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१.
ईश तुम्हारे द्वार पर, ये कैसा अन्याय।
कोई पाए दो गुना, कोई वापस जाय।
समदरसी कहकर गए, तुमको संत फ़क़ीर।
लेकिन सबकी क्यों भला, अलग-अलग तक़दीर।
हम तो प्राणी तुच्छ हैं, तुम सबके करतार।
दाता, फिर यह किसलिए, भेद भाव का वार।
जाएँ किसकी शरण हम, बतलाओ हे ईश।
धरती पर दिखता नहीं, कोई न्यायाधीश।
नाथ तुम्हारे राज्य में, हम क्यों हुए अनाथ।
माना तुमको ही सखा, फिर भी दिया न साथ।
प्रभुजी, कर दो अब हमें, बीच भँवर से पार।
या निज हाथों खोल दो, मुक्ति धाम के द्वार।
२.
कर में बसते देवता, कर दर्शन नित प्रात,
एक नए संकल्प से, दिन की हो शुरुआत।
योग स्वास्थ्य का मूल है, प्रात भ्रमण है प्राण,
रहे निरोगी तन सदा, मिले कष्ट से त्राण।
सहज हास्य से हो अगर, हर दिन की शुरुआत,
शुद्ध रक्त संचार हो, रोग करे नहिं घात।
प्रेम रसों से सींचिए, जीवन का उद्यान,
खुशियों के अंकुर उगें, मिले सुफल वरदान।
पर हित को तत्पर रहें, बड़े पुण्य का काम,
मान बढ़ेगा आपका, होगा जन कल्याण।
तीखी है तलवार से, शब्द बाण की धार,
या तन को घायल करे,वा मन का संहार।
भाव सहज,भाषा सरल,रचना हो निर्दोष,
मान रचयिता को मिले,पाठक को संतोष।
बुरा न देखें ना सुनें, और बुरा मत बोल,
महापुरुष कहकर गए, वचन बड़े अनमोल।
एक द्वार गर बंद है,काहे का संताप,
सौ दरवाजे सामने, खुल जाएंगे आप।
गुण के पौधे रोपिए, महकाएँ मन प्राण,
सींचें निश्छल प्रेम से, हो सबका कल्याण।
बचपन तो नादान था,यौवन, शिक्षा ज्ञान,
स्वर्ण काल है सृजन का,जीवन संध्या जान।
अडिग रहें निज वचन पर, कभी न मानें हार,
कथनी को पूरा करें, पूजेगा संसार।
मन में पलता बैर है, भाव प्रबल प्रतिशोध,
कहलाता इन्सान वो, मूढ़, कुटिल, निर्बोध।
३.
ढाई अक्षर प्रेम के, गूढ मगर है सार,
एक शब्द की नींव पर, टिका हुआ संसार।
प्रेम तृप्ति का रूप है, प्रेम अधूरी प्यास,
इसके मालिक आप हैं, आप इसीके दास।
प्रेम न मांगे सम्पदा, प्रेम न मांगे भोग,
जग बैरी उसके लिए, जिसे प्रेम का रोग।
प्रेम न माने नीतियाँ, और न रीति रिवाज।
अपने अपने पंथ पर,हर प्रेमी को नाज़।
प्रेम अनोखी अगन है, ऐसी लगन जगाय।
स्वयं पतंगा जल मरे, बात समझ ना आय।
यह तप है, यह ताप भी, जैसा रूप लुभाय।
एक मनस को शांति दे, दूजा मन सुलगाय।
प्रेम विजित है सर्वदा, हारे कभी न प्रेम,
प्रेम पंथ अपनाइए, पाएँ सच्चा प्रेम।
देखी इस संसार में, हमने ऐसी रीत,
देकर पाने की ललक, रखते सारे मीत।
हर मन चाहे प्रेम का, यथायोग्य प्रतिदान,
मगर त्याग हो मूल में, ऐसा प्रेम महान।
जप,तप,पूजा, पाठ का, तब तक नहीं प्रभाव,
जब तक निश्छल प्रेम का, मन में नहीं बहाव।
४.
