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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'

परिचय:
अवधेश सिंह भदौरिया'अनुराग'
जन्म स्थान -मैनपुरी(उ.प्र .)
जन्म-२८ जुलाई १९७४ ,संपर्क-09555548249, Email: ask180507@gmail.com
गतिविधियाँ-वर्तमान में कर्म स्थली -नई दिल्ली, मैं अपने विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य की विभिन्न गतिविधियों में संलग्न रहा|आगरा वि.वि.से लेखा शास्त्र एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की ,फिल्म निर्देशन व पटकथा लेखन में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त की |सर्वप्रथम मुंबई को अपना कार्यक्षेत्र बनाया |लेखक-निर्देशक श्री गुलजार के साथ सहायक फिल्म निर्देशक के रूप में कार्य किया|पटकथा लेखन में श्री कमलेश्वर के साथ टी.वी.के लिए कार्य कर दिल्ली वापस लौट आया|तत्पश्चात दिल्ली दूरदर्शन में दूरदर्शन निदेशक डॉ.जॉन चर्चिल,श्री प्रेमचंद्र आर्या के साथ कार्य किया|साथ ही साथ आकाशवाणी आगरा,दिल्ली,नजिवाबाद केन्द्रों से काव्यपाठ एवं नाटक,एकांकी के लिए कार्य किया |२००२ से अपना व्यवसाय करते हुए साहित्यक कार्यक्रमों में मेहमान वक्ता-प्रवक्ता एवं दिग्दर्शक के रूप में स्वतंत्र रूप से सेवारत हूँ। 
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१. 
खुली आँखों से मैं ,जब-जब शहर को देखता हूँ,
बुझे से लोग मिले हैं ,कई टूटे हुए घर देखता हूँ ।

बड़ी रफ़्तार से आगे निकलते,जो लोग अक्सर,
उन्हें भी भीड़ में तन्हा ,अधिकतर देखता हूँ ।

पलटता वक्त जब भी लौटता ,है प्रश्न लेकर ,
हैं चिपके सबके चेहरों पर,मौन!उत्तर देखता हूँ ।

हाल पूछा , चूमकर जलते चिरागों की हथेली,
कहा तो कुछ नहीं उसने , मैं हँसता, देखता हूँ ।

नदी जब भी किनारा छोड़ती है ,सूखती जाती ,
मगर उसका सफ़र हूँ मैं ,रोज़ बेहतर देखता हूँ ।

बदन पर रोशनी तो ढेर सारी,पर जिस्म नंगा है ,
संभालता, आदमी हूँ ,बेख़ौफ़ मंजर देखता हूँ ।

फूल ,गुलदस्ते ,चमेली,रातरानी ,मोगरा भी है ,
ज़मीं’अनुराग’सूखी,घर-घर को बंज़र देखता हूँ ।
२. 

शब्दों की मर्यादा में ,कुछ कहने का साहस करना,े
ऐसा लगता है अंजुली में ,लहराता सागर भरना ।

बस्ती-बस्ती,बच्चा-बच्चा,पत्ता-पत्ता मन भी टूटा है ,
मुश्किल है पर ,मुमकिन उम्मीदों को आँगन करना ।

चटक रहा है सख्त धरातल,सदियों से दोहन के बाद,
लौट रहे हैं फिर सत्-पथ पे,शुब-शुभ परिवर्तन करना ।

सभी दिशाओं में जाना है ,लेकर के विस्तार ,विकल्प ,
रूठे,टूटे , पीछे छूटे है उन सबका संशोधन करना ।

योगिक सा मन,तपस्वी बन ,सबल सारथी आया है,
स्वच्छ,समर्पण,दोष-मुक्त हो,उस पथ का निर्देशन करना ।

विश्व चकित हो सोख रहा ,भारत की गरिमा के रंग ,
उठो सजग हो ,प्राण प्रतिष्ठित ,करके मन अर्पण करना ।

शब्दों की मर्यादा में ,कुछ कहने का साहस करना,े
ऐसा लगता है अंजुली में ,लहराता सागर भरना ।
३. 
ज़िन्दगी ने दिया,फिर दगा दोस्तों,
कोई अपना रहा ना , सगा दोस्तों ।

