१.
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई
२.
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
३.
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले
४.
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं
५.
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है
६.
दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
दुनिया-ए-दिल तबाह किये जा रहा हूँ मैं
सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किये जा रहा हूँ मैं
फ़र्द-ए-अमल सियाह किये जा रहा हूँ मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं
ऐसी भी इक निगाह किये जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किये जा रहा हूँ मैं
मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़मत को चार चाँद
ख़ुद हुस्न को गवाह किये जा रहा हूँ मैं
मासूम-ए-जमाल को भी जिस पे रश्क हो
ऐसे भी कुछ गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
आगे क़दम बढ़ायें जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चिराग़-ए-राह किये जा रहा हूँ मैं
तनक़ीद-ए-हुस्न मस्लहत-ए-ख़ास-ए-इश्क़ है
ये जुर्म गाह-गाह किये जा रहा हूँ मैं
गुलशनपरस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निभाह किये जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
मुझ से अदा हुआ है ‘जिगर’ जुस्तजू का हक़
हर ज़र्रे को गवाह किये जा रहा हूँ मैं
७.
साक़ी पर इल्ज़ाम न आये
चाहे तुझ तक जाम न आये
तेरे सिवा जो की हो मुहब्बत
मेरी जवानी काम न आये
जिन के लिये मर भी गये हम
वो चल कर दो गाम न आये
इश्क़ का सौदा इतना गराँ है
इन्हें हम से काम न आये
मयख़ाने में सब ही तो आये
लेकिन “ज़िगर” का नाम न आये
८.
साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया
बेकैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया
तौबा को तोड़-ताड़ के थर्रा के पी गया
ज़ाहिद ये मेरी शोखी-ए-रिंदाना देखना
रेहमत को बातों-बातों में बहला के पी गया
सरमस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई
दुनिया-ए-एतबार को ठुकरा के पी गया
आज़ुर्दगी-ए-खातिर-ए-साक़ी को देख कर
मुझको वो शर्म आई के शरमा के पी गया
ऐ रेहमते तमाम मेरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इंतेहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया
पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मेरी मजाल
दरपरदा चश्म-ए-यार की शेह पा के पी गया
इस जाने मयकदा की क़सम बारहा जिगर
कुल आलम-ए-बसीत पर मैं छा के पी गया
९.
शायर-ए-फ़ितरत हूँ मैं जब फ़िक्र फ़र्माता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे-ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं
जिस क़दर अफ़साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बेग़ाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
जब मकान-ओ-लामकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं
अल्लाह-अल्लाह तुझ को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं
हाय री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिये
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीयत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर
ले उठा जाता हूँ ज़ालिम ले चला जाता हूँ मैं
वाह रे शौक़-ए-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़
गुनगुनाता रक़्स करता झूमता जाता हूँ मैं
देखना उस इश्क़ की ये तुर्फ़ाकारी देखना
वो जफ़ा करते हैं मुझ पर और शर्माता हूँ मैं
एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ “ज़िगर”
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
१०.
वो काफ़िर आशना ना-आश्ना यूँ भी है और यूँ भी
हमारी इब्तदा ता-इंतहा यूँ भी है और यूँ भी
त’अज्जुब क्या अगर रस्म-ए-वफ़ा यूँ भी है और यूँ भी
कि हुस्न-ओ-इश्क़ का हर मसल’आ यूँ भी है और यूँ भी
कहीं ज़र्रा कहीं सहरा कहीं क़तरा कहीं दरिया
मुहब्बत और उसका सिलसिला यूँ भी है और यूँ भी
वो मुझसे पूछते हैं एक मक़सद मेरी हस्ती का
बताऊँ क्या कि मेरा मुद्द’आ यूँ भी है और यूँ भी
हम उनसे क्या कहें वो जानें उन की मस्लहत जाने
हमारा हाल-ए-दिल तो बरमला यूँ भी है और यूँ भी
न पा लेना तेरा आसाँ न खो देना तेरा मुमकिन
११.
वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥
कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥
मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥
तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥
मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥
तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥
१२.
ये सब्जमंद-ए-चमन है जो लहलहा ना सके
वो गुल है ज़ख्म-ए-बहाराँ जो मुस्कुरा ना सके
ये आदमी है वो परवाना, सम-ए-दानिस्ता
जो रौशनी में रहे, रौशनी को पा ना सके
ये है खुलूस-ए-मुहब्बत के हादीसात-ए-जहाँ
मुझे तो क्या, मेरे नक्श-ए-कदम मिटा ना सके
ना जाने आखिर इन आँसूओ पे क्या गुजरी
जो दिल से आँख तक आये, मगर बहा ना सके
करेंगे मर के बका-ए-दवाम क्या हासिल
जो ज़िन्दा रह के मुकाम-ए-हयात पा ना सके
मेरी नज़र ने शब-ए-गम उन्हें भी देख लिया
वो बेशुमार सितारे के जगमगा ना सके
ये मेहर-ओ-माह मेरे, हमसफर रहे बरसों
फिर इसके बाद मेरी गर्दिशों को पा ना सके
घटे अगर तो बस एक मुश्त-ए-खाक है इंसान
बढ़े तो वसत-ए-कौनैन में समा ना सके
१३.