अगर न सुलझें उलझनें, रखें न मन पर बोझ।
छोड़ें सब कुछ ईश पर, करें प्रार्थना रोज़।
मन को बस में कीजिये, करें प्रार्थना ध्यान।
मन से माँगी हर दुआ, कभी न खाली जाय।
नित्य करें शुभ कामना, पाएँ शुभ आशीष।
ईश विनय से कष्ट कम, होगा यही विधान।
बंद न रहते द्वार सब, देखें नज़र उठाय।
हर हालत में प्रार्थना, नया द्वार दिखलाय।
अगर काल भी सामने, किसी रूप में आय,
सुनकर सच्ची प्रार्थना,खाली वापस जाय।
कहना चाहे कल्पना, बात नहीं अज्ञात।
मानें तो कर जोड़िए, बाकी मन की बात।
५.
जब से आए शहर में,लेकर धन का रोग,
यहाँ अकेले हो गए, खोए खोए लोग।
और न मिल पाया यहाँ, अपनों का वो प्यार।
रात गए घर लौटते, थके हुए गमगीन।
रहे हाथ खाली, हुए, स्वजनों से भी दूर।
हालत शहरों की दिखी, गांवों से बदहाल,
घर ऐसे ज्यों घोंसले, सड़कें उलझा जाल।
सब पाने की होड़ में, दौड़े बेबुनियाद,
क्या पाया क्या खो दिया, अब न रहा वो याद।
रेखा चित्र दिखा रहे, इन चेहरों की पीर।
क्यों शहरों को दौड़ते, खोकर अपना राज।
६.
हवा प्रदूषित हो चली, चल पाखी उस गाँव,
जहां स्वच्छ आकाश हो, शुद्ध हवा का ठाँव।
भूख बढ़ी इस शहर में , पड़ने लगा अकाल,
क्या खाओगे तुम, तुम्हें खा जाएगा काल।
राहें हैं दुर्गम बड़ी, मगर न टूटे आस,
भर लो कोमल पंख में, एक नया उल्लास।
पेड़ नहीं महफूज अब, कट कट हुए निढाल,
नई नीड़ तुम देख लो, अब माई के लाल।
त्याग मोह की माँद को, बढ़ जाओ उस ओर,
जहां सुरमई शाम हो, स्वर्णिम शीतल भोर।
जागे नई जिजीविषा, बना रहे विश्वास,
निकलेगा सूरज नया, होगा फिर मधुमास।
पंख तुम्हारे पास हैं, होना नहीं निराश।
उड़ जा लेकर चोंच में, यह प्यारा आकाश।
७.
जंगल में अतिक्रमण की, जब से सुलगी आग,
वन जीवों में मच गई, सहसा भागमभाग।
पेड़ सभी कटने लगे, शेष रही ना आस,
हिरण चौकड़ी भूलकर, कोने खड़ा उदास।
कल तक जो रानी बनी, देती थी आदेश,
सुपर सयानी लोमड़ी, भूल गई उपदेश।
आसमान पर छा गई, खूब घटा घनघोर,
मगर मोर चुपचाप है, नहीं मचाता शोर।
चिंतित है खरगोश भी, सोच रहा खामोश,
गलती तो इंसान की, फल भोगे निर्दोष।
भेड़ें घर वापस चलीं, खाली पेट निराश,
वन ही बंजर हो गए,मिली न तिनका घास।
सूंड उठा, चिंघाड़ता, भाग रहा गजराज,
फिर से नई तलाश में, किया पलायन आज।
छोड़ गुफा पागल बना, नाहर रहा दहाड़,
प्राणी भागे जा रहे, कैसे मिले शिकार।
८.
ऋतु बसंत की आ गई, उत्सव का है दौर,
कोयल सुर में गा उठी, लदे आम पर बौर।
गुलमोहर कचनार भी, खिले खिले हैं आज,
पुष्प पल्लवों से सजा,ऋतु बसंत का ताज।
जंगल में मेला लगा, विहग वृक्ष थे साथ,
चर्चाओं में खास थी, ऋतु रानी की बात।
कमी न हो जब अन्न की, जल के स्रोत अनंत।
महके हरित वसुंधरा, होगा सदा बसंत।
सरसों फूली खेत में, स्वर्णलता सी धूप,
देखा यहाँ बसंत का, अद्भुत मोहक रूप।
कलियाँ दावत दे रहीं, मधुर मधुर मकरंद,
गीत सुनातीं तितलियाँ, भँवरे लिखते छंद।
कंत! पूछती कामिनी, मुझसे सुंदर कौन?
