१. हज़ार गीत सावनी
हज़ार गीत सावनी,रचे सखी फुहार ने,
झुलाएँ झूल झूमके, लुभावनी बहार में।
विशाल व्योम ने रची,
सुदर्श रास रंग की,
जिया प्रसन्न हो उठा,
फुहार में उमंग की।
मयूर मस्त नृत्य मेंकिलोलते कतार में,
अमोघ मेघ रागिनी,सुना रहे मल्हार में।
चढ़ी लता छतान पे,
बगान को चिढ़ा रही,
वसुंधरा, हरीतिमा,
बिखेर मुस्कुरा रही।
खिले गुलाब झुंड में,झुकी डगाल भार में,
कली-कली हुई विभोर, मौसमी बयार में।
दिखी अधीर कोकिला,
कुहू कुहू पुकारती
सुरम्य तान छेडके,
दिशा दिशा निहारती।
कहीं सुदूर चंद्रिका, घनी घटा की आड़ में,
कभी दिखीकभी छिपी, धुली हुई फुहार में।
सजीं पगों में पायलें,
कलाइयों में चूड़ियाँ,
मिटा गईं ये बारिशें,
दिलों की तल्ख दूरियाँ
बढ़ी नदी उमंग से, बहे प्रपात धार में,
मनाएँ पर्वआ सखी अनंत के विहार में
सखि,चैत्र गया अब ताप बढ़ा।
धरती चटकी सिर सूर्य चढ़ा।
ऋतु के सब रंग हुए गहरे।
जल स्रोत घटे जन जीव डरे।
फिर भी मन में इक आस पले।
सखि पाँव धरें चल नीम तले।
इस मौसम में हर पेड़ झड़ा।
पर, मीत यही अपवाद खड़ा।
खिलता रहता फल फूल भरा।
लगता मन मोहक श्वेत हरा।
भर दोपहरी नित छाँव मिले।
सखि झूल झुलें चल नीम तले।
यह पेड़ बड़ा सुखकारक है।
यह पूजित है वरदायक है।
अति पावन प्राणहवा इसकी।
मन भावन शीतलता इसकी।
इक दीप धरें हर शाम ढले।
सखि, गीत गुनें चल नीम तले।
यह जान बड़े गुण हैं इसके।
नित सेवन पात करें इसके।
यह खूब पुरातन औषध है।
कड़वा रस शोणित-शोधक है।
हर गाँव शहर यह खूब फले।
हर रोग मिटे सखि नीम तले।
सूर्य देवा!
लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे
तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर
चला जल भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना!
प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं
प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं,
नज़र में याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा!
किस तरह झेले भला,
तन सोखता संकट।
ले गए
लोलुप हमारी,
शहर नदिया मोड़कर।
तन यहाँ तर स्वेद से,
जल से हैं तर वे बेखबर।
तुम सखा यह याद रखना,
गाँव में शुभ पाँव धरना,
सुर्ख मुख पर
बादलों का ओढ़कर,
बस हाथ भर घूँघट।
चीखें, रुदन, कराहें, आहें,
घुटे हुए चौखट के अंदर।
हावी है बोतल शराब की,
कितना हृदय विदारक मंजर!
