पूरा परिचय चाहिए
१.
ज़मीन जब से है तबसे चलन ज़माने का
है इश्क नाम फ़क़त दिल पे चोट खाने का
उरूज पर है अभी इंक़लाब लहरों में
ये वक़्त ठीक नहीं बस्तियां बसने का
किताब मेरी भी रखना सफ़र में तुम अपने
सुलगती आँखों को ग़र शौक हो भीगने का
शहर की गलियों को दीदार इसका करवाओ
ये कहके खींचा किसी ने कफ़न सिरहाने का
है बीच रह में यूँ क़ब्र 'फ़ानी' की शायद
किसी ने वादा किया हो यही पे आने का
२.
उडाओ ना इन्हें ए यार छत पे आने दो
परिंदे होते हैं मासूम चहचाहने दो
बहुत घुटन है मेरे दिल सी तेरे कमरे में
सुबह की धूप की किरने ज़रा सा जाने दो
तजुर्बा पायेगा ये दौर खुद के ज़ख्मों से
नसीहतें न करो इनको ज़ख़्म खाने दो
नसीब होता नहीं सब को लौट के आना
सुबह का भूला अगर हो तो लौट आने दो
बहुत मज़ा है शरारत में बच्चों की फ़ानी
छुपा दो चश्मे को दादी को बडबडाने दो
३.
लोग अगर अच्छे हों तो हालात बहुत तड़पाते हैं
अपने दिल को इस तरहा से हम अक्सर समझाते हैं
वक़्त का धारा मोड़ के आओ सालों पीछे चलते हैं
बच्चा बन जाते हैं और पापा अम्मा चिल्लाते हैं
बहुत दिनों से अपनी छत को चाट रहा है ये सूरज
कर के आँखें लाल चलो अब हम इसको धमकाते हैं
लाख खताएं उसकी मेरा दिल न मैला कर पायीं
उसके पछतावे के आंसू गंगाजल बन जाते हैं
आने वाली पीढी जिसको भूल न पाए सदियों तक
काग़ज़ के कच्चे चेहरे पे कुछ ऐसा लिख जाते हैं
मुल्क़ के मसले तेरे-मेरे क़द से ऊपर हैं "फ़ानी"
आओ हम बच्चों को कुछ पाजी नज्में सिखलाते हैं
४.
आरज़ू चाहत की सीने में दफ़न हो जाएगी
बाद तेरे जिंदगी उरियां बदन हो जाएगी
प्यार जिसका माना मैंने जान से भी कीमती
कल वो मुझको छोड़ दूजे की दुल्हन हो जाएगी
करवटों के पुर्से ले के सुबह तक फैलेगी रात
नींद की आमद से आँखों में जलन हो जाएगी
फूट के मुझसे कहेंगे पाँव के छाले मेरे
अब नज़र मंजिल ना आई तो थकन हो जायगी
मेरी गजलों में जो अक्सर झूमती-गाती मिली
आज वो लड़की भी आवारा वतन हो जाएगी
पीछे रह जाएँगी कपड़ों से भरी अल्मारियाँ
"फ़ानी" इक उजली सी चादर पैराहन हो जाएगी
५.
हमारी याद में आंसू बहाना तक नहीं आया
तकाज़ा इश्क का था जो निभाना तक नहीं आया
कभी तू फूल होती है कभी तू ख़ार होती है
है तेरे दिल में क्या तुझको बताना तक नहीं आया
जिसे हमदम कहा तुमने जिसे हमराज़ कहते थे
वही रोया है तो फिर चुप कराना तक नहीं आया
तुम्हे ग़म से उबारा जिसने उसको भूल बैठे हो
ये कर्जा इश्क का है ये चुकाना तक नहीं आया
तेरे हर एक सितम को हँसते-हँसते पी गया लेकिन
ख़ताओं को मेरी तुझको भुलाना तक नहीं आया
तुम्हारे पास बैठे हैं तुम्ही से है हसद जिनको
खरे लोगों से क्यूँ रिश्ते बनाना तक नहीं आया
ये रेल भीड़ का छीनेगा तेरे पाँव की धरती
नज़र अब तक तुझे तेरा ठिकाना तक नहीं आया
कोई ये उस से पूछे भटकूँ मैं इक पाँव से कितना
मेरी जानिब क्यूं हाथ अपना बढ़ाना तक नहीं आया
दरारें पड़ गयीं मेरी पुकारों में भी ऐ "फ़ानी"
सदा से पर सदा उसको मिलाना तक नहीं आया
६.