खो गए रास्ते ,हैं मज़िलें गुमशुदा ,
पाँव फिर हो गए ,बेवफा दोस्तों ।

यूँ तराशा,चटख के बिखरने लगा,
आदमीं तो मिट्टी का,पुतला दोस्तों ।

ठीक मंझधार में छोड़कर नाखुदा,
साथ पतवार भी ले गया दोस्तों ।

अब तो हर सांस ही इम्तहाँ आपका,
ज़हर पी कर चली है ,हवा दोस्तों ।

अब दुआ रंग लाएगी ,सब देखना ,
काम आती नहीं है ,जब दबा दोस्तों ।

मैं उमर भर उन्हें ,प्यार करता रहा ,
जिनसे इक भी दफा,ना मिला दोस्तों ।

दिल कई मर्तबा ,टूट कर जुड़ गया ,
मन दोवारा नहीं ,मिल सका दोस्तों ।

जाने ‘अनुराग’कैसी लगन लग गई,
आज तक इस अगन में जला दोस्तों ।
४. 
टूटकर जब भी, संभलता आदमी ,
और भी ज्यादा ,निखरता आदमी ।

मंजिलों के बाद भी, जो रास्ते हैं ,
उनसे भी आगे, निकलता आदमी ।

तोड़कर चट्टान,जब दरिया चला ,
देख!सागर सा,पिघलता आदमी|

है इरादों की बहुत, लम्बी उड़ान ,
जीतकर अक्सर,गुजरता आदमी|


मिल गई ,बुझते चिरागों को हवा,
लो रौशनी लेकर,चहकता आदमी|

बंद दरबाजों पे,दस्तक फिर हुई ,
खौफ से डरता,सिमटता आदमी|

तोड़कर चट्टान,जब दरिया चला ,
देख!सागर सा,पिघलता आदमी|

है इरादों की बहुत, लम्बी उड़ान ,
जीतकर अक्सर,गुजरता आदमी|

मिल गई ,बुझते चिरागों को हवा,
लो रौशनी लेकर,चहकता आदमी|

बंद दरबाजों पे,दस्तक फिर हुई ,
खौफ से डरता,सिमटता आदमी|
५. 
आंकलन मत कीजिये ,इस वक़्त उस उन्माद का ,
ये सीधा-सीधा, मेरे और तेरे ,बीच का संवाद था ।

तोड़कर सागर किनारा ,घुस गया है बस्तियों में ,
पी गया जो ज़िन्दगी को ,ये कौन सा तूफ़ान था ।

जागरण का दौर है मत सो,अन्धेरा ढूंढ ना ले
मशवरा है आपको, मानना ना मानना ईमान था ।

हो गई जर्जर इमारत ,खंडहर रोशन गुलिस्ताँ,
गर्दिशों के दौर थे ‘कल’हर आदमी बदनाम था ।

महफिले चलती रहीं ,चारो तरफ शानो-शबाब ,
हम तो उनसे भी मिले,जो अपने घर मेहमान था
६. 
आरजू कद से,बड़ी हो जाएगी ,
क्या पता था,ख़ुशी खो जायेगी ।

आइना पत्थर, से जब टकराएगा,
अक्श की शै,सौ गुनी हो जायेगी ।

जल रहे है पांव ,थोड़ा सब्र करले ,
दरख्तों में भी,छांव घनी हो जायेगी ।

बर्फ सी जिद को पिघलना चाहिए ,
धूप जब भी, गुनगुनी हो जायेगी ।

पास थे,उनकी कद्र कुछ भी ना थी,
फासले में कीमते ,सौगुनी हो जायेंगी ।


जब भी कहना हो,तो रहना होश में ,
बात सच की ,अनसुनी हो जायेगी ।

ये अँधेरे ,ये घुटन ,अब तोड़ भी दो,
वरना! पागल ,ज़िन्दगी हो जायेगी ।

घर से बाहर पांव ,अब रख दीजिये ,
आपसे परचित ,ज़मीं हो जायेगी ।

मोड़ लो वापस,ग़मों के सिलसिले ,
मुस्कुराती आँख में ,नमीं हो जाएगी ।

७.
 आने वाला वक्त अगर, दोहराएगा बीते लम्हें ,
उन्हें पकड़ के रख लूंगा ,जो छूट गए पीछे लम्हें ।

