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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 15 मई 2013

कल्पना रामानी


जन्म ६ जून १९५१,उज्जैन मध्यप्रदेश,आप गीत गजल,दोहे, छंदमुक्त कविता और हाइकु में विशेष रुचि रखती हैं। आप इनके ब्लॉग पर भी जा के देख सकते हैं.सम्पर्क सूत्र -kalpanasramani@gmail.com
ब्लोग्स::http://kalpanasramani.blogspot.ae/,
http://kalpanasramanis.blogspot.ae/,http://kalpanasramani.blogspot.ae/

प्रस्तुत है इनकी कुछ खास ग़ज़लें ....
१.
वतन को जान हम जानें, हमारी जाँ वतन में हो।
जुड़ा है जन्म से नाता, जनम भर मन नमन में हो।

कुटिल सैय्याद बन बैठे, विधाता भव्य भारत के।
बदल दे तख्त ज़ुल्मों का, वो जज़्बा, जोश जन में हो।

करम ऐसे न हों अपने, शरम से नयन झुक जाएँ।
हया के अश्क हों बाकी, दया का भाव मन में हो।

गुलों को अगर रौंदेंगे, बनेगा बाग ही बंजर।
सदय जो हाथ सहलाएँ, सदा खुशबू चमन में हो।

बुनें ऐसे सरस नगमें, गुने दिल से जिन्हें दुनिया।
सुनाएँ गजल कुछ ऐसी, कि चर्चा अंजुमन में हो।

सजग साहित्य सेवी हों, सबल हो देश की भाषा।
लुभाए विश्व को हिन्दी, वो ताक़त अब सृजन में हो।

न लांघे शत्रु सरहद को, भले ही शीश कट जाएँ।
मिले माटी में जब तन ये, तिरंगे के कफ़न में हो।

२.
 जिसे पुरखों, ने सौंपा था, वो अपनापन कहाँ है?
जहाँ सुख बीज, रोपा था, वो घर आँगन कहाँ है?

सितारे-चाँद, सूरज आज, भी हरते, अँधेरा।
मगर मन का, हरे तम वो, दिया रौशन, कहाँ है?

वही सागर, वही नदियाँ, वही झरनों, की धारा।
करे जो कंठ तर सबके, वो जल पावन, कहाँ है?

कहाँ पायल, की वो रुनझुन, कहाँ गीतों, की गुनगुन।
कहाँ वो चूड़ियाँ खोईं, मधुर खनखन, कहाँ है?

सकल उपहार देती हैं, सभी ऋतुएँ समय पर।
धरा सूखी है क्यों फिर भी, हरित सावन कहाँ है?

भरे भंडार, भारत के, हुए क्यों, आज खाली।
बढ़ी क्यों भूख बेकारी, गया वो धन कहाँ है?

अगर कमजोर शासन है, बताएँ कौन दोषी।
जो हल ढूँढे, सवालों का, सजग वो जन, कहाँ है?


३.
कभी तो दिन वो आएगा, सभी के अपने घर होंगे।
मिलेंगी रोटियाँ सबको, न सपने दर-बदर होंगे।

मिलेंगे बाग खेतों से, न होगी बीच में खाई।
पलायन गाँव छोड़ेंगे, सदय पालक शहर होंगे।

वरेंगे रोड गलियों को, जुड़ेंगे भाव भावों से।
बढ़ेंगे शुभ कदम जिस पथ, प्रगति के दर उधर होंगे।

जुड़ेगी धूप छाया से, विभाजन की मिटा रेखा।
चढ़ेंगे गाँव जब सीढ़ी, नगर भी हमसफर होंगे।

हवाएँ एक सी बहतीं, वही जल अन्न है सबका।
दिलों से दिल जुड़ेंगे स्वाद भी साझे अगर होंगे।

जलेंगे दीप घर घर में, रहेगा पर्व हर मौसम।
पपीहे मोर गाएँगे, मधुर कोकिल के स्वर होंगे।
विफल हर चाल दुश्मन की, करेंगे देश प्रेमी सब।
हमारे दस्तखत जग के, फ़लक पर पुरअसर होंगे।

४.
तुम पिता जीवन का क्रम हो, भूमि पर वरदान हो।
घर चमन के मुग्ध माली, हम गुलों के प्राण हो।

शक्त पालक तुम हमारे, मित्र सबसे हो अहम,
गर्व है तुम पर हमें, जीवन की तुम पहचान हो।

तेरे संतति प्रेम को है, जानती बेटी तेरी,
फर्ज़ के कटु आवरण में, मोम सी मुस्कान हो।

सद्गुणों के सार को, विस्तार तुमसे ही मिला,
जन्म से थे मूढ़ हम, तुम गूढ़ अन्तर्ज्ञान हो।

