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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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बुधवार, 20 मार्च 2013

अहमद फराज

अहमद फराज 
जन्म: १४ जनवरी,१९३१
जन्म स्थान : उतरी पशिचमी प्रान्त कोहट,पाकिस्तान 
साहित्य:उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें खानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं. 25 अगस्त, 2008 को किडनी फेल होने के कारण उनका निधन हो गया. 
१.

कठिन है राह गुज़र, थोडी देर साथ चलोबहुत कडा है सफर ,थोडी देर साथ चलो

तमाम उम्र कहां कोइ साथ देता है
ये जानता हुं मगर ,थोडी देर साथ चलो

नशेमें चूर हुं में तुम्हें भी हओश नहीं
बडा मज़ा हो अगर ,थोडी देर साथ चलो

ये एक शबकी मुलाकात भी गनीमत है
किसे है कलकी खबर ,थोडी देर साथ चलो

अभी तो जाग रहें है चिराग राहों के
अभी है दूर सहर ,थोडी देर साथ चलो

तवाफ मंज़िले जानां हमेंभी करना है
’फराज़’ तुमभी अगर,थोडी देर साथ चलो

२.
जब तेरा दर्द मेरे साथ वफ़ा करता है
एक समंदर मेरी आँखों से बहा करता है

उस की बातें मुझे खुशबु की तरह लगती हैं
फूल जैसे कोई सेहरा मैं खिला करता है

मेरे दोस्त की पहचान यही काफी है
वो हर एक शख्स को दानिस्ता खफा करता है

हैऔर तो कोई सबब उस की मुहब्बत का नहीं
बात इतनी है के वो मुझ से जफा करता है

जब खिज़ा आई तो लौट आये गा वो भी फ़राज़
वो बहारों में ज़रा कम मिला करता है ..!!!

३.

ज़िन्दा था तो किसी ने न पूछा हालात-ए-जिगर,
अब मर गए हैं तो मिट्टी में दबाने आ गए…!

छोड़ के दुनिया को मदहोश हुये थे हम,
वो न जाने क्या सोच कर हमको जगाने आ गए…!

न जाने किस से पूछा है वफ़ा ने पता मेरा,
मेरी कब्र पे भी हमको जगाने आ गए…!

हम तो अंधेरे में सोने के आदी थे,
और वो बेवफ़ा मेरी कब्र पे दिये जलाने आ गए…!

ज़िन्दा था तो एक नज़र न देखा प्यार से फराज़,
मर गए हैं तो अब कब्र पे आँसू बहाने आ गए…!!

४.

ज़िंदगी तेरी अता है तो यह जानेवाला,
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा,

डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ,
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा,

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का फराज़,
ज़ालिम अब के भी नहीं रोएगा तो मर जाएगा…!!

५.

ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते

वहशत का सबब रूज़न-ए-ज़िन्दाँ तो नहीं है
महर-ओ-माह-ओ-अन्जुम को बुझा क्यूँ नहीं देते

इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है
ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते

मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे
मुजरिम है अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते

रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी
रहबर हो तो मन्ज़िल का पता क्यूँ नहीं देते

क्या बीत गई अब के "फ़राज़" अहल-ए-चमन पर
यारान-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यूँ नहीं देते

६.

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

बंदगी हमने छोड़ दी है फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

७.
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम* न सही, फिर भी कभी तो
रस्मे-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

एक उमर से हूँ लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ए राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
यह आखिरी शमाएँ भी बुझाने के लिए आ

८.
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़ाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुये फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुये लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

अब न वो मैं हूँ न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो साये तमन्ना के सराबों में मिलें

९.
जो भी दुख याद न था याद आया
आज क्या जानिये क्या याद आया

याद आया था बिछडना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया

जब कोई ज़ख्म भरा दाग बना
जब कोई भूल गया याद गया

ऐसी मजबूरी कि आलम में फराझ
याद आया तो भी क्या याद आया

हाथ उठाये थे के दिल बैठ गया
जाने क्या वक़्त-ए-दुआ याद आया

१०.

हुई है रात तो आँखों में बस गया फिर तूं,
कहां गया है मेरे शहर के मुसाफिर तूं।

मैं जानता हूं कि दुनिया तुझे बदल देगी,
मैं मानता हूं ऐसा नहीं बजाहिर तूं।

बिछड़ना है तो हंसी-खुशी से बिछड़ जा।
ये क्या सोचता है हर मकाम पे आखिर तूं।

’फराज़’ तुने उसे मुश्किलों में ड़ाल दिया,
ज़माना साहिबे जर और सिर्फ शाईर तूं।

११.