गृहस्वामी का धर्म यही है,
रोज़ रात का कर्म यही है।
करे दिहाड़ी, जो कुछ पाए,
वो दारू की भेंट चढ़ाए।
हलक तृप्त है, मगर हो चुका,
जीवन ज्यों वीराना बंजर।
भूखे बच्चे, गृहिणी पीड़ित,
घर मृतपाय, मगर मय जीवित।
बर्तन भाँडे खा गई हाला,
विहँस रहा मदिरा का प्याला।
हर चेहरे पर लटक रहा है,
अनजाने से भय का खंजर।
काँप रहे हैं दर- दीवारें,
कौन सुनेगा किसे पुकारें।
जनता के हित कहाँ हुआ कुछ,
नेता गण जीतें या हारें।
हड़तालें हुईं, जाम लगे पर,
कुछ दिन चलकर थमे बवंडर।
दीन देश की यही त्रासदी,
नारों में ही गई इक सदी।
मद्यनिषेध सजा पन्नों पर,
कलमें रचती रहीं शतपदी।
बाहर बाहर लिखा लाभ-शुभ,
झाँके कौन घरों के अंदर।
ऊंची नीची पगडंडी पर
चलते जाते पाँव,
यही है मेरा गाँव।
पनघट पर सखियों की टोली,
नयन इशारे, हँसी ठिठोली।
सिर पर आँचल, कमर गगरिया,
गजब ढा रही लाल चुनरिया।
पायल की झंकार सुनाते,
मेहँदी वाले पाँव।
सजे बाग, महकी अमराई,
कुहू कुहू कोयल की छाई।
बरगद की छाया में झूले,
पथिक देखकर रस्ता भूले।
चुग्गा चुगती नन्ही चिड़िया,
कौवा बोले कांव।
भोर भए पूजा सूरज की,
परिक्रमा पावन पीपल की।
नैसर्गिक सौंदर्य गाँव में,
रिश्तों का माधुर्य गाँव में।
फिर भी मिटने लगी इबारत,
भूल गए सब गाँव
याद बहुत आता है मुझको,
बचपन का संसार।
तब तुम मेरे प्रथम मीत थे,
प्यारे हरसिंगार।
तुझे उगाकर बड़े जतन से,
दूर रखा था हाथ छुअन से,
परछाई से छाया करके,
सदा बचाया धूप चुभन से।
बढ़े,खिले, झर उठे अंगन में,
आई नई बहार।
कितने सुंदर वे दिन बीते।
थक जाती थी कलियाँ गिनते,
कितनी रातें, कितनी बातें?
तुमसे की थीं चुनते चुनते।
कभी चढ़ाया शिव चरणों में,
कभी सजाए द्वार।
आ न सके तुम संग शहर में,
उगा न पाई छोटे घर में।
वक्त गुज़रता रहा,खो गए,
यादों की अंजान डगर में।
पूछ रही हैं नई पीढ़ियाँ,
क्या थे हरसिंगार।
शॉल लपेटे चली सैर को,
देखी आज अनोखी भोर।
ओस कणों से लॉन ढंका था।
सर्द हवा से काँप रहा था।
लेकिन दूर व्योम में हँसकर,
सूर्य रश्मियाँ बाँट रहा था।
शायद किसी गाँव ने छिपकर,
झाँका आज शहर की ओर।
इमारतों के बीच झिरी थी।
कुछ कुछ धूप वहाँ बिखरी थी।
मगर न पहुंचे पाँव वहाँ तक,
दीवारें ऊंची प्रहरी थीं।
हुआ सुखद एहसास ताप का,
याद आ गया गुज़रा दौर।
भिनसारे थी धूप बुलाती।
दीवारों पर भी दिख जाती।
चलकर आती आँगन आँगन,
साथ खेलकर हमें रिझाती।
लंगड़ी, टप्पा, सात्या ताली,
खूब मचाते मिलकर शोर।
गांवों की तब कदर न जानी।
कर बैठे अपनी मनमानी।
भुगत रहे परिणाम भुलाकर,
शीतल छाया धूप सुहानी।
उद्यानों को स्वयं परोसा,
खलिहानों के मुँह का कौर।
सुबह सुबह कानों में आकरकहा
ऊँचे पद के मद में जिनके,
शहर चल दिये पाँव
नहीं चाहते कभी लौटना,
वापस अपने गाँव ।
याद नहीं अब गाँव उन्हे जो,,
होते उनके जन्में। ,
फिर आने की मात-पिता को,
देकर जाते कसमें।
नहीं लुभातीं आज उन्हें वो
धूल सँजोई गलियाँ,
और नहीं आसान छोडना,
शहरों की रंगरलियाँ।
छोड़ चमाचम गाड़ी कैसे,,
चलें गली में पाँव।
फैशन भूल नए शहरों के,
तितली सी बहुरानी,
भिनसारे उठ भर पाएगी,
क्या वो नल से पानी?