रफ्ता-रफ्ता उमींदों की, चादर जब बुन जायेगी ,
थोडा रूककर के सुस्तायेंगे ,यादों के मीठे लम्हें ।

माँ की उंगली पकड़ ठुमक कर ,चला करेंगे इतराके ,
आयेंगे कल बचपन की ,चंचलता के नीचे लम्हें ।

अभी वक्त है ठहर जरा तू,बतिया ले मन की बातें ,
ना जाने फिर चुप्पी ओढ़े ,आ जाएँ पीछे लम्हें ।

नवयोवन की भाषा सचमुच ,इतनी ज्यादा बदल गई ,
समझ नहीं पाते माँ-बाबा ,बच्चों के खीचे लम्हें ।

नैतिकता औ संस्कार को ,निगल रहा है परिवर्तन ,
हमने जो अरमानो से ,जी भर कर के सींचे लम्हें ।
८. 
मंजिल तो थी मेरे सामने ,पर रहा भटकाती रही ,
यूँ ही जिंदगी को ढूंढने में,जिंदगी जाती रही |

ख्वाव में होंठों से उसने ,मेरी पलकों को छुआ ,
जागने पर दो घडी तक, बेकली जाती रही |

तुम गए मौसम गए ,गए मस्तियों के दौर भी ,
श्याम के हाथों से मनो,बांसुरी जाती रही |

आरजूएं हो गईं कद से बड़ी ,मैं क्या करूँ ?
जब मुकम्बल जिंदगी हो,वो घडी जाती रही |

ये बदलता दौर है,तू कोई भी दावा ना कर ,
आप से गैरत ,हवा से ताजगी जाती रही |

न पता-कोई ठिकाना ,दर-ब-दर खानाबदोश ,
पांव के नीचे से अक्सर ही ,ज़मीं जाती रही |

वक्क्त के दामन से लिपटे सुर्ख-स्याह फलसफा ,
हम उजालों से मिले तो ,रौशनी जाती रही |

आजकल ‘अनुराग है बस एक आवारा धुआं ,
वक्त से उम्मीद ,सांसों से नमीं जाती रही ।
९.
 इस पिघलते ह्रदय में,है मिलन की आस कैसी ?
बह रहा मन अश्रु बनके ,फिर नयन में प्यास कैसी?

मौन मन उलझा उदासी की भवंर में अनवरत ,
फिर है ‘जुवां ‘आहों की ,पदचाप ,कैसी ?

कोई छेड़े स्वर, विरह की तान वीणा बेसुरी ,
छटपटाती,व्यथित ,व्याकुल ,गूंजती आवाज कैसी ।

फूल-कलियाँ रूठकर ,मंमुन्द एकाकी भ्रमर,
गुनगुनाहट ,गुन्जनों की हो गयी चुपचाप कैसी ?

चांदनी बिखरी धवल चादर ,धरातल की छटा ,
ठंडी-ठंडी वायु तन से, जहर रही है आग कैसी?

हैं सभी बंधन शिथिल ,बेबस प्रणय के ग्गेत हैं ,
चकित उन्मादित लहर में ,जग रही है रात कैसी ?

मन मुकुर में भी वही प्रतिबिम्ब ,मानहु शेष हैं ,
ये है ह्रदय की व्यक्तिगत ,बुनुयाद कैसी ।

भाव सहमे और मन की भावना भयभीत है ,
शशीकला की छवि छटा ,चितकी हुई है उदास कैसी ?

घोर तम,घनघोर तम ,घनश्याम मय ,घन-दामिनी ,
कोयलों की कूंक कटु ,काक वाक् मिठास कैसी ?

१०. 
दर्द में डूब गए,आंसुओं में बह निकले ,
दिल जो पिघला ,तो समंदर निकले |

बेवफा ‘साँस’मगर,एतबार सदियों का ,
हाँ यही सोच के ,घर से सिकंदर निकले|

माइने रोज नए गूंथती,कतरा-कतरा सीती,
ज़िन्दगी काश!नए-दौर का सफर निकले |

टूटकर आप बिखरते हैं ,या संवर जाते हैं,
जिसने हालात संभाले,वो मुकद्दर निकले|

जब भी दिखते हैं आइनों में, दरकते चेहरे ,
बद्दुआ लग गयी एहवाब,सितमगर निकले|

बख्शते आप’नहीं’सांस,घुटन क्यों होती ,
बेबजह ज़िन्दगी है,लोग बेखबर निकले |

आप अल्फाज तराशेंगे,जुबां पर जब भी,
लफ़्ज-आवाज सुनो,दोनों हमसफर निकले|
११.
 आंकलन मत कीजिये ,इस वक़्त उस उन्माद का ,
ये सीधा-सीधा, मेरे और तेरे ,बीच का संवाद था ।