बरसों के बाद देखा इक शख्स दिलरुबा सा,
अब जहां में नहीं है पर नाम था भला सा।

अबरु खिंचे-खिंचे से, आँखें झुकी-झुकी सी,
बातें रुकी-रुकी सी, लहज़ा थका-थका सा।

अल्फाज़ थे के जुगनु आवाज़ के सफर में,
बन जाए जंगलों में जिस तरह रास्ता सा। 

ख्वाबों में ख्वाब उसके, यादों में याद उसकी, 
नींदों में घुल गया हो जैसे कि रतजगा सा। 

पहले भी लोग आए कितने ही जिन्दगी में, 
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा। 

अगली मोहब्ब्तों ने वो नामुरादियां दी, 
ताजा रफाकतों से था दिल ड़रा-ड़रा सा। 

कुछ ये कि मुद्दतों से हम भी नहीं थे रोए, 
कुछ जहर में बुझा था, अहबाब का दिलासा। 

फिर यूं हुआ कि सावन आँखों में बसे थे, 
फिर यूं हुआ कि जैसे दिल में भी था आबला सा। 

अब सच कहें तो यारों, हमको खबर नहीं थी, 
बन जायेगा कयामत इक वाक्या ज़रा सा। 

तेवर थे बेरूखी के, अन्दाज दोस्ती का, 
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा। 

हम दश्त थे कि दरिया, हम जहर थे कि अमर्त, 
नाहक था जोखम हमको जब वो नहीं था प्यासा। (जोहम) 

हमने भी उसको देखा, कल शाम इत्तफाकन, 
अपना भी हाल है अब लोगों ‘फराज़ का सा। 

१२.

दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला

कया कहें कितने मरासिम थे हमारे उससे
वो जो एक शख़्स है मुंह फैर के जाने वाला

क्या ख़बर थी जो मेरी जां में घुला रहता है
है वही सरे - दार भी लाने वाला

मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला

तुम तक्ल्लुफ को भी इख़्लास समझते हो "फराज़"
दोस्त होता नहीं हर साथ निभाने वाला

१३.


वो मुझ से बिछड़ कर अब तक रोया नहीं फराज़
कोई तो है हमदर्द जो उसे रोने नहीं देता

नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं

आयेगा लिखते लिखते ही लिखने का फ़न उन्हें
बच्चे खराब करते हैं कुछ कापियां ज़रूर

उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पर तैर कर जाना फिज़ूल है

वो मेरा सब कुछ था, बस मुकद्दर नहीं फराज़
काश वो मेरा कुछ नहीं बस मुकद्दर होता

न जा की आखिरी हिचकी को ज़रा गौर से सुन
ज़िन्दगी भर का खुलासा इसी आवाज़ में है

उसका किरदार परख लेना यकीन से पहले
मेरे बारे में जो तुमसे बुरा कहता होगा

अब उसे रोज़ न सोचूँ तो बदन टूटता है फ़राज़
इक उम्र हो गयी उसकी याद क नशा करते करते

१४.

कुछ इसलिये भी तुम से मोहब्बत है फ़राज़
मेरा तो कोई नहीं है तुम्हारा तो कोई हो

वो नाम लिखते हुए, रोये तो ज़रूर होंगे
यहां आंसू गिरे होंगे जहां तहरीर बिगड़ी है

ज़िन्दगी तो अपने ही कदमों पे चलती है फ़राज़
ग़ैरों के सहारे तो जनाज़े उठा करते हैं

जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तू इंतज़ार कर शायद !!

१५.

अब किसका जश्न मनाते हो, उस देश का जो तक़सीम हुआ
अब किसके गीत सुनाते हो, उस तन का जो दोनींम हुआ

उस ख़्वाब का जो रेज़ा रेज़ा उन आखों की तक़दीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा टुकड़ा गलियों में बे तौक़ीर हुआ

उस परचम का जिस की हरमत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिस की हरमत मंसूब उदू के नाम हुई

उस जंग को जो तुम हार चुके, उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख़्म का जो सीने पे न था, उस जान का जो वारी भी नहीं

उस खून का जो बदक़िस्मत था, राहों में बहाया तन में रहा
उस फूल का जो बेक़ीमत था, आंगन में खिला या बन में रहा

उस मशरिक़ का जिस को तुम ने नेज़े की अनी मरहम समझा
उस मग़रिब का जिस को तुमने जितना भी लूटा कम समझा