"सामने औरों के यूँ खुल के ना रोना चाहिए
बोझ जो अपना हो उस को खुद ही ढोना चाहिए
फूल,फल,कलियाँ ओ साया सब तुम्हे मिल जायेंगे
शर्त इतनी सी है पहले बीज बोना चाहिए
आज दिल्ली हो गई मैली सियासी नारों से
मीर-ओ-ग़ालिब की ग़ज़ल से इसको धोना चाहिए
चाँद की बातों से ना बहलेगा ये मुफलिस मियाँ
इसको रोटी और सोने को बिछौना चाहिए
कुछ नए भगवान हैं इन्सान को भटका रहे
फिर यहाँ दरवेश इक गौतम सा होना चाहिए
ये ग़ज़ल ले आई 'फ़ानी' रात के आख़ीर तक
मानना ये है मेरा अब तुमको सोना चाहिए
७.
हर इम्तिहान में साबित ये कर गया हूँ मैं
बिखर-बिखर गया लेकिन संवर गया हूँ मैं
किसी ने चेहरा लिया और किसी ने क़द-काठी
कुछ अपने बच्चों में ऐसे बिखर गया हूँ मैं
पनाह भी ना मिली सर पे साया भी ना मिला
तुम्हारी याद को लेकर जिधर गया हूँ मैं
ये बेनियाज़ी का आलम की खुद से कहता हूँ
अभी यहीं था ना जाने किधर गया हूँ मैं
इबादतों में रहे कब सहर से शाम हुई
के पहले रोज़े(रमज़ान) के दिन सा गुज़र गया हूँ मैं
मैं सबसे से मिलता हूँ हंस के तो लोग कहते हैं
ज़ुबान ओ फ़ेल से तो बाप पर गया हूँ मैं
उसे पसंद ना थी 'फ़ानी' मेरी ऊंची उड़ान
इसीलिए तो पर अपने कतर गया हूँ मैं
८.
"मेरे सच्चे जज़्बे और उसकी कहानी झूठ की
हो गई है आजकल दुनिया दिवानी झूठ की
मेरी मज़लूमी मुझ ही में सर पटकती रह गई
और वो थी जिसने सारी बात मानी झूठ की
उसके एहसासात और लफ़्ज़ों की वो कारीगरी
सर से ले के पाँव तक वो तर्जुमानी झूठ की
मैंने उसको दिल की मलिका कर दिया और एक दिन
ये समझ आया की वो थी सिर्फ रानी झूठ की
सच लिखा है और सच में आज तक जीता रहा
मैं नहीं जी सकता कोई जिंदगानी झूठ की
उसके अश्कों में पिघल के 'फ़ानी' जाना एक सच
आंसुओं की आँख से थी वो रवानी झूठ की
९.
नगर के मेले में गुमनाम अजनबी हूँ मैं
किसी ने समझा नहीं मुझको आदमी हूँ मैं
ज़माना मुझको भुला दे ये गैर मुमकिन है
तेरा ख्याल है जिसमें वो शायरी हूँ मैं
सुपुर्द करके वो खुद को ये मुझसे बोली थी
मुझे सम्भाल के रखना के जिंदगी हूँ मैं
निबाह कर के मरासिम को मुझको लगता है
वफ़ा के नाम पे इक फर्द आख़िरी हूँ मैं
इधर में दीन बसा है उधर में दुनिया है
इन्ही के बीच की इक कच्ची सी गली हूँ मैं
सहर को ठोकरें मरी तो रात को नोचा
किसी अमीर की लौंडी की नौकरी हूँ मैं
हटा ले आशियाँ अपना तू मेरे रस्ते से
हवा ये कहके चली "फ़ानी" सरफिरी हूँ
१०.