यादे-जानाँ[1] भी अजब रूह-फ़ज़ा [2] आती है
साँस लेता हूँ तो जन्नत की हवा आती है
मर्गे-नाकामे-मोहब्बत[3]मेरी तक़्सीर[4]मुआफ़[5]
ज़ीस्त[6] बन-बन के मेरे हक़ में क़ज़ा [7] आती है
नहीं मालूम वो ख़ुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से कोई बेताब सदा[8]आती है
मैं तो इस सादगी-ए-हुस्न पे[9]सदक़े
न जफ़ा आती है जिसको न वफ़ा आती है
हाय क्या चीज़ है ये तक्मिला-ए-हुस्नो-शबाब[10]
अपनी सूरत से भी अब उनको हया[11]आती है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेयसी की याद,
- ↑ प्राण-वर्धक
- ↑ असफल प्रेम मृत्यु
- ↑ ग़लती
- ↑ क्षमा
- ↑ जीवन
- ↑ मृत्यु
- ↑ आवाज़
- ↑ सौंदर्य की सादगी पर
- ↑ सुन्दरता और यौवन की पूर्ति
- ↑ लाज,लज्जा
१४.
आई जब उनकी याद तो आती चली गई
हर नक़्श-ए-मासिवा को मिटाती चली गई
हर मन्ज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई
जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई
हर वाक़या क़रीबतर आता चला गया
हर शै हसीन तर नज़र आती चली गई
वीरान-ए-हयात के एक-एक गोशे में
जोगन कोई सितार बजाती चली गई
दिल फुँक रहा था आतिश-ए-ज़ब्त-ए-फ़िराक़ से
दीपक को मेघहार बनाती चली गई
बेहर्फ़-ओ-बेहिकायत-ओ-बेसाज़-ओ-बेसदा
रग-रग में नग़मा बन के समाती चली गई
जितना ही कुछ सुकून सा आता चला गया
उतना ही बेक़रार बनाती चली गई
कैफ़ियतों को होश-सा आता चला गया
बेकैफ़ियतों को नींद सी आती चली गई
क्या-क्या न हुस्न-ए-यार से शिकवे थे इश्क़ को
क्या-क्या न शर्मसार बनाती चली गई
तफ़रीक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का झगड़ा नहीं रहा
तमइज़-ए-क़ुर्ब-ओ-बोद मिटाती चली गई
मैं तिशना काम-ए-शौक़ था पीता चला गया
वो मस्त अंखडि़यों से पिलाती चली गई
इक हुस्न-ए-बेजेहत की फ़िज़ाए बसीत में
उठती हुई मुझे भी उठाती चली गई
फिर मैं हूँ और इश्क़ की बेताबियाँ जिगर
अच्छा हुआ वो नींद की माती चली गई।
१५.
हाँ किस को है मयस्सर ये काम कर गुज़रना
इक बाँकपन से जीना इक बाँकपन से मरना
दरिया की ज़िन्दगी पर सदक़े हज़ार जानें
मुझ को नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
साहिल के लब से पूछो दरिया के दिल से पूछो
इक मौज-ए-तह-नशीं का मुद्दत के बाद उभरना
जो ज़ीस्त को न समझे जो मौत को न जाने
जीना उन्हीं का जीना मरना उन्हीं का मरना
१६.
हर सू1 दिखाई देते हैं वो जलवागर2 मुझे
क्या-क्या फरेब3 देती है मेरी नज़र4 मुझे
डाला है बेखुदी5 ने अजब राह पर मुझे
आँखें हैं और कुछ नहीं आता नज़र मुझे
दिल ले के मेरा देते हो दाग़-ए-जिगर6 मुझे
ये बात भूलने की नहीं उम्र भर मुझे
आया ना रास नाला-ए-दिल7 का असर8 मुझे
अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी ख़बर9 मुझे
१७.
हर दम दुआएँ देना हर लम्हा आहें भरना
इन का भी काम करना अपना भी काम करना
याँ किस को है मय्यसर ये काम कर गुज़रना
एक बाँकपन पे जीना एक बाँकपन पे मरना
जो ज़ीस्त को न समझे जो मौत को न जाने
जीना उन्हीं का जीना मरना उन्हीं का मरना
हरियाली ज़िन्दगी पे सदक