कलियों पर नज़रें टिकीं, प्रश्न हो गया मौन।
९.
माँ तुम जीवन ज्योत्सना, तुम जन्मों का सार।
प्रातः का तुम मंत्र हो, तुझे नमन शत बार।
त्याग तुम्हारा जग विदित, ममता प्रेम अगाध।
हृदय हिलोरें मारती, संतति सुख की साध।
किया बाल-हठ कृष्ण ने, माँ तुम कितनी धीर।
पुत्र प्रेम हित युक्ति से, चाँद उतारा नीर।
माँ तुम केवल दायिनी, लेने की कब चाह।
सुख वारे संतान पर, दुख की चुन ली राह।
दो बाहों का पालना, शैशव का था कोट।
सदा सँभाला अंक में, कभी न आई चोट।
तुमसे ही जग को मिला, सृष्टि सृजन विस्तार।
तव चरणों में पा लिया, इस जीवन का सार।
सखा तुम्हीं, शिक्षक तुम्हीं, मिला तुम्हीं से ज्ञान।
सत्कर्मों की सीख से, पाया यश सम्मान।
संग खेलकर हारती, बचपन की तुम मीत।
यादों में अब तक बसी, माँ वो अपनी जीत।
शिकन भाल संतान के, देख हुई हैरान।
पल भर में हल सोचती, करती सहज निदान।
मुक्त तुम्हारे कर्ज़ से, कैसे हो संतान।
हों सपूत माँ वत्सले, दो ऐसा सदज्ञान।
१०.
जब से ब्रह्मा ने रचा, सुंदर यह संसार,
स्वयं लक्ष्मी ने लिया, नारी का अवतार।
हर नारी होती सदा, रूप गुणों की खान,
ज्ञान चक्षु मनु खोलकर, नारी को पहचान।
शापित होंगे आप ही, नारी की संतान।
प्रेम, प्रेम से पाइए, नारी हृदय विशाल,
स्नेह सुरा, सुख, सम्पदा, से हों मालामाल।
नारी रूठी सुख गया, गई लक्ष्मी छोड़,
अपने पावन प्रेम से, नारी का मन जोड़।
संचित दानों से करे, नारी सदा कमाल।
अपनों के सुख के लिए, अपने सुख को त्याग,
तन मन से तत्पर रहे, नारी का अनुराग
सक्षम है हर हाल में, ताकत इसकी जान,
नमन करें इस देवि को, नारी सदा महान।
११.
सच कहता है आइना, देखें जितनी बार।
सौ टुकड़े कर दीजिये, वही सत्य सौ बार।
जैसा होगा आइना, वैसा दिखता रूप।
समतल अगर हुआ नहीं, दिखे रूप विद्रूप।
झूठ रहेगा सामने, सत्य छिपा रह जाय।
मन से अपने पूछिए, बड़े शर्म की बात।
दर्पण तो दिखला रहा, तेरा उजला रूप।
अंतर का कैसे दिखे, अंधकार मय कूप।
१२.
पुत्र बसा परदेस में, पद का चढ़ा बुखार।
माँ के सपने ले गया, सात समंदर पार।
माँ के जो अरमान थे, सारे हो गए धूल।
फूल दिये थे पुत्र को, पुत्र दे गया शूल।
सींचा था निज रक्त से, सेवा की दिन रात।
माँ के कोमल ह्रदय पर, हुआ कुठाराघात।
मन के अपने मौन से, करती रहती बात।
दोषी क्या संतान ही, पालक सब निर्दोष।
देश छोडने के लिए, किया उसे मजबूर।
गाएगी संतान क्यों, फिर विदेश का राग।
१३.
समय चक्र चलता रहा, घड़ियाँ भी गतिमान,
हौले-हौले आ
गया, नया साल मेहमान।
रतजागे में रत सभी, शोर मचा चहुँ ओर,
लो मुस्काती
आ गई, नवल वर्ष की भोर।
पंछी दुबके नीड़ में, थर-थर काँपे रात,
स्वागत
नूतन वर्ष का, नई सुबह के साथ।
लिखते-लिखते थक गए, दोहे कोमल हाथ,
फिर
भी मन खुश आज है, नए वर्ष के साथ।
नए बरस का आगमन, लाया शीत अपार,
कुहरे
में लिपटा हुआ, हर इक स्वागत द्वार।
सजे धजे बाजार हैं, पब, क्लब, होटल,
माल
बारहमासी पाहुना, आया नूतन साल।
नया साल फिर आ गया, जागा है
विश्वास,
करम डोर थामे रहें, पूरी होगी आस।
नई सुबह, सूरज नया, नए बरस
के साथ,
सुख दुःख मिलकर बाँट लें, मीत बढ़ाकर हाथ।
लाया नूतन साल है,
नए-नए उपहार,
कलुष मिटा मन का मना, बाँटो प्यार अपार।
14.