नींद पूरी करके दिन की तारे जब जगने लगे
ख़याल आया तब थकन का पैर जब दुखने लगे
इस क़दर आदी हुए हैं ग़ैर के कंधों के हम
देख के परछाईं अपनी रात में डरने लगे
रातरानी एक कोने में सहम कर जा लगी
क्यारियों में कैक्टस ही कैक्टस दिखने लगे
ये सियासत की नज़र का है करिश्मा देखिये
हमने जिनको भी चुन वो आदमी बिकने लगे
रिश्ता चाहे जो भी हो फितरत बदल पाई कहाँ
सांप के बच्चे थे लेकिन सांप को डसने लगे
जाने क्या देखेंगी "फ़ानी" ये नयी फसलें यहाँ
लोग बच्चों की किताबों में ज़हर भरने लगे
११.
"जाविदा ये उम्र करने का हुनर मालूम है
हम जियेंगे हमको मरने का हुनर मालूम है
ख्वाहिश-ए-दिल कब नचा पाई इशारों पे हमें
खुद से दो-दो हाथ करने का हुनर मालूम है
ग़म की शिद्दत दफ़्न कर डालेंगे दिल कब्र में
खून-ए-दिल शेरों में भरने का हुनर मालूम है
ऐ मुहाजिर तुझसे बेहतर तो कबूतर हैं जिन्हें
अपनी ही छत पे उतरने का हुनर मालूम है
कोसने से पहले किस्मत को ज़रा सा सोचना
क्या तुझे कुछ कर गुजरने का हुनर मालूम है
जी रहा है आदमी 'फ़ानी' मशीनों की तरह
जिसको बस इक पेट भरने का हुनर मालूम
१२.
"दो बच्चों के बीच में तन्हा लेटा हूँ
ऐ सरहद मैं कुछ-कुछ तेरे जैसा हूँ
आधा-आधा मैं उनका पर मेरा कौन
जो भी जागे उसको थपकी देता हूँ
उसकी हमदर्दी अब पीछे छूट चुकी
अब मैं हर मंजिल पे तन्हा बैठा हूँ
थक के चूर हो चाँद चलो आराम करो
सूरज को आवाज़ लगाये देता हूँ
अल्लाह हू-अल्लाह हू जब भी जपता हूँ
नानक की बानी को तब-तब जीता हूँ
बढ़ते रहना आदत है अपनी 'फ़ानी'
बंजारों का चलता-फिरता डेरा हूँ
१३.
ताक़ पे हमने यहाँ शम्मा जला रक्खी है
आंधी किस ज़ोर की मौसम ने चला रक्खी है
अपना ग़म बाँट लिया शेर ओ ग़ज़ल नज़्मों ने
शायरी तूने मेरी जान बचा रक्खी है
थक गयीं हैं मेरी पलकें उसे ढोते-ढोते
एक तस्वीर जो आँखों में सजा रक्खी है
डगमगते हुए क़दमों को मेरे थामेगी
जिंदगी तुझसे ये उम्मीद लगा रक्खी है
राख़ कर देते हैं परवानों के पर पल भर में
इन चरागों ने इक आफत सी मचा रक्खी है
कोट ने ढांप लिए कुर्ते के पैबन्द सभी
सर्दियों तुमने मेरी शान बचा रक्खी है
अपने आमल से जन्नत कहाँ मुमकिन "फ़ानी"
माँ के पैरों ने मगर आस बंधा रक्खी है
१४.
माजरा क्या है खोजबीन में है
जो भी है वो तमाशाबीन में है
इन बहारों की आगवानी को
एक पौधा मेरी ज़मीन में है
अपने बच्चों में बैठता है कहाँ
आदमी रात-दिन मशीन में है
कुछ ना कुछ शाम को मैं लाऊंगा
मेरा बच्चा इसी यकीन में है
बेवजह फिल्म से नहीं कटता
कुछ इशारा ज़रूर सीन में है
पीठ का ज़ख्म कह रहा है दोस्त
एक खंजर भी आस्तीन में है
'फ़ानी' मंज़र में है दरार कहाँ
शीशा चटका तो दूरबीन में है
१५.
चराग़ और हवाओं के दरम्यान हूँ मैं
ये जानता हूँ की दोनों का इम्तिहान हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त वो कह के निकल गई इतना
तेरी तो जान हूँ पर अपने घर की शान हूँ मैं
उगलती रहती हूँ हीरे मैं कोख से अक्सर
शिनाख्त मेरी की इक कोयले की खान हूँ मैं
ज़रूरतों ने मुझे क्या से क्या बना डाला
कभी था तीर के जैसा तो अब कमान हूँ मैं
उठा रहा हूँ अभी बोझ अपने घर-भर का
सफ़ेद बाल हैं लेकिन अभी जवान हूँ मैं
मुझ ही को पढ़ते हैं मुझपे अमल नहीं करते
रटा-रटाया हुआ बाइबल कुरआन हूँ मैं
बहाए आंसू मेरा घर जल के जिस दिन से
ऐ दुनिया तुझसे उसी दिन से बाद-गुमान हूँ मैं
ये बात कब्र में आ के पता चली 'फ़ानी'
की अपने फ़ेलों पे किस दर्जा बेजुबान हूँ मैं
16.
मैं ही अपनी वफ़ा का क़ैदी हूँ
वो ज़मानत पे छूट जाती है
मेरी हालत से जान जाओगे
जिंदगी कितना आजमाती है
ताज ओ मुमताज़ की कहानी अब
‘इश्तिहारों के काम आती है’
तूने पत्थर उठा लिए दुनिया
तेरी बीमारी नफ़्सियाती याती
बस ख़ुशी को न ढूंढ पाए हम
हमको साया कभी मिला ही नहीं
उम्र भर धुप में नहाये हम
ऐ ग़ज़ल इश्किया बुला न हमें
तेरी गलियों को छोड़ आये हम
ज़र,ज़मीं,ओहदे,तमग़े और सनद
खो के खुद को ये चीज़ें लाये हम
बस इसी बात का मलाल रहा
दर्द महंगा न बेच पाये हम
जिंदगी यूँ बसर हुई ‘फ़ानी’
चोट खा-खा के मुस्कुराये हम
मेरी माँ अल-सवेरे ही बिछौना छोड़ देती है
थकन से मुझको कुछ राहत मिले इतनी सी चाहत में
खिसक के बैठती है और कोना छोड़ देती है
अगर गाडी में अपना सर मैं उसकी गोद में रख दूँ
मेरी आँखों पे आँचल का वो कोना छोड़ देती है
मेरी आवाज़ पे अल्लहड नदी सी दौड़ी आती है
बहुत से काम सब सीना-पिरोना छोड़ देती है
बहुत नादिम सी हो जाती है सबके सामने जिस दिन
लरजती उँगलियों से गर भगोना छोड़ देती है
वो खुद रो लेगी पर मुझको कभी रोने नहीं देगी
मैं उसके साथ जब रो दूँ तो रोना छोड़ देती है
हमारे साथ "फ़ानी" ध्यान सबका है तभी छत पे
परिंदों के लिए पानी का दोना छोड़ छोड़ देती है
तीरगी ही तीरगी है घर चलो
क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो
हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो
तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो
क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो
कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो
तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो
माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो
हवा में उड़ के मिट्टी चीखती है
हवा मेरे परों ना मसल दे
लिपट के गुल से तितली चीखती है
बबूलों ने फिर ऊंचे क़द किये हैं
दहल कर रातरानी चीखती है
कई घर एक घर में बस गए क्या
क्यूं अक्सर बूढी कुर्सी चीखती है
इसे क्या ख़्वाब में दिखते हैं खण्डहर
क्यूं सोते-सोते बस्ती चीखती है
बरसना हैं जहाँ गरजे वहीँ पे
मेरी छत पे क्यूं बदली चीखती है
सुना है रात को मेरी गली में
ग़ज़ल भी “फ़ानी-फ़ानी” चीखती है
१.