उस मासूमों का जिन के लहू से तुमने फरोज़ां रातें की
या उन मज़लूमों का जिससे खंजर की जुबां में बातें की

उस मरियम का जिस की इफ्फत लूटी है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो क़ातिल है और शामिल है गमख़्वारों में

इन नौहागरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया खुद रोते हैं
एसे भी कहीं दमसाज हुये एसे जल्लाद भी होते हैं

उन भूखे नंगे ढांचों का जो रक्स सरे बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ाज़ाक़ों का जो भेस बदल कर वार करें

या उन झूटे इक़रारों का जो आज तलक ऐफा ना हुये
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुख का निशां हुये

इस शाही का जो दस्त-बदस्त आई है तुम्हारे हिस्सों में
क्यों नंगे वतन की बात करो क्या रख्खा है इन किस्सों में

आंखों में छुपाये अश्कों को होठों में वफा के बोल लिये
इस ज़श्न में भी शामिल हूं नौहों से भरा कश्कोल लिये

१६.

ज़िन्दगी से यही ग़िला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।

हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं
मुसाफ़िर ही काफ़िला है मुझे।

दिल धड़कता नहीं सुलगता है
वो जो ख़्वाहिश थी आबला है मुझे

लबकुशा हूँ तो इस यक़ीन के साथ
क़त्ल होने का हौसला है मुझे।

कौन जाने कि चाहतों में ‘फ़राज़’
क्या गँवाया है क्या मिला है मुझे।

१७.

करूँ ना याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुन_गुनाऊँ उसे

वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़करे करते हैं अपने लोगों से
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे

मगर वो ज़ूद_फ़रामोश ज़ूद रन्ज भी है
के रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊं उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे

जो हम_सफ़र सर-ए-मन्ज़िल बिछड़ रहा है 'फराज़'
अजब नहीं कि अगर याद भी ना आऊँ उसे

१८.

जाने क्यों शिक़स्त का अज़ाब लिए फिरता हूँ
मैं क्या हूँ और क्या ख्वाब लिए फिरता हूँ

उसने एक बार किया था सवाल-ए-मोहब्बत
मैं हर लम्हा वफ़ा का जवाब लिए फिरता हूँ

उसने पूछा कब से नही सोए
मैं तब से रत-जगों का हिसाब लिए फिरता हूँ

उसकी ख्वाहिश थी के मेरी आँखों में पानी देखे
मैं उस वक़्त से आंसुओं का सैलाब लिए फिरता हूँ

अफ़सोस के फिर भी वो मेरी ना हुई "फ़राज़"
मैं जिस की आरज़ुओं की किताब लिए फिरता हूँ

१९.

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बेमेहर कि रोने के बहाने माँगे

अपना ये हाल के जी हार चुके लुट भी चुके
और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे

हम ना होते तो किसी और के चर्चे होते
खल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे

दिल किसी हाल पे माने ही नहीं जान-ए-फराज़
मिल गये तुम भी तो क्या और ना जाने माँगे

२०.

उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये किस्सा पुराना बहुत हुआ

ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़
ए मर्ग-ए-नगाहाँ तेरा आना बहुत हुआ

हम खुल्द से निकल तो गये हैं पर ए खुदा
इतने से वाक्ये का फ़साना बहुत हुआ

अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी
उस से ज़रा राब्त बढ़ाना बहुत हुआ

अब क्यों न ज़िन्दगी पे मोहब्बत को वार दें
इस आशिकी में जान से जाना बहुत हुआ

अब तक दिल का दिल से तारुफ़ न हो सका
माना कि उस से मिलना मिलाना बहुत हुआ

क्या क्या न हम खराब हुए हैं मगर ये दिल
ए याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ

कहता था नसीहों से मेरे मुंह न आइयो
फिर क्या था एक हु का आना बहुत हुआ

लो फिर तेरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
अहमद फ़राज़ तुझ से कहा न बहुत हुआ

२१.

ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
चले आओ के दुनिया से जा रहा है कोई

कोई अज़ल से कह दो, रुक जाये दो घड़ी
सुना है आने का वादा निभा रहा है कोई

वो इस नाज़ से बैठे हैं लाश के पास
जैसे रूठे हुए को मना रहा है कोई

पलट कर न आ जाये फ़िर सांस नब्ज़ों में
इतने हसीन हाथो से मय्यत सजा रहा है कोई

२२.