क्या नहीं संस्कार तुमसे, पा लिए हमने पिता,
तुम गुरू, शिक्षक तुम्हीं हो, तुम ही वेद पुराण हो।

पथ प्रदर्शक तुम हमारे, मंज़िलें तुमसे मिलीं,
गुत्थियों का हल सरलतम, गणित हो, विज्ञान हो।

रक्ष तुमसे संगिनी, बेफिक्र है संतान भी,
तुम कवच परिवार के, पुख्ता अडिग चट्टान हो।

५.
डाल से मुझको न तोड़ो, फूल कहता है।
उँगलियों से यूँ न मसलो, फूल कहता है।

देख मुझको क्यारियों में, बाल खुश कितने!
प्रेम से फुलवारी सींचो, फूल कहता है।

बांधकर जूड़े में क्यों तुम, प्राण हरते हो?
छेदकर मत हार गूँथो, फूल कहता है।

रौंदते हो पग तले, निर्दय हो क्यों इतने ?
यूं प्रदूषण मत बढ़ाओ, फूल कहता है।

ईश भी नहीं चाहता कृति, नष्ट हो उसकी।
मंदिरों में दम न घोंटो, फूल कहता है।

देख लो करते सुरक्षा, शूल बन साथी।
तुम मनुष हो, कुछ तो सोचो, फूल कहता है।

नष्ट तो होना ही है यह, सच है जीवन का।
वक्त से पहले न मारो, फूल कहता है।

मैं तो हूँ पर्यावरण का, एक सेवक ही।
शुद्ध साँसों को सहेजो, फूल कहता है।

सूखकर गुलशन में बिखरूँ, शेष है चाहत।

बीज मेरे फिर से रोपो, फूल कहता है।

६.
रात दिन जो एक करते, एक रोटी के लिए।
आज वो ही जन तरसते, एक रोटी के लिए।

अन्न दाता देश के जो, हल चलाते हैं सदा।
अपने गिरवी खेत रखते, एक रोटी के लिए।

खून है सस्ता मगर, महँगी बहुत हैं रोटियाँ।
पेट कटते, अंग बिकते एक रोटी के लिए।

जो गए सपने सजाकर, गाँव के राजा शहर।
बन कुली सिर बोझ धरते, एक रोटी के लिए।

दीन बचपन रोटियों को, गर्द में है ढूँढता।
गर्द पर ही दिन गुजरते, एक रोटी के लिए।

पूछते हैं लोग उनसे, क्यों नहीं अक्षर पढ़ा।
भूख से जो शब्द गढ़ते, एक रोटी के लिए।

आज गर हावी न होती, भूख अपने देश पर।

लोग क्यों परदेस बसते, एक रोटी के लिए।

७.
दर्पण से रोज़ अपना, मैं नाम पूछती हूँ।
पहचान क्या है मेरी, हर शाम पूछती हूँ।

जो हमसफर थे कल तक, मुँह सबने आज मोड़ा।
हर मोड़ रुक के राहों, से मुकाम पूछती हूँ।

निर्दोष हूँ मैं फिर भी, जीने की क्यों सज़ा है?
क्यों है वजूद मेरा, क्या काम, पूछती हूँ।

अपनों की भीड़ में हूँ, मैं आज भी अकेली,
परछाइयों से सारे, पैगाम पूछती हूँ।

हैरत है हादसों में, हर बार बच के निकली,

क्या होगा? ज़िंदगी से, अंजाम पूछती हूँ। 

८.
छोड़ा गाँव, चले पाँव शहर, क्या होगा?
न मिली छाँव, नहीं ठौर न घर, क्या होगा?

सपने देखे महज, चाँद सितारों के ही।
पग से छूट गई, भूमि मगर क्या होगा?

बोकर शूल ही आए थे अपने हाथों से।
अब तो फूल भी फेरेंगे नज़र क्या होगा?

पिंजरा तोड़ दिया, मुक्त मगर हो न सके।
खुद ही काट लिए अपने पर, क्या होगा?

भूले उनको ही जो, साथ सदा रहते थे।
साथी शेष है अब मूक नगर, क्या होगा?

खोकर राज हुए कैद, सिफर सपनों में।
हक़ ही अब न रहा अपनों पर, क्या होगा?

देगा कौन दवा, मोल लिए दर्दों की।
होगा किसकी दुआओं का असर, क्या होगा?