ज़मीन जब से है तबसे चलन ज़माने का
है इश्क नाम फ़क़त दिल पे चोट खाने का
उरूज पर है अभी इंक़लाब लहरों में
ये वक़्त ठीक नहीं बस्तियां बसने का
किताब मेरी भी रखना सफ़र में तुम अपने
सुलगती आँखों को ग़र शौक हो भीगने का
शहर की गलियों को दीदार इसका करवाओ
ये कहके खींचा किसी ने कफ़न सिरहाने का
है बीच रह में यूँ क़ब्र 'फ़ानी' की शायद
किसी ने वादा किया हो यही पे आने का
२.
उडाओ ना इन्हें ए यार छत पे आने दो
परिंदे होते हैं मासूम चहचाहने दो
बहुत घुटन है मेरे दिल सी तेरे कमरे में
सुबह की धूप की किरने ज़रा सा जाने दो
तजुर्बा पायेगा ये दौर खुद के ज़ख्मों से
नसीहतें न करो इनको ज़ख़्म खाने दो
नसीब होता नहीं सब को लौट के आना
सुबह का भूला अगर हो तो लौट आने दो
बहुत मज़ा है शरारत में बच्चों की फ़ानी
छुपा दो चश्मे को दादी को बडबडाने दो
३.
लोग अगर अच्छे हों तो हालात बहुत तड़पाते हैं
अपने दिल को इस तरहा से हम अक्सर समझाते हैं
वक़्त का धारा मोड़ के आओ सालों पीछे चलते हैं
बच्चा बन जाते हैं और पापा अम्मा चिल्लाते हैं
बहुत दिनों से अपनी छत को चाट रहा है ये सूरज
कर के आँखें लाल चलो अब हम इसको धमकाते हैं
लाख खताएं उसकी मेरा दिल न मैला कर पायीं
उसके पछतावे के आंसू गंगाजल बन जाते हैं
आने वाली पीढी जिसको भूल न पाए सदियों तक
काग़ज़ के कच्चे चेहरे पे कुछ ऐसा लिख जाते हैं
मुल्क़ के मसले तेरे-मेरे क़द से ऊपर हैं "फ़ानी"
आओ हम बच्चों को कुछ पाजी नज्में सिखलाते हैं
४.
आरज़ू चाहत की सीने में दफ़न हो जाएगी
बाद तेरे जिंदगी उरियां बदन हो जाएगी
प्यार जिसका माना मैंने जान से भी कीमती
कल वो मुझको छोड़ दूजे की दुल्हन हो जाएगी
करवटों के पुर्से ले के सुबह तक फैलेगी रात
नींद की आमद से आँखों में जलन हो जाएगी
फूट के मुझसे कहेंगे पाँव के छाले मेरे
अब नज़र मंजिल ना आई तो थकन हो जायगी
मेरी गजलों में जो अक्सर झूमती-गाती मिली
आज वो लड़की भी आवारा वतन हो जाएगी
पीछे रह जाएँगी कपड़ों से भरी अल्मारियाँ
"फ़ानी" इक उजली सी चादर पैराहन हो जाएगी
५.
हमारी याद में आंसू बहाना तक नहीं आया
तकाज़ा इश्क का था जो निभाना तक नहीं आया
कभी तू फूल होती है कभी तू ख़ार होती है
है तेरे दिल में क्या तुझको बताना तक नहीं आया
जिसे हमदम कहा तुमने जिसे हमराज़ कहते थे
वही रोया है तो फिर चुप कराना तक नहीं आया
तुम्हे ग़म से उबारा जिसने उसको भूल बैठे हो
ये कर्जा इश्क का है ये चुकाना तक नहीं आया
तेरे हर एक सितम को हँसते-हँसते पी गया लेकिन
ख़ताओं को मेरी तुझको भुलाना तक नहीं आया
तुम्हारे पास बैठे हैं तुम्ही से है हसद जिनको
खरे लोगों से क्यूँ रिश्ते बनाना तक नहीं आया
ये रेल भीड़ का छीनेगा तेरे पाँव की धरती
नज़र अब तक तुझे तेरा ठिकाना तक नहीं आया
कोई ये उस से पूछे भटकूँ मैं इक पाँव से कितना
मेरी जानिब क्यूं हाथ अपना बढ़ाना तक नहीं आया
दरारें पड़ गयीं मेरी पुकारों में भी ऐ "फ़ानी"
सदा से पर सदा उसको मिलाना तक नहीं आया
६.