तोड़कर सागर किनारा ,घुस गया है बस्तियों में ,
पी गया जो ज़िन्दगी को ,ये कौन सा तूफ़ान था ।

जागरण का दौर है मत सो,अन्धेरा ढूंढ ना ले
मशवरा है आपको, मानना ना मानना ईमान था ।

हो गई जर्जर इमारत ,खंडहर रोशन गुलिस्ताँ,
गर्दिशों के दौर थे ‘कल’हर आदमी बदनाम था ।

महफिले चलती रहीं ,चारो तरफ शानो-शबाब ,
हम तो उनसे भी मिले,जो अपने घर मेहमान था
१२.
 रात थक कर सो चुकी,मैं जागता हूँ भोर तक ,
है मेरी खामोशियों का,ये सफ़र उस शोर तक ।

लम्हां-लम्हां जोड़कर ,जीनी पड़ी जो जिंदगी ,
क्या हुआ हासिल तुम्हे ,यूँ वक़्त मेरा तोड़कर ।

लटके रहे ,रिश्ते सलीबों पे, मगर हम उम्रभर,
थे अँधेरे हमसफ़र ,उस रोशनी के छोर तक ।

जल रहा था मन मगर ,बेचैन, आँखों में नमीं ।
ये साँस ही उम्मीद बन,ले चली उस मोड़ तक ।

हवाएं रुख बदलती हैं तो ,मौसम भी बदलता ,
हम मदद लेकर चलें,इस वक़्त हर कमजोर तक ।

‘अनुराग’ पुल बन जाइये,मिल जायेंगे दोनों किनारे,
प्रेम के ये गीत गूंजे,घर,नदी,सागर,सदी के मोड़ तक। 
१३.
 मेरे इखित्यार में तो है ,मगर हांसिल नहीं है ,
सफर भी,रास्ता भी है ,मगर मंजिल नहीं है|

महज़ दस्तूर है ,मिलना-मिलाना ,दोस्ताना ,
बदलते दौर में ,कोई यकीं काबिल नहीं है ।

वो इक दिन लौट आएंगे ,मेरी उम्मीद उनसे ,
फ़कत गुमराह है,वो आदमी पागल नहीं है ।
१४. 
तू रूठेगा अगर,हम भी मनाना सीख लेंगे,
ज़मीं है प्यार में मौजूद ,अब दलदल नहीं है ।

उठा लो नाज़ तुम उनके,जो दिल से तुम्हारा हो,
चलेंगे साथ हम मिलकर ,क़दम बोझिल नहीं हैं ।

यूँ ही कोशिश रही जारी ,दिलों को जीत लायेंगे ,
हमें उनको जगाना है ,जहाँ हलचल नहीं है ।

ना हो पतवार गर’अनुराग’,तो मुश्किल भँवर है,
लहर के साथ हो लेना ,अगर साहिल नहीं है 
१५. 
जलता हुआ चिराग,हवा ने बुझा दिया ,
झूठा नकाब सच के,बयाँ पर चढ़ा दिया |

हम पूजते रहे जिसे ,भगवान् की तरह ,
कम्बखत ने साँसों पे,पहरा बिठा दिया|

कल तक ख्याल था,जिन्हें मेरे सुकून से ,
उसने ही मेरी रहा को,मुश्किल बना दिया|

मैं जानता हूँ आप भी,गुमराह हैं मगर ,
भटके हुए को फिर भी,रास्ता बता दिया |

मैं ज़िन्दगी से सामना,करने लगा हूँ जब,
तो ज़िन्दगी ने सचका,आइना दिखा दिया |

क्यों आजमा रहे हैं आप ,उस गरीब को ,
हालात ने चाह जिसे ,पत्थर बना दिया |

बड़ी दूर तक चलेंगे ,उजाले में हमसफ़र ,
‘अनुराग’ने ये सोचके ही, घर जला दिया|