शोला था जल-बुझा हूँ हवायें मुझे ना दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदायें मुझे ना दो

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे ना दो

ऐसा कहीं ना हो के पलटकर ना आ सकूँ
हर बार दूर जा के सदायें मुझे ना दो

कब मुझ को ऐतेराफ़-ए-मुहब्बत ना था 'फ़राज़'
कब मैं ने ये कहा था सज़ायें मुझे ना दो

२३.

साकिया इक नज़र जाम से पहले पहले
हम को जाना है कहीं शाम स पहले पहले

खुश हुआ ऐ दिल के मुहब्बत तो निभा दी तूने
लोग उजड़ जाते हैं अन्जाम से पहले पहले

अब तेरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं
कितनी रग़बत थी तेरे नाम से पहले पहले

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की
वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले

२४.

गुजरे कई मौसम, कई रातें बदलीं
उदास तुम भी हो यारों उदास हम भी हैं

फक़त तुम्ही को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी
सच तो ये है कि दारीदाने-लिबास हम भी हैं…

तुम्हे भी जिद है कि मश्के-सितम रहे जारी
हमें भी नाज़ कि ज़ोरो-जफ़ा के आदी हैं

तुम्हे भी जाम कि महाभारत लड़ी तुमने
हमें भी नाज़ कि कर्बला के आदी हैं।

ना खिल सके किसी जानिब मोहब्बतों के पड़ाव
ना शाखे अमन लिये कोई फाख्ता आयी…

तो अब ये हाल है दरिंदगी के सबब
तुम्हारे पाँव सलामत रहे ना हाथ मेरे

ना जीत तुम्हारी ना कोई हार मेरी
ना साथ तुम्हारे कोई ना कोई साथ मेरे…

तुम्हारे देस में आया हूँ दोस्तों अब के
ना साज़ो-नग्मों की महफिल ना शायरी के लिये

अगर तुम्हारी आना ही का सवाल है तो
चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिये।

२५.

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते 

इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी है जान से जाते-जाते 

सिलसिला-ए-ज़ुल्‍मते शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्‍से की कोई शम्‍मां जलाते जाते 

उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफा था के ना था
तुम ‘फ़राज़’ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते ।।

२६.

मिजाज़ हम से ज्यादा जुदा ना था उसका,
जब अपने तौर यही थे तो क्या गिला उसका,

वो अपने जूआम में था बेखबर रहा मुझ से,
उसे गुमां भी नहीं मैं नहीं रहा उसका,

वो बर्ग-राव था मगर रह गया कहाँ जाने,
अब इंतज़ार करेंगे शिकस्ता-पा उसका,

चलो ये सेल-ए-बला खियेज़ ही बने अपना,
सफीना उसका, खुदा उसका, ना खुदा उसका,

ये अहल-ए-दर्द भी किस की दुहाई देते हैं,
वो चुप भी हो तो ज़माना है हमनवा उसका,

हमी ने तर्क-ए-ताल्लुक में पहल की के 'फ़राज़',
वो चाहता था मगर हौसला ना था उसका...!!!

२७.

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी है फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

२८.

जाने किस बात पे उस ने मुझे छोड़ दिया है फ़राज़ !
मैं तो मुफलिस था किसी मन की दुआओं की तरह..

उस शक्श को तो बिछड़ने का सलीका नहीं फ़राज़!
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया

अब उसे रोज सोचो तो बदन टूटता है फ़राज़..
उम्र गुजरी है उसकी याद नशा करते करते

बे -जान तो मै अब भी नहीं फराज..
मगर जिसे जान कहते थे वो छोड़ गया..

जब्त ऐ गम कोई आसान काम नहीं फराज.
आग होते है वो आंसू , जो पिए जाते हैं.

क्यों उलझता रहता है तू लोगो से फराज.
ये जरूरी तो नहीं वो चेहरा सभी को प्यारा लगे.

२९.

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा

ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा

डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा

३०.

जिस सिम्त भी देखूं नजर आता है कि तुम हो,
ऐ जाने-जहां ये कोई तुमसा है कि तुम हो !

ये ख्बाब है खूशबू है, झोंका है कि पल है
ये धुंध है बादल है साया है कि तुम हो !

देखो ये किसी और की आंखें हैं कि मेरी,
देखूं ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो !

ये उम्रे-गुरेजां कहीं ठहरे तो ये जानूं
हर सांस में मुझको यही लगता है कि तुम हो !

इक दर्द का फैला हुआ सहरा है कि मैं हूं
इक मौज में आया हुआ दरया है कि तुम हो !

ऐ जाने ‘फराज‘ इतनी भी तौफीक किसे थी
हमको गमे-हस्ती भी गवारा है कि तुम हो !

३१.

सुना है लोग उसे आंख भर के देखतें हैं
तो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखतें हैं।

सुना है रब्त है उसको खराब-हालो से
तो अपने आप को बर्बाद कर के देखतें हैं।

सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज उसकी
तो हम भी उसकी गली से गुजर के देखतें हैं।

सुना है उसको भी है शेरों-शायरी से सरफ
तो मोजजे हम भी अपने हुनर के देखतें हैं।

सुना है बोलें तो बातों से फूल झड़तें हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखतें हैं।

सुना है रात उसे चांद तकता रहता है
सितारें बामे-फलक से उतर के देखतें हैं।

सुना है दिन को उसे तितलियां सताती है
सुना है रात को जुगनु ठहर के देखतें हैं।

सुना है उसकी स्याह चश्मगी कयामत है
तो उसको सूरमाफरोश आह भर के देखते हैं।

सुना है हश्र है उसकी गजाल सी आंखें
सुना है उसको हिरण दस्त भर के देखतें हैं।

सुना है उसके लबों से गुलाब जलते है
तो हम बहार पे इल्जाम धर के देखते है !

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल है उसे बन-संवर के देखते हैं।

सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी कबायें कतर के देखतें हैं।

बस एक निगाह में लुटता है काफिला दिल का
सो रह-रबाने तम्मना भी डर के देखते है !

रुके तो गर्दिशे उसका तवाफ करती है
चले जो जमाने उसे ठहर के देखतें हैं।

सुना है उसके शबिस्तां से मुत्तसिल है बहिशत
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखतें हैं।

किसे नसीब की बेपैरहन उसे देखे
कभी-कभी दरो-दीवार धर के देखतें हैं।

कहानियां ही सही, सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्बाब है , ताबीर कर के देखतें हैं।

अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाये
‘‘फराज‘‘ आओ सितारें सहर के देखतें हैं।

३२.

दुःख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
खुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़ आशना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

बे -तरह दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

ऐ खुदा दर्द -ऐ -दिल है बख्शीश -ऐ -दोस्त
आब -ओ -दाना नहीं के तुझसे कहें

३३.

अब के तजदीद -ऐ-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानां,
याद क्या तुझ को दिलाएं तेरा पैमां जानां।

तजदीद=renewal; इम्काँ =possibility;
जानां=dear one/beloved; पैमां=promise


यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है,
किस कदर जल्द बदल जाते हैं इन्सां जानां।

ज़िन्दगी तेरी अत्ता थी सो तेरे नाम की है,
हमने जैसे भी बसर की तेरा एहसाँ जानां।

अत्ता=given by;बसर=to live

दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी,
दिल कि क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानां।

फ़सुर्दा=sad/disappointed
अव्वल-अव्वल की मोहब्बत के नशे याद तो कर,
बिन पिए भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानां।

अव्वल-अव्वल=the very first

आख़िर आख़िर तो ये आलम है के अब होश नहीं,
रग -ऐ-मीना सुलग उठी के राग-ऐ-जाँ जानां।

रग=veins; मीना=wine-holder; जाँ=life

मुद्दतों से ये आलम न तवक्को न उम्मीद,
दिल पुकारे ही चला जाता है जानां जानां।

मुद्दतों=awhile;तवक्को=hope

हम भी क्या सादा थे हमने भी समझ रखा था,
गम-ऐ-दौरां से जुदा है गम-ऐ-जानां जानां।

गम-ऐ-दौरां=sorrows of the world

अब के कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ऐ-यारां जानां,
सर-बा-जानू है कोई सर-बा-गरेबां जानां।

सर-बा-जानू=forehead touching the knees
सर-बा-गरेबां=lost in worries


हर कोई अपनी ही आवाज से कांप उठता है,
हर कोई अपने ही साए से हिरासां जानां।

हिरासां=scared of

जिस को देखो वही जंजीर- बा- पा लगता है,
शहर का शहर हुआ दाखिल-ऐ-जिन्दां जानां।

जंजीर- बा- पा=feet encased in chains;जिन्दां=prison

अब तेरा जिक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए,
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जानां।

उन्वाँ=start of new chapter/title

हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे,
हम ने देखा ही ना था मौसम-ऐ-हिज्राँ जानां।

मौसम-ऐ-हिज्राँ=season of separation

होश आए तो सभी ख़ाब थे रेजा-रेजा ,
जैसे उड़ते हुए औराक़-ऐ-परेशां जानां।

रेजा-रेजा=piece by piece;औराक़-ऐ-परेशां =strewn pages of a book