"सामने औरों के यूँ खुल के ना रोना चाहिए
बोझ जो अपना हो उस को खुद ही ढोना चाहिए
फूल,फल,कलियाँ ओ साया सब तुम्हे मिल जायेंगे
शर्त इतनी सी है पहले बीज बोना चाहिए
आज दिल्ली हो गई मैली सियासी नारों से
मीर-ओ-ग़ालिब की ग़ज़ल से इसको धोना चाहिए
चाँद की बातों से ना बहलेगा ये मुफलिस मियाँ
इसको रोटी और सोने को बिछौना चाहिए
कुछ नए भगवान हैं इन्सान को भटका रहे
फिर यहाँ दरवेश इक गौतम सा होना चाहिए
ये ग़ज़ल ले आई 'फ़ानी' रात के आख़ीर तक
मानना ये है मेरा अब तुमको सोना चाहिए
७.
हर इम्तिहान में साबित ये कर गया हूँ मैं
बिखर-बिखर गया लेकिन संवर गया हूँ मैं
किसी ने चेहरा लिया और किसी ने क़द-काठी
कुछ अपने बच्चों में ऐसे बिखर गया हूँ मैं
पनाह भी ना मिली सर पे साया भी ना मिला
तुम्हारी याद को लेकर जिधर गया हूँ मैं
ये बेनियाज़ी का आलम की खुद से कहता हूँ
अभी यहीं था ना जाने किधर गया हूँ मैं
इबादतों में रहे कब सहर से शाम हुई
के पहले रोज़े(रमज़ान) के दिन सा गुज़र गया हूँ मैं
मैं सबसे से मिलता हूँ हंस के तो लोग कहते हैं
ज़ुबान ओ फ़ेल से तो बाप पर गया हूँ मैं
उसे पसंद ना थी 'फ़ानी' मेरी ऊंची उड़ान
इसीलिए तो पर अपने कतर गया हूँ मैं
८.
"मेरे सच्चे जज़्बे और उसकी कहानी झूठ की
हो गई है आजकल दुनिया दिवानी झूठ की
मेरी मज़लूमी मुझ ही में सर पटकती रह गई
और वो थी जिसने सारी बात मानी झूठ की
उसके एहसासात और लफ़्ज़ों की वो कारीगरी
सर से ले के पाँव तक वो तर्जुमानी झूठ की
मैंने उसको दिल की मलिका कर दिया और एक दिन
ये समझ आया की वो थी सिर्फ रानी झूठ की
सच लिखा है और सच में आज तक जीता रहा
मैं नहीं जी सकता कोई जिंदगानी झूठ की
उसके अश्कों में पिघल के 'फ़ानी' जाना एक सच
आंसुओं की आँख से थी वो रवानी झूठ की
९.
नगर के मेले में गुमनाम अजनबी हूँ मैं
किसी ने समझा नहीं मुझको आदमी हूँ मैं
ज़माना मुझको भुला दे ये गैर मुमकिन है
तेरा ख्याल है जिसमें वो शायरी हूँ मैं
सुपुर्द करके वो खुद को ये मुझसे बोली थी
मुझे सम्भाल के रखना के जिंदगी हूँ मैं
निबाह कर के मरासिम को मुझको लगता है
वफ़ा के नाम पे इक फर्द आख़िरी हूँ मैं
इधर में दीन बसा है उधर में दुनिया है
इन्ही के बीच की इक कच्ची सी गली हूँ मैं
सहर को ठोकरें मरी तो रात को नोचा
किसी अमीर की लौंडी की नौकरी हूँ मैं
हटा ले आशियाँ अपना तू मेरे रस्ते से
हवा ये कहके चली "फ़ानी" सरफिरी हूँ
१०.
