अरुण यह मधुमय देश
हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अर्मत्य वीर पुत्र हो
दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है
बढ़े चलो बढ़े चलो!
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के
रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में
सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो
बढ़े चलो बढ़े चलो!
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे धीरे।
जिस निर्जन मे सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढोले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँत घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्व चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी से!
बीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही-
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल
कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का आँचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई -
मधु मुकुल
नवल रस गागरी।
अधरों में
राग अमंद पिये,
अलकों में मलयज बंद किये,
तू अबतक सोयी है आली-
आँखों में भरे
विहाग री।
तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!
विकल हो कर नित्य चंचल
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक-सी रही तब
मैं मलय की वात रे मन!
चिर विषाद विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर वन की
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा
कुसुम विकसित प्रात रे मन!
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक
इस झुलसते विश्वदिन की
मैं कुसुम ऋतु रात रे मन!
चिर निराशा नीरधर से
प्रतिच्छायित अश्रु सर में
मधुप मुखर मरंद मुकुलित
मैं सजल जल जात रे मन!
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए
समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की
पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब
जग कर रजनी भर तारा।।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए
समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की
पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब
जग कर रजनी भर तारा।।
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हिमाद्रि तुंग शृंग सेहिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अर्मत्य वीर पुत्र हो
दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है
बढ़े चलो बढ़े चलो!
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के
रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में
सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो
बढ़े चलो बढ़े चलो!
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ले चल वहाँ भुलावा देकरले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक! धीरे धीरे।
जिस निर्जन मे सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढोले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँत घनी रे ।
जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्व चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी से!
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जाग रीबीती विभावरी जाग री।
अंबर पनघट में डुबो रही-
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल
कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का आँचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई -
मधु मुकुल
नवल रस गागरी।
अधरों में
राग अमंद पिये,
अलकों में मलयज बंद किये,
तू अबतक सोयी है आली-
आँखों में भरे
विहाग री।
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निर्वेदतुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!
विकल हो कर नित्य चंचल
खोजती जब नींद के पल
चेतना थक-सी रही तब
मैं मलय की वात रे मन!
चिर विषाद विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर वन की
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा
कुसुम विकसित प्रात रे मन!
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक
इस झुलसते विश्वदिन की
मैं कुसुम ऋतु रात रे मन!
चिर निराशा नीरधर से
प्रतिच्छायित अश्रु सर में
मधुप मुखर मरंद मुकुलित
मैं सजल जल जात रे मन!
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