
रचती है कविता-सुधा सुधासिक्त अवलेह।
लहता है रससिध्द कवि अजर अमर यश-देह।1।
चीरजीवी हैं सुकवि जन सब रस-सिध्द समान।
उक्ति सजीवन जड़ी को
कर सजीवता दान।2।
अमल धावल आनन्द मय सुधा सिता सुमिलाप।
है कमनीय मयंक सम
कविकुल कीर्ति कलाप।3।
गौरव-केतन से लसित अनुपम-रत्न उपेत।
अमर-निकेतन
तुल्य हैं कविकुल कीर्ति-निकेत।4।
मानस-अभिनन्दन, अमर, नन्दन बन वर
कुंज।
है पावन प्रतिपति मय कवि पुंगव यश पुंज।5।
२.
सुरसरि सी सरि है कहा मेरू सुमेर समान।
जन्मभूमि सी भू नहीं भूमंडल में आन।।
प्रतिदिन पूजें भाव से चढ़ा भक्ति के फूल।
नहीं जन्म भर हम सके जन्मभूमि को भूल।।
पग सेवा है जननि की जनजीवन का सार।
मिले राजपद भी रहे जन्मभूमि रज प्यार।।
आजीवन उसको गिनें सकल अवनि सिंह मौर।
जन्मभूमि जलजात के बने रहे जन भौंर।।
कौन नहीं है पूजता कर गौरव गुण गान।
जननी जननी जनक की जन्मभूमि को जान।।
उपजाती है फूल फल जन्मभूमि की खेह।
सुख संचन रत छवि सदन ये कंचन सी देह।।
उसके हित में ही लगे हैं जिससे वह जात।
जन्म सफल हो वार कर जन्मभूमि पर गात।।
योगी बन उसके लिये हम साधे सब योग।
सब भोगों से हैं भले जन्मभूमि के भोग।।
फलद कल्पतरू तुल्य है सारे विटप बबूल।
हरि पद रज सी पूत है जन्म धरा की धूल।।
जन्मभूमि में हैं सकल सुख सुषमा समवेत।
अनुपम रत्न समेत हैं मानव रत्न निकेत।।