९.
खुशियों का गुर जिसने जाना, सदा सुखी इंसान वही।
सेवा के व्रत में रत है जो, जनता का भगवान वही।

अक्षर पढ़ जो उच्च कहाते, क्या कहिए उन मूढ़ों को।
गुण की कीमत जिसने जानी, कहलाता विद्वान वही।

रक्त बहाकर दीन जनों का, लोभी धन के घट भरते।
परहित को जो स्वेद बहाए, मानव महज महान वही।

आधा बांटें, दुगना पाएँ, नियम नियति के अमिट सदा।
सदपुरुषों ने वचन कहे जो, कहते वेद पुराण वही।

यह जग सबका ठौर ठिकाना, कण कण है इक माटी का।
इक ईश्वर से नाता जोड़ें, राम वही रहमान वही।

१०.
रिश्तों में सबसे प्यारी, लगती है दोस्ती।
मजबूत रिश्ते सारे करती है दोस्ती।

जीवन को अर्थ देती, बिन स्वार्थ के सदा,
बेदाम प्रेम का दम, भरती है दोस्ती।

जब घेरता अँधेरा, चहुं ओर से हमें,
बुझते हृदय को रोशन करती है दोस्ती।

कितने हों झूठ जग में, यह सत्य है अहम,
हर उम्र का सहारा बनती है दोस्ती।

यदि मित्र साथ हों तो, हर गम अजीज है,
हर हाल में हरिक गम, हरती है दोस्ती।

मासूम मन चमन का,यह फूल जानिए,
स्नेहिल स्पर्श पाकर,खिलती है दोस्ती।

सदमित्र बनके मित्रोंपर, नाज़ कीजिये,
किस्मत से ज़िंदगी में,
मिलती है दोस्ती। 

11.
भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?
नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।

नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,
न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।

रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,
अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।

पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,
फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।

पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा
खोद कब्रें, कर दफन, कोरा कफन टुकड़ा लिखें।

हों बहिष्कृत परिजनों से, और धिक्कृत हर गली,
डूब जिसमें खुद मरें वो, शर्म का दरिया लिखें।

कब तलक घिसते रहेंगे, रक्त भरकर लेखनी,
हों न वर्धित वंश, उनके नाश को न्यौता लिखें


12.
यह बारिशों का मौसम, कितना हसीन है!
धरती गगन का संगम, कितना हसीन है!

जाती नज़र जहाँ तक, बौछार की बहार,
बूँदों का नृत्य छम-छम, कितना हसीन है!

बच्चों के हाथ में हैं, कागज़ की किश्तियाँ,
फिर भीगने का ये क्रम, कितना हसीन है!

विहगों की रागिनी है, कोयल की कूक भी,
उपवन का रूप अनुपम, कितना हसीन है!

झूलों पे पींग भरतीं, इठलातीं तरुणियाँ,
रस-रूप का समागम, कितना हसीन है!

मित्रों का साथ हो तो, आनंद दो गुना,
नगमें सुनाता आलम, कितना हसीन है!

हर मन का मैल मेटे, सुखदाई मानसून,
हर मन का नेक हमदम, कितना हसीन है!

13

पाप गठरी सिर धरे, गंगा नहाने आ गए।
जन्म भर का मैल, सलिला में मिलाने आ गए।

ये छिपे रुस्तम कहाते, देश के हैं सभ्य जन,
पीढ़ियों को तारने, माँ को मनाने आ गए।

मन चढ़ी कालिख, वसन तन धर धवल बगुले भगत,
मंदिरों में राम धुन के गीत गाने आ गए।

रक्त से निर्दोष के, घर बाग सींचे उम्र भर,
रामनामी ओढ़ अब, छींटे छुड़ाने आ गए।

चंद सिक्कों के लिए, बेचा किए अपना ज़मीर,
चंद सिक्के भीख दे, दानी कहाने आ गए।

लूटकर धन धान्य घट, भरते रहे ताज़िन्दगी,
गंग तीरे धर्म का, लंगर चलाने आ गए।

इन परम पाखंडियों को, दो सुमत भागीरथी,
दोष अर्पण कर तुझे, जो मोक्ष पाने आ गए।

14

जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।

सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।

जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,
तंग चालों बीच जुड़ता, घोंसला उनके लिए।

झाड़ते हैं हर गली, हर रास्ते की धूल जो,
धूल ही होती दवा है, या दुआ उनके लिए।

गाँव वालों के सभी हक़, ले गए लोभी शहर,
सिर्फ सूनी गागरी, ठंडा तवा उनके लिए।

क्या पढ़ेंगे दीन कविता, गीत या कोई गजल,
भूख के भावों भरा, कोरा सफ़ा उनके लिए।

बेरहम शासन तले जो, घुट रहा है आम जन,
रहनुमाओं ने अभी तक, क्या किया उनके लिए।


15.
गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं में चल के देखते हैं।

सुदूर गोद में वादी की, गुल परी उतरी,
प्रियम! हो साथ तुम्हारा, तो चल के देखते हैं।

