जन्म: १ जुलाई १९४२ को ग्राम उमरी ज़िला मुरादाबाद
में।सात गीत संग्रह, बारह ग़ज़ल संग्रह, दो कविता संग्रह, एक
महाकाव्य तथा एक उपन्यास के रचयिता
पानी ने मानी नहीं, कभी द्वैत की बात
कभी न आरी से कटा, काटो
तुम दिन रात.
*
बोलो फिर कैसे कटे, यह जीवन की रात
सुना
रहा है हर कोई, बस मुर्दों की बात.
*
स्वस्थ समर्थन है कठिन, खंडन है आसान
बनने में सदियाँ लगें,
गिरने में पल जान.
*
राजनीति बंदूक है, कविता एक सितार
ठाँय-ठाँय है इस तरफ, उधर
मधुर झंकार.
*
सात गगन, ये सात स्वर, सप्त वचन, नवरंग
बंध जाएँ तो प्रेम
है, अलग रहें तो जंग.
*
प्रतिभा का लक्षण यही, पद चाहे ना मोल.
सबके मन में नाचती,
बिना बजाए ढोल.
*
राजनीति ये खेलती, कैसे-कैसे खेल
सदा प्रेम पर तानती,
नफ़रत-भरी गुलेल.
*
सर पर जलती आग है, पैरों में भी आग
नफ़रत के इस नर्क से, भाग
सके तो भाग.
*
निंदा का काला धुआँ अंधर देय बनाय
और प्रशंसा, ज्योति का,
सुंदर सरल उपाय.
*
जहाँ त्याग का त्याग है, वहाँ लोभ ही लोभ
और लोभ का मन जहाँ,
वहाँ क्षोभ ही क्षोभ.
*
प्रेम खिला इक फूल है, खुशबू बाँटे जाय
प्रेम एक जलता
दिया, सदा ज्योति बिखराय.
*
जहाँ काम है, लोभ है, और मोह की मार
वहाँ भला कैसे रहे,
निर्मल पावन प्यार.
*
प्रेम और प्रिय प्रार्थना, एक भाव दो रूप.
भेद-भाव इनमें
नहीं, दोनों भाव अनूप.
*
तन का सुख ज्यों धूप में, इक छतरी की छाँव
किंतु आत्म-आनंद
है, नित हरियाला गाँव.
*
योग और शुभ ध्यान के, लेकर ये दो पाँव.
बिना चले चलते रहो,
मिल जाएगा गाँव.
*
वर्तमान तो ब्रह्म है, आगत माया-रूप.
इक तो सर पर छाँव है,
दूजा सर पर धूप.
*
पथ के पत्थर से ‘कुँअर’, यह ही एक बचाव.
उन्हें बनाकर मील
का, पत्थर रखते जाव.
२.
भावुक मन औ' सिंधु का, एक सरीखा रूप
जिस पर जितनी तरलता, उतनी उस पर धूप
सज्जन का औ' मेघ का, कहियत एक सुभाय
खारा पानी खुद पियै, मीठा जल दे जाय
पानी पर कब पड़ सकी, कोई कहीं खरोंच
प्यासी चिड़िया उड़ गईं, मार नुकीली चोंच
जब से कद तरु के बढ़े, नीची हुई मुंडेर
ताक-झाँक करने लगे, झरबेरी के पेड़
नदियों ने जाकर किया, सागर में विश्राम
पर आवारा मेघ का, धाम न कोई ग्राम
सिसक-सिसक गेहूँ कहें, फफक-फफक कर धान
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान
वैसे तो मिलते नहीं, नदिया के दो कूल
प्रिय ने ले निज बाँह में, खूब सुधारी भूल
मधुऋतु का कुछ यों मिला उसको प्यार असीम
कड़वे से मीठा हुआ सूखा-रूखा नीम
रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहाल
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।
जिस पर जितनी तरलता, उतनी उस पर धूप
सज्जन का औ' मेघ का, कहियत एक सुभाय
खारा पानी खुद पियै, मीठा जल दे जाय
पानी पर कब पड़ सकी, कोई कहीं खरोंच
प्यासी चिड़िया उड़ गईं, मार नुकीली चोंच
जब से कद तरु के बढ़े, नीची हुई मुंडेर
ताक-झाँक करने लगे, झरबेरी के पेड़
नदियों ने जाकर किया, सागर में विश्राम
पर आवारा मेघ का, धाम न कोई ग्राम
सिसक-सिसक गेहूँ कहें, फफक-फफक कर धान
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान
वैसे तो मिलते नहीं, नदिया के दो कूल
प्रिय ने ले निज बाँह में, खूब सुधारी भूल
मधुऋतु का कुछ यों मिला उसको प्यार असीम
कड़वे से मीठा हुआ सूखा-रूखा नीम
रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहाल
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।