शापिंग माल, ,शार्ट पहनावा,,
सजी-धजी गुड़िया सी,
कैसे जाए गाँव दुल्हनियाँ,
बनकर छुई-मुई सी।
किटी पार्टियों की आदी क्यों,,
दाबे बूढ़े पाँव।
छोटे फ्लैट, मगर सुंदर हैं,,
टाउनशिप की बातें।
कामकाज में दिन कटते हैं,
रंगबिरंगी रातें।
क्लब हाउस हैं, तरणताल हैं,
सजी हुई फुलवारी,
भूल गए रिश्ते नातों की,,
परिभाषाएँ सारी।
अब तो गीत बचे गाँवों में,
बचा गीत में गाँव।
ताके चिड़िया,नन्हाँ उसका भूखा।
कैसे जाए दाना लाने,
खेतों खड़ा बिजूखा।
सोच रही वो, काश! यहाँ से,
यह प्राणी हट जाए,
झट से उड़कर, चोंच मारकर,
कुछ अनाज ले आए।
पेट भरे चूज़े का खाकर,
भोजन रूखा सूखा।
जाने वो इंसानी आदत,
क्रूर कुटिलतम चालें।
पंछी को भी मार उदर के,
गोदामों में डालें।
मूक प्राणियों के पीड़न का,
मौका कब वो चूका।
नन्ही चिड़िया, नन्ही आशा,
करे न अहित किसी का।
नहीं छीनना फितरत इसकी,
और न संग्रह सीखा।
मानव में ही उसने पाया,
फीका रंग लहू का।
हज़ार गीत सावनी,रचे सखी फुहार ने,
झुलाएँ झूल झूमके, लुभावनी बहार में।
विशाल व्योम ने रची,
सुदर्श रास रंग की,
जिया प्रसन्न हो उठा,
फुहार में उमंग की।
मयूर मस्त नृत्य मेंकिलोलते कतार में,
अमोघ मेघ रागिनी,सुना रहे मल्हार में।
चढ़ी लता छतान पे,
बगान को चिढ़ा रही,
वसुंधरा, हरीतिमा,
बिखेर मुस्कुरा रही।
खिले गुलाब झुंड में,झुकी डगाल भार में,
कली-कली हुई विभोर, मौसमी बयार में।
दिखी अधीर कोकिला,
कुहू कुहू पुकारती
सुरम्य तान छेडके,
दिशा दिशा निहारती।
कहीं सुदूर चंद्रिका, घनी घटा की आड़ में,
कभी दिखीकभी छिपी, धुली हुई फुहार में।
सजीं पगों में पायलें,
कलाइयों में चूड़ियाँ,
मिटा गईं ये बारिशें,
दिलों की तल्ख दूरियाँ
बढ़ी नदी उमंग से, बहे प्रपात धार में,
मनाएँ पर्वआ सखी अनंत के विहार में
२. सखि, नीम तले
धरती चटकी सिर सूर्य चढ़ा।
ऋतु के सब रंग हुए गहरे।
जल स्रोत घटे जन जीव डरे।
फिर भी मन में इक आस पले।
सखि पाँव धरें चल नीम तले।
इस मौसम में हर पेड़ झड़ा।
पर, मीत यही अपवाद खड़ा।
खिलता रहता फल फूल भरा।
लगता मन मोहक श्वेत हरा।
भर दोपहरी नित छाँव मिले।
सखि झूल झुलें चल नीम तले।
यह पेड़ बड़ा सुखकारक है।
यह पूजित है वरदायक है।
अति पावन प्राणहवा इसकी।
मन भावन शीतलता इसकी।
इक दीप धरें हर शाम ढले।
सखि, गीत गुनें चल नीम तले।
यह जान बड़े गुण हैं इसके।
नित सेवन पात करें इसके।
यह खूब पुरातन औषध है।
कड़वा रस शोणित-शोधक है।
हर गाँव शहर यह खूब फले।
हर रोग मिटे सखि नीम तले।
३. सूर्य देवा!
लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे
तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर
चला जल भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना!
प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं
प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं,
नज़र में याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा!
किस तरह झेले भला,
तन सोखता संकट।
ले गए
लोलुप हमारी,
शहर नदिया मोड़कर।
तन यहाँ तर स्वेद से,
जल से हैं तर वे बेखबर।
तुम सखा यह याद रखना,
गाँव में शुभ पाँव धरना,
सुर्ख मुख पर
बादलों का ओढ़कर,
बस हाथ भर घूँघट।
४. मद्य निषेध सजा पन्नों पर
घुटे हुए चौखट के अंदर।
हावी है बोतल शराब की,
कितना हृदय विदारक मंजर!