उतर के आई है आँगन, बरात बूँदों की,
बुला रहा है लड़कपन, मचल के देखते हैं।

अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा,
मिला है क्या, जो पतंगे यूँ जल के देखते हैं।

नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना,
फरेबी आज वे नज़रें, बदल के देखते हैं।

चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी,
अभी कुछ और करिश्में, ग़ज़ल के देखते हैं।

विगत को भूल ही जाएँ, तो ‘कल्पना’ अच्छा,
सुखी वही जो सहारे, नवल के देख


16.
वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते।
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।

लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े हैं सीढ़ियाँ,
शीश पर अब पाँव रख, आकाश पाना चाहते।

भर लिए गोदाम लेकिन, पेट भरता ही नहीं,
दीन-दुखियों के निवाले, नोच खाना चाहते।

बाँटते वैसाखियाँ, जन-जन को पहले कर अपंग,
दर्द देकर बेरहम, मरहम लगाना चाहते।

खूब दोहन कर निचोड़ा, उर्वरा भू को प्रथम,
अब हलक की प्यास, लोगों की सुखाना चाहते।

शहरियत से बाँधकर, बँधुआ किये ग्रामीण जन,
गाँव का अस्तित्व ही, शायद मिटाना चाहते।

सिर चढ़ी अंग्रेज़ियत, देशी भुला दीं बोलियाँ,
बदनियत फिर से, गुलामी को बुलाना चाहते।

देश जाए या रसातल, या हो दुश्मन के अधीन,
दे हवा आतंक को, कुर्सी बचाना चाहते।

कोशिशें नापाक उनकी, खाक कर दें साथियों,
खाक में जो स्वत्व जन-जन का मिलाना चाहते।


१७. 

ज्यों ही मौसम में नमी होने लगी।
खुशनुमा यह ज़िंदगी होने लगी।

उपवनों में देखकर ऋतुराज को,
सुर्ख रंगी हर कली होने लगी।

बादलों से पा सुधारस, फिर फिदा,
सागरों पर हर नदी होने लगी।

चाँद-तारे तो चले मुख मोड़कर,
जुगनुओं से रोशनी होने लगी।

रास्ते पक्के शहर के देखकर,
गाँव की आहत गली होने लगी।

जब गमों ने प्यार से देखा मुझे
हर नए गम से खुशी होने लगी।

लोभ का लखकर समंदर “कल्पना”
इस जहाँ से बेरुखी होने लगी।

१८.

बदले हो तुम, तो है क्या, मैं भी बदल जाऊँगी।
दायरा तोड़ कहीं और निकल जाऊँगी।

एक चट्टान हूँ मैं, मोम नहीं याद रहे।
जो छुअन भर से तुम्हारी, ही पिघल जाऊँगी।

जब बिना बात के नाराज़ हो दरका दर्पण।
मेरा चेहरा है वही, क्यों मैं दहल जाऊँगी?

मैं तो बेफिक्र थी, मासूम सा दिल देके तुम्हें।
क्या खबर थी कि मैं यूँ, खुद को ही छल जाऊँगी।

वक्त पर होश मुझे आ गया अच्छा ये हुआ।
ठोकरें खा के मुहब्बत में सँभल जाऊँगी।

दर अगर बंद हुआ एक, तो हैं और अनेक।
चलते-चलते ही नए दौर में ढल जाऊँगी।

किसी गफलत में न रहना, कि अकेली हूँ सुनो।
साथ मैं एक सखी लेके गज़ल जाऊँगी।

जो मुझे आज तलक, तुमने दिये हैं तोहफे।
वे तुम्हारे लिए मैं छोड़ सकल जाऊँगी।

‘कल्पना’ सोच के रक्खा है जिगर पर पत्थर।
पी के इक बार जुदाई का गरल जाऊँगी।

१९. 

कल जंगलों का मातम, देखा क़रीब से।
पेड़ों को तोड़ते दम, देखा क़रीब से।

जो काल बनके आए, थे तो मनुष्य ही।
पर हाथ कितने निर्मम, देखा क़रीब से।

रह रह के ज़ालिमों की, चलती थीं आरियाँ।
बरबादियों का वो क्रम, देखा क़रीब से।

रोई थी डाली-डाली, काँपी थी हर दिशा।
फिर सिसकियों का आलम, देखा क़रीब से।

अपने ही राज से थे, जो बेदखल हुए।
उन चौपदों का वो गम, देखा करीब से।

यह हश्र देख वन का, मन टूटता गया।
दिन के उजाले में तम, देखा करीब से।

२०. 

आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,
भोर का तारा छिपा जाने किधर है।

डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

साज़ हैं खामोश, चुप है रागिनी भी,
गीत गुमसुम, मूक सुर, बेबस बहर है।

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,
नफरतों के शूल बुनती सेज पर है।

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,
हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।