चम्पा महकी डाल पर, बिखरे रंग हज़ार।
मुदित हुए वन चौपदे, देख सुमन संसार।
कहते चम्पा पेड़ को, जंगल का सिरमौर।
चलता रहता साल भर, गुल खिलने का दौर।
इसके फूलों का बड़ा, अलग एक अंदाज़।
एक वृंत पर हर सुमन, करता एकल राज।
यूँ तो खिलते पुष्प ये, पूरे बारह मास।
लेकिन अंत बसंत का, इनका मौसम खास।
गर्मी इनकी मीत है, इन्हें धूप से नेह।
निखरे तपकर ताप से, कंचन वर्णी देह।
जन जीवन जब जूझता, धूप पसीने संग।
वन्य जीव अठखेलियाँ, करते चम्पा संग।
भँवरों को भाती नहीं, इनकी गंध विशेष।
फिरें उदासी ओढ़कर, ये कलियों के देश।
पुष्प सूखते पेड़ पर, देकर मीठी गंध।
पवन बाँटती विश्व में, इनकी सरस सुगंध।
हरते हैं जन जीव के, जीवन का हर शूल।
अब शूलों से रक्ष हों, ये प्यारे बन-फूल।
जन्नत हो भूलोक पर, अगर हरे हों पेड़।
मीत! कहे यह कल्पना, कुदरत को मत छेड़।
15.
आँख मिचौनी सूर्य की, देख बादलों संग
खेल रचाकर हो रही, कुदरत खुद ही दंग
शिखरों को छूने बढ़े, बादल बाँह पसार
स्वागत करने वादियाँ, कर आईं शृंगार
सुन सुखदाई सावनी, जल-बूँदों का शोर
लतिकाएँ बन बावली, चलीं बुर्ज की ओर
भीगी-भीगी शाम से, हर्षित तन-मन-रोम
इन्द्र धनुष सहसा दिखा, सजा रंग से व्योम
पहली बरखा ज्यों गिरी, मुदित हुआ संसार
जन-जन मन की तल्खियाँ, बहा ले गई धार
अमृत वर्षा से मिले, जड़ चेतन को प्राण
अंकुर फूटे भूमि से, खिले खेत, उद्यान
बौछारों की बाढ़ से, जल-थल हुए समान
जल स्रोतों ने झूमके, छुए नए सोपान
छेड़ी ऋतु ने रागिनी, उमड़े भाव अपार
कलम-कलम देने लगी, गीतों को आकार
चाह यही, न कहीं रहें, सूखे के अवशेष
उर्वर सालों साल हो, यह माटी, यह देश
16.
उच्च हिमालय पार कर, मैदानों की ओर।
चली मुग्ध भागीरथी, होकर भाव विभोर।
गो मुख से निकली चली, वेगमई अविराम।
धरती पर हरिद्वार में, मिला उसे विश्राम।
गंगा से ही विश्व में, भारत की पहचान।
लाखों जन जुटते यहाँ, करते पावन स्नान।
सलिला पाप विनाशिनी, करती रोग निदान।
दुख हरणी,सुख दायिनी, देती जीवन दान।
आए जो इस बार हम, गंगा माँ के द्वार।
कहीं नहीं हमको दिखी, इसकी निर्मल धार।
रोग मुक्त सबको किया, रोगी हो गई आप।
दूषित खुद होने लगी, धोते धोते पाप।
गंगा मैली हो चली, कहिए दोषी कौन,
चुप चुप है सरकार भी, जनता भी है मौन।
जज़्बा है गर शेष कुछ, शेष अगर अनुराग,
वैतरणी को तार दे, जाग मनुष अब जाग।
क्या समझाए लेखनी, बाँट रही जज़्बात,
बात कहे यह कल्पना, करें न माँ पर घात।
17
युग निर्माता देश के, कर प्रयत्न दिन रात,
आज़ादी की दे गए, हमें सुखद सौगात।
प्राण निछावर कर दिये, हरने जन की पीर,
याद करेंगी पीढ़ियाँ, भर नयनों में नीर।
आज सपूतों देश के, नव निर्माता आप,
आलस निद्रा त्यागकर, बदलें क्रिया कलाप।
काल बनें जो जीव के, करें न वो निर्माण,
ऐसे कदम उठाइये, मिले जगत को त्राण।
इन हाथों निर्माण हैं, इनसे ही विध्वंस,
या तो मनुज कहाइए, या फिर दनुज नृशंस।
नष्ट करें यदि स्वयं के, अंतर का तम-कूप,
बन जाएगा देश ये, स्वर्ग धाम का रूप।
18.
कर में बसते देवता, कर दर्शन नित प्रात,
एक नए संकल्प से दिन की हो शुरुवात।
कर दाता, कर दीन भी, जैसा करें प्रयोग।
छिपा हुआ हर हाथ में, सुख दुख का संजोग।
दिखलाती हर रेख है, जीवन की तस्वीर।
अपने हाथ सँवार लें, खुद अपनी तकदीर।
अपनेपन से है बड़ा, भाव न दूजा कोय।
हाथ मिलें तो गैर भी, पल में अपना होय।
गुस्से में जब कर उठे, क्योंकर मन सुख पाय।
सहलाए कर प्यार से, मन प्रसन्न हो जाय।
अंतर में चाहे भरा, कितना भी दुर्भाव।
होता स्नेहिल स्पर्श से, पशु मन में बदलाव।
कर से ही निर्माण हैं, कर से ही विध्वंस,
या तो मनुज कहाइए, या फिर दनुज नृशंस।
19.
माँ सम हिन्दी भारती, आँचल में भर प्यार।
चली विजय-रथ वाहिनी, सात समंदर पार।
सकल भाव इस ह्रदय के, हिन्दी पर कुर्बान।
हिन्दी से ही आज है, मेरा देश महान।
इतनी सरला सहज है, क्या क्या करूँ बखान।
अमृत रस की धार सा, इसका छंद विधान।
जिस विध लिखें, पढ़ें वही, कहीं नहीं अटकाव।
जितना प्यारा नाम है, उतने सुंदर भाव।
हिन्दी की ही गूँज हो, ऐसा रचें विधान,
हिन्दी में ही सब करें, हिन्दी का गुणगान।
हिन्दी का ही व्याकरण, सबसे सरल सुबोध,
बढ्ने दें इस बेल को, काट सभी अवरोध।
सुगम स्रोत साहित्य का, रस छंदों की खान,
भाषा यह बेजोड़ है, लिखने में आसान।
बहु भाषाएँ सीखिये, सबका हो सम्मान,
पर हिन्दी को दीजिये, सदा शीर्ष स्थान।
हिन्दी से ही शान है, हिन्दी से ही ज्ञान,
बनी रहे हर हाल में, निजता की पहचान।
जो रहते परदेस में, हिन्दी से हैं दूर,
निकट वही रखते उसे, हिन्दी उनका नूर।
अपने ही होंगे अगर, अँग्रेजी के दास,
कैसे फिर इस देश में, हिन्दी करे विकास।
जड़ें जमा लीं विश्व में, ज्यों विशाल वट वृक्ष,
क्यों पिछड़ी निज देश में, यही प्रश्न है यक्ष।
20
ईश तुम्हारे द्वार पर, ये कैसा अन्याय।
कोई पाए दो गुना, कोई वापस जाय।
समदरसी कहकर गए, तुमको संत फ़क़ीर।
लेकिन सबकी क्यों भला, अलग-अलग तक़दीर।
हम तो प्राणी तुच्छ हैं, तुम सबके करतार।
दाता, फिर यह किसलिए, भेद भाव का वार।
जाएँ किसकी शरण हम, बतलाओ हे ईश।
धरती पर दिखता नहीं, कोई न्यायाधीश।
नाथ तुम्हारे राज्य में, हम क्यों हुए अनाथ।
माना तुमको ही सखा, फिर भी दिया न साथ।
प्रभुजी, कर दो अब हमें, बीच भँवर से पार।
या निज हाथों खोल दो, मुक्ति धाम के द्वार।
२१.
२१.