गृहस्वामी का धर्म यही है,
रोज़ रात का कर्म यही है।
करे दिहाड़ी, जो कुछ पाए,
वो दारू की भेंट चढ़ाए।
हलक तृप्त है, मगर हो चुका,
जीवन ज्यों वीराना बंजर।
भूखे बच्चे, गृहिणी पीड़ित,
घर मृतपाय, मगर मय जीवित।
बर्तन भाँडे खा गई हाला,
विहँस रहा मदिरा का प्याला।
हर चेहरे पर लटक रहा है,
अनजाने से भय का खंजर।
काँप रहे हैं दर- दीवारें,
कौन सुनेगा किसे पुकारें।
जनता के हित कहाँ हुआ कुछ,
नेता गण जीतें या हारें।
हड़तालें हुईं, जाम लगे पर,
कुछ दिन चलकर थमे बवंडर।
दीन देश की यही त्रासदी,
नारों में ही गई इक सदी।
मद्यनिषेध सजा पन्नों पर,
कलमें रचती रहीं शतपदी।
बाहर बाहर लिखा लाभ-शुभ,
झाँके कौन घरों के अंदर।
५. मेरा गाँव
चलते जाते पाँव,
यही है मेरा गाँव।
पनघट पर सखियों की टोली,
नयन इशारे, हँसी ठिठोली।
सिर पर आँचल, कमर गगरिया,
गजब ढा रही लाल चुनरिया।
पायल की झंकार सुनाते,
मेहँदी वाले पाँव।
सजे बाग, महकी अमराई,
कुहू कुहू कोयल की छाई।
बरगद की छाया में झूले,
पथिक देखकर रस्ता भूले।
चुग्गा चुगती नन्ही चिड़िया,
कौवा बोले कांव।
भोर भए पूजा सूरज की,
परिक्रमा पावन पीपल की।
नैसर्गिक सौंदर्य गाँव में,
रिश्तों का माधुर्य गाँव में।
फिर भी मिटने लगी इबारत,
भूल गए सब गाँव
६. प्यारे हरसिंगार
बचपन का संसार।
तब तुम मेरे प्रथम मीत थे,
प्यारे हरसिंगार।
तुझे उगाकर बड़े जतन से,
दूर रखा था हाथ छुअन से,
परछाई से छाया करके,
सदा बचाया धूप चुभन से।
बढ़े,खिले, झर उठे अंगन में,
आई नई बहार।
कितने सुंदर वे दिन बीते।
थक जाती थी कलियाँ गिनते,
कितनी रातें, कितनी बातें?
तुमसे की थीं चुनते चुनते।
कभी चढ़ाया शिव चरणों में,
कभी सजाए द्वार।
आ न सके तुम संग शहर में,
उगा न पाई छोटे घर में।
वक्त गुज़रता रहा,खो गए,
यादों की अंजान डगर में।
पूछ रही हैं नई पीढ़ियाँ,
क्या थे हरसिंगार।
देखी आज अनोखी भोर।
ओस कणों से लॉन ढंका था।
सर्द हवा से काँप रहा था।
लेकिन दूर व्योम में हँसकर,
सूर्य रश्मियाँ बाँट रहा था।
शायद किसी गाँव ने छिपकर,
झाँका आज शहर की ओर।
इमारतों के बीच झिरी थी।
कुछ कुछ धूप वहाँ बिखरी थी।
मगर न पहुंचे पाँव वहाँ तक,
दीवारें ऊंची प्रहरी थीं।
हुआ सुखद एहसास ताप का,
याद आ गया गुज़रा दौर।
भिनसारे थी धूप बुलाती।
दीवारों पर भी दिख जाती।
चलकर आती आँगन आँगन,
साथ खेलकर हमें रिझाती।
लंगड़ी, टप्पा, सात्या ताली,
खूब मचाते मिलकर शोर।
गांवों की तब कदर न जानी।
कर बैठे अपनी मनमानी।
भुगत रहे परिणाम भुलाकर,
शीतल छाया धूप सुहानी।
उद्यानों को स्वयं परोसा,
खलिहानों के मुँह का कौर।
८. सुबह सुबह...