नींद पूरी करके दिन की तारे जब जगने लगे
ख़याल आया तब थकन का पैर जब दुखने लगे
इस क़दर आदी हुए हैं ग़ैर के कंधों के हम
देख के परछाईं अपनी रात में डरने लगे
रातरानी एक कोने में सहम कर जा लगी
क्यारियों में कैक्टस ही कैक्टस दिखने लगे
ये सियासत की नज़र का है करिश्मा देखिये
हमने जिनको भी चुन वो आदमी बिकने लगे
रिश्ता चाहे जो भी हो फितरत बदल पाई कहाँ
सांप के बच्चे थे लेकिन सांप को डसने लगे
जाने क्या देखेंगी "फ़ानी" ये नयी फसलें यहाँ
लोग बच्चों की किताबों में ज़हर भरने लगे
११.
"जाविदा ये उम्र करने का हुनर मालूम है
हम जियेंगे हमको मरने का हुनर मालूम है
ख्वाहिश-ए-दिल कब नचा पाई इशारों पे हमें
खुद से दो-दो हाथ करने का हुनर मालूम है
ग़म की शिद्दत दफ़्न कर डालेंगे दिल कब्र में
खून-ए-दिल शेरों में भरने का हुनर मालूम है
ऐ मुहाजिर तुझसे बेहतर तो कबूतर हैं जिन्हें
अपनी ही छत पे उतरने का हुनर मालूम है
कोसने से पहले किस्मत को ज़रा सा सोचना
क्या तुझे कुछ कर गुजरने का हुनर मालूम है
जी रहा है आदमी 'फ़ानी' मशीनों की तरह
जिसको बस इक पेट भरने का हुनर मालूम
१२.
"दो बच्चों के बीच में तन्हा लेटा हूँ
ऐ सरहद मैं कुछ-कुछ तेरे जैसा हूँ
आधा-आधा मैं उनका पर मेरा कौन
जो भी जागे उसको थपकी देता हूँ
उसकी हमदर्दी अब पीछे छूट चुकी
अब मैं हर मंजिल पे तन्हा बैठा हूँ
थक के चूर हो चाँद चलो आराम करो
सूरज को आवाज़ लगाये देता हूँ
अल्लाह हू-अल्लाह हू जब भी जपता हूँ
नानक की बानी को तब-तब जीता हूँ
बढ़ते रहना आदत है अपनी 'फ़ानी'
बंजारों का चलता-फिरता डेरा हूँ
१३.
ताक़ पे हमने यहाँ शम्मा जला रक्खी है
आंधी किस ज़ोर की मौसम ने चला रक्खी है
अपना ग़म बाँट लिया शेर ओ ग़ज़ल नज़्मों ने
शायरी तूने मेरी जान बचा रक्खी है
थक गयीं हैं मेरी पलकें उसे ढोते-ढोते
एक तस्वीर जो आँखों में सजा रक्खी है
डगमगते हुए क़दमों को मेरे थामेगी
जिंदगी तुझसे ये उम्मीद लगा रक्खी है
राख़ कर देते हैं परवानों के पर पल भर में
इन चरागों ने इक आफत सी मचा रक्खी है
कोट ने ढांप लिए कुर्ते के पैबन्द सभी
सर्दियों तुमने मेरी शान बचा रक्खी है
अपने आमल से जन्नत कहाँ मुमकिन "फ़ानी"
माँ के पैरों ने मगर आस बंधा रक्खी है
१४.
माजरा क्या है खोजबीन में है
जो भी है वो तमाशाबीन में है
इन बहारों की आगवानी को
एक पौधा मेरी ज़मीन में है
अपने बच्चों में बैठता है कहाँ
आदमी रात-दिन मशीन में है
कुछ ना कुछ शाम को मैं लाऊंगा
मेरा बच्चा इसी यकीन में है
बेवजह फिल्म से नहीं कटता
कुछ इशारा ज़रूर सीन में है
पीठ का ज़ख्म कह रहा है दोस्त
एक खंजर भी आस्तीन में है
'फ़ानी' मंज़र में है दरार कहाँ
शीशा चटका तो दूरबीन में है
१५.
