जानो

तुम दूर खड़े देखा ही किये और डूबने वाला डूब गया
साहिल को तुम मन्ज़िल समझे तुम लज़्ज़त-ए-दरिया क्या जानो



७.


तुम्हारे बुलाने को जी चाहता है 
मुक़द्दर बनाने को जी चाहता है 

जो तुम आओ तो साथ ख़ुशियाँ भी आयें 
मेरा मुस्कुराने को जी चाहता है 

तुम्हारी मुहब्बत में खोयी हुई हूँ 
तुम्हें ये सुनाने को जी चाहता है 

ये जी चाहता है कि तुम्हारी भी सुन लूँ 
ख़ुद अपनी सुनाने को जी चाहता है



८.


दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वरना कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे

ए देखनेवालों मुझे हंस हंस के न देखो
तुम को भी मोहब्बत कहीं मुझ सा न बना दे

मैं ढूँढ रहा हूँ मेरी वो शम्मा कहाँ है 
जो बज़म की हर चीज़ को परवाना बना दे 

आख़िर कोई सूरत भी तो हो खाना-ए-दिल की
काबा नहीं बनता है तो बुत_खाना बना दे

"बहज़ाद" हर एक जाम पे एक सजदा-ए-मस्ती
हर ज़र्रे को संग-ए-दर-ए-जानां न बना दे