सुबह सुबह कानों में आकरकहा
किसी ने नमस्कार।
अलसाई आँखों से देखा।
सूर्य किरण की कहीं न रेखा।
नभ पर थे कुहरे के बादल,
नीचे भी कुहरा ही देखा।
जान गई मैं, यह तो बदले,
मौसम का है चमत्कार।
खग सोए थे आँखें मींचे।
विहग नीड़ चूजों को भींचे।
सड़कों पर सुनसान बिछा था,
धुआँ धुआँ थे गलियाँ कूचे।
टुकड़ा धूप लपेटें तन पर,
जन जन को था इंतज़ार।
रात बड़ी दिन छोटे होंगे।
सर्द हवा के झोंके होंगे।
संदूकों में मची खलबली,
गरम वस्त्र खुश होते होंगे।
ऋतु रानी का स्वागत को सब,
तत्पर थे फिर एक बार।
अलसाई आँखों से देखा।
सूर्य किरण की कहीं न रेखा।
नभ पर थे कुहरे के बादल,
नीचे भी कुहरा ही देखा।
जान गई मैं, यह तो बदले,
मौसम का है चमत्कार।
खग सोए थे आँखें मींचे।
विहग नीड़ चूजों को भींचे।
सड़कों पर सुनसान बिछा था,
धुआँ धुआँ थे गलियाँ कूचे।
टुकड़ा धूप लपेटें तन पर,
जन जन को था इंतज़ार।
रात बड़ी दिन छोटे होंगे।
सर्द हवा के झोंके होंगे।
संदूकों में मची खलबली,
गरम वस्त्र खुश होते होंगे।
ऋतु रानी का स्वागत को सब,
तत्पर थे फिर एक बार।
शहर चल दिये पाँव
नहीं चाहते कभी लौटना,
वापस अपने गाँव ।
याद नहीं अब गाँव उन्हे जो,,
होते उनके जन्में। ,
फिर आने की मात-पिता को,
देकर जाते कसमें।
नहीं लुभातीं आज उन्हें वो
धूल सँजोई गलियाँ,
और नहीं आसान छोडना,
शहरों की रंगरलियाँ।
छोड़ चमाचम गाड़ी कैसे,,
चलें गली में पाँव।
फैशन भूल नए शहरों के,
तितली सी बहुरानी,
भिनसारे उठ भर पाएगी,
क्या वो नल से पानी?
शापिंग माल, ,शार्ट पहनावा,,
सजी-धजी गुड़िया सी,
कैसे जाए गाँव दुल्हनियाँ,
बनकर छुई-मुई सी।
किटी पार्टियों की आदी क्यों,,
दाबे बूढ़े पाँव।
छोटे फ्लैट, मगर सुंदर हैं,,
टाउनशिप की बातें।
कामकाज में दिन कटते हैं,
रंगबिरंगी रातें।
क्लब हाउस हैं, तरणताल हैं,
सजी हुई फुलवारी,
भूल गए रिश्ते नातों की,,
परिभाषाएँ सारी।
अब तो गीत बचे गाँवों में,
बचा गीत में गाँव।
१०. नन्ही चिड़िया नन्ही आशा
कैसे जाए दाना लाने,
खेतों खड़ा बिजूखा।
सोच रही वो, काश! यहाँ से,
यह प्राणी हट जाए,
झट से उड़कर, चोंच मारकर,
कुछ अनाज ले आए।
पेट भरे चूज़े का खाकर,
भोजन रूखा सूखा।
जाने वो इंसानी आदत,
क्रूर कुटिलतम चालें।
पंछी को भी मार उदर के,
गोदामों में डालें।
मूक प्राणियों के पीड़न का,
मौका कब वो चूका।
नन्ही चिड़िया, नन्ही आशा,
करे न अहित किसी का।
नहीं छीनना फितरत इसकी,
और न संग्रह सीखा।
मानव में ही उसने पाया,
फीका रंग लहू का।
सधन्यवाद, --कल्पना रामानी
kalpanasramani@gmail.com
kalpanasramani@gmail.com