चराग़ और हवाओं के दरम्यान हूँ मैं
ये जानता हूँ की दोनों का इम्तिहान हूँ मैं
बिछड़ते वक़्त वो कह के निकल गई इतना
तेरी तो जान हूँ पर अपने घर की शान हूँ मैं
उगलती रहती हूँ हीरे मैं कोख से अक्सर
शिनाख्त मेरी की इक कोयले की खान हूँ मैं
ज़रूरतों ने मुझे क्या से क्या बना डाला
कभी था तीर के जैसा तो अब कमान हूँ मैं
उठा रहा हूँ अभी बोझ अपने घर-भर का
सफ़ेद बाल हैं लेकिन अभी जवान हूँ मैं
मुझ ही को पढ़ते हैं मुझपे अमल नहीं करते
रटा-रटाया हुआ बाइबल कुरआन हूँ मैं
बहाए आंसू मेरा घर जल के जिस दिन से
ऐ दुनिया तुझसे उसी दिन से बाद-गुमान हूँ मैं
ये बात कब्र में आ के पता चली 'फ़ानी'
की अपने फ़ेलों पे किस दर्जा बेजुबान हूँ मैं
16.
रात जोबन पे जब भी आती है
इक ग़ज़ल मुझ में गुनगुनाती हैमैं ही अपनी वफ़ा का क़ैदी हूँ
वो ज़मानत पे छूट जाती है
मेरी हालत से जान जाओगे
जिंदगी कितना आजमाती है
ताज ओ मुमताज़ की कहानी अब
‘इश्तिहारों के काम आती है’
तूने पत्थर उठा लिए दुनिया
तेरी बीमारी नफ़्सियाती याती
17.
सारी दुनिया में घूम आये हमबस ख़ुशी को न ढूंढ पाए हम
हमको साया कभी मिला ही नहीं
उम्र भर धुप में नहाये हम
ऐ ग़ज़ल इश्किया बुला न हमें
तेरी गलियों को छोड़ आये हम
ज़र,ज़मीं,ओहदे,तमग़े और सनद
खो के खुद को ये चीज़ें लाये हम
बस इसी बात का मलाल रहा
दर्द महंगा न बेच पाये हम
जिंदगी यूँ बसर हुई ‘फ़ानी’
चोट खा-खा के मुस्कुराये हम
18.
भरी हो नींद आँखों में वो सोना छोड़ देती है मेरी माँ अल-सवेरे ही बिछौना छोड़ देती है
थकन से मुझको कुछ राहत मिले इतनी सी चाहत में
खिसक के बैठती है और कोना छोड़ देती है
अगर गाडी में अपना सर मैं उसकी गोद में रख दूँ
मेरी आँखों पे आँचल का वो कोना छोड़ देती है
मेरी आवाज़ पे अल्लहड नदी सी दौड़ी आती है
बहुत से काम सब सीना-पिरोना छोड़ देती है
बहुत नादिम सी हो जाती है सबके सामने जिस दिन
लरजती उँगलियों से गर भगोना छोड़ देती है
वो खुद रो लेगी पर मुझको कभी रोने नहीं देगी
मैं उसके साथ जब रो दूँ तो रोना छोड़ देती है
हमारे साथ "फ़ानी" ध्यान सबका है तभी छत पे
परिंदों के लिए पानी का दोना छोड़ छोड़ देती है
19.
रात की बस्ती बसी है घर चलो तीरगी ही तीरगी है घर चलो
क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो
हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो
तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा
लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो
क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो
कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो
तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो
माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो
20.
बुलंदी पर हूँ पस्ती चीखती हैहवा में उड़ के मिट्टी चीखती है
हवा मेरे परों ना मसल दे
लिपट के गुल से तितली चीखती है
बबूलों ने फिर ऊंचे क़द किये हैं
दहल कर रातरानी चीखती है
कई घर एक घर में बस गए क्या
क्यूं अक्सर बूढी कुर्सी चीखती है
इसे क्या ख़्वाब में दिखते हैं खण्डहर
क्यूं सोते-सोते बस्ती चीखती है
बरसना हैं जहाँ गरजे वहीँ पे
मेरी छत पे क्यूं बदली चीखती है
सुना है रात को मेरी गली में
ग़ज़ल भी “फ़ानी-फ़ानी” चीखती है