जन्म: 24 नवंबर 1952,कराची, पाकिस्तान
निधन: 26 दिसंबर 1994कुछ प्रमुख कृतियाँ :खुली आँखों में सपना, ख़ुशबू, सदबर्ग,इन्कार, रहमतों की बारिश, ख़ुद-कलामी, इंकार, माह-ए-तमाम
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१.आवाज़ के हमराह सरापा भी तो देखूं
ऐ जाने-सुखन मैं तेरा चेहरा भी तो देखूं
दस्तक तो कुछ ऐसी है के दिल छूने लगी है
इस हब्स में बारिश का ये झोंका भी तो देखूं
सहरा की तरह रहते हुए थक गयीं आँखें
दुःख कहता है अब मैं कोई दर्या भी तो देखूं
ये क्या के वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे
अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूं
अबतक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा
मैं अब तेरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूं
२.
इक शख्स को सोचती रही मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
३.
आंखों ने कैसे ख्वाब तराशे हैं इन दिनों
दिल पर अजीब रंग उतरते हैं इन दिनों
रख अपने पास अपने महो-मेह्र ऐ फ़लक
हम ख़ुद किसी की आँख के तारे हैं इन दिनों
दस्ते-सेहर ने मांग निकाली है बारहा
और शब ने आ के बाल संवारे हैं इन दिनों
इस इश्क ने हमें ही नहीं मोतदिल किया
उसकी भी खुश-मिज़ाजी के चर्चे हैं इन दिनों
इक खुश-गवार नींद पे हक़ बन गया मेरा
वो रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों
वो क़ह्ते-हुस्न है के सभी खुश-जमाल लोग
लगता है कोहे-काफ पे रहते हैं इन दिनों
४.
थक गया है दिले-वहशी मेरा, फ़र्याद से भी
दिल बहलता नहीं ऐ दोस्त तेरी याद से भी
ऐ हवा क्या है जो अब नज़मे-चमन और हुआ
सैद से भी हैं मरासिम तेरे, सय्याद से भी
क्यों सरकती हुई लगती है ज़मीं याँ हर दम
कभी पूछें तो सबब शहर की बुनियाद से भी
बर्क थी या के शरारे-दिले-आशुफ्ता था
कोई पूछे तो मेरे आशियाँ-बरबाद से भी
बढ़ती जाती है कशिश वादा-गहे हस्ती की
और कोई खींच रहा है अदम-आबाद से भी
५.
कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की
उसने खुश्बू की तरह मेरी पिज़ीराई की
कैसे कह दूँ के मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू, तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की
उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगडाई की
६.
अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ,बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तन्हाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट,कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
७.
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
८.
वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा
९.
चाँद उस देस में निकला कि नहीं
जाने वो आज भी सोया कि नहीं
भीड़ में खोया हुआ बच्चा था
उसने खुद को अभी ढूँढा कि नहीं
मुझको तकमील समझने वाला
अपने मैयार में बदला कि नहीं
गुनगुनाते हुए लम्हों में उसे
ध्यान मेरा कभी आया कि नहीं
बंद कमरे में कभी मेरी तरह
शाम के वक़्त वो रोया कि नहीं
इस हब्स में बारिश का ये झोंका भी तो देखूं
सहरा की तरह रहते हुए थक गयीं आँखें
दुःख कहता है अब मैं कोई दर्या भी तो देखूं
ये क्या के वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे
अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूं
अबतक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा
मैं अब तेरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूं
२.
इक शख्स को सोचती रही मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
३.
आंखों ने कैसे ख्वाब तराशे हैं इन दिनों
दिल पर अजीब रंग उतरते हैं इन दिनों
रख अपने पास अपने महो-मेह्र ऐ फ़लक
हम ख़ुद किसी की आँख के तारे हैं इन दिनों
दस्ते-सेहर ने मांग निकाली है बारहा
और शब ने आ के बाल संवारे हैं इन दिनों
इस इश्क ने हमें ही नहीं मोतदिल किया
उसकी भी खुश-मिज़ाजी के चर्चे हैं इन दिनों
इक खुश-गवार नींद पे हक़ बन गया मेरा
वो रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों
वो क़ह्ते-हुस्न है के सभी खुश-जमाल लोग
लगता है कोहे-काफ पे रहते हैं इन दिनों
४.
थक गया है दिले-वहशी मेरा, फ़र्याद से भी
दिल बहलता नहीं ऐ दोस्त तेरी याद से भी
ऐ हवा क्या है जो अब नज़मे-चमन और हुआ
सैद से भी हैं मरासिम तेरे, सय्याद से भी
क्यों सरकती हुई लगती है ज़मीं याँ हर दम
कभी पूछें तो सबब शहर की बुनियाद से भी
बर्क थी या के शरारे-दिले-आशुफ्ता था
कोई पूछे तो मेरे आशियाँ-बरबाद से भी
बढ़ती जाती है कशिश वादा-गहे हस्ती की
और कोई खींच रहा है अदम-आबाद से भी
५.
कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की
उसने खुश्बू की तरह मेरी पिज़ीराई की
कैसे कह दूँ के मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू, तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की
उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगडाई की
६.
अक़्स-ए-ख़ुशबू हूँ,बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तन्हाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा-रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट,कोई आवाज़, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
७.
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
८.
वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा
हम तो समझे थे के एक ज़ख़्म है भर जायेगा
क्या ख़बर थी के रग-ए-जाँ में उतर जायेगा
वो हवाओं की तरह ख़ानाबजाँ फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जायेगा
वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफ़ाक़त के लिये
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जायेगा
आख़िर वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतर जायेगा
९.
चाँद उस देस में निकला कि नहीं
जाने वो आज भी सोया कि नहीं
भीड़ में खोया हुआ बच्चा था
उसने खुद को अभी ढूँढा कि नहीं
मुझको तकमील समझने वाला
अपने मैयार में बदला कि नहीं
गुनगुनाते हुए लम्हों में उसे
ध्यान मेरा कभी आया कि नहीं
बंद कमरे में कभी मेरी तरह
शाम के वक़्त वो रोया कि नहीं
१०.
चारासाजों की अज़ीयत नहीं देखी जातीतेरे बीमार की हालत नहीं देखी जाती
देने वाले की मशीय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
मांगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
दिल बहल जाता है लेकिन तेरे दीवानों की
शाम होती है तो वहशत नहीं देखी जाती
तमकनत से तुझे रुख़सत तो किया है लेकिन
हमसे उन आँखों की हसरत नहीं देखी जाती
कौन उतरा है आफ़ाक़ की पिनाहाई में
आईनेख़ाने की हैरत नहीं देखी जाती
११.
हमने ही लौटने का इरादा नहीं कियाउसने भी भूल जाने का वादा नहीं किया
दुःख ओढ़ते नहीं कभी जश्ने-तरब में हम
मलाबूसे-दिल को तन का लाबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उसका ख़ुद
सर-ज़ेर-बारे-सागरो-बादा नहीं किया
कारे-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उसने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरे इतरो-चरागो-सुबू न हो
इतना भी बूदो-बाश तो सादा नहीं किया
१२.
टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्याबजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या
तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या
औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या
ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू
तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या
तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या ।
१३.
शाम आयी तेरी यादों के सितारे निकलेरंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
रक्स जिनका हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आये तो क़िनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबक-नाम रहा
इश्क़ के बाद में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तैरे वो तिहेदस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और क़िनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हमसायों में आरे निकले
१४.
चेहरा मेरा था निगाहें उस कीख़ामुशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की
ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की
फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की
नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की
दूर रह कर भी सदा रहती है
मुझ को थामे हुए बाहें उस की
१५.
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गयेमौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गये
बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला शजर ख़ाक हो गये
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये
सूरज दिमाग़ लोग भी इब्लाग़-ए-फ़िक्र में
ज़ुल्फ़-ए-शब-ए-फ़िराक़ के पेचाक हो गये
जब भी ग़रीब-ए-शहर से कुछ गुफ़्तगू हुई
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गये
साहिल पे जितने आबगुज़ीदा थे सब के सब
दरिया के रुख़ बदलते ही तैराक हो गये
१६.
उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखेवो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गए हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद-सा देखे
मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे
तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे
बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे
उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आँख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे
तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे
१७.
अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या-क्या देखूँ
नींद आ जाये तो क्या महफ़िलें बरपा देखूँ
आँख खुल जाये तो तन्हाई की सहरा देखूँ
शाम भी हो गई धुँधला गई आँखें भी मेरी
भूलनेवाले मैं कब तक तेरा रस्ता देखूँ
सब ज़िदें उस की मैं पूरी करूँ हर बात सुनूँ
एक बच्चे की तरह से उसे हँसता देखूँ
मुझ पे छा जाये वो बरसात की ख़ुश्बू की तरह
अंग-अंग अपना उसी रुत में महकता देखूँ
तू मेरी तरह से यक्ता है मगर मेरे हबीब
जी में आता है कोई और भी तुझ सा देखूँ
मैं ने जिस लम्हे को पूजा है उसे बस एक बार
ख़्वाब बन कर तेरी आँखों में उतरता देखूँ
तू मेरा कुछ नहीं लगता है मगर जान-ए-हयात
जाने क्यों तेरे लिये दिल को धड़कता देखूँ
१८.
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ताकिया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता
कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है
कठिन हो राह तो छुटता है घर आहिस्ता आहिस्ता
बदल देना है रस्ता या कहीं पर बैठ जाना है
कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता
ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता
हुआ है सरकशी में फूल का अपना ज़ियाँ, देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
मेरी शोलामिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये
हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता
१९.
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहियेपानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये
हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये
२०.
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चेत का उस पे तेरा जमाल भी
सब से नज़र बचा के वो मुझ को ऐसे देखते
एक दफ़ा तो रुक गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी
दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तराश के देख लो
शीशागरान-ए-शहर के हाथ का ये कमाल भी
उस को न पा सके थे जब दिल का अजीब हाल था
अब जो पलट के देखिये बात थी कुछ मुहाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
शाम की नासमझ हवा पूछ रही है इक पता
मौज-ए-हवा-ए-कू-ए-यार कुछ तो मेरा ख़याल भी
उस के ही बाज़ूओं में और उस को ही सोचते रहे
जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी
२१.
बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा
इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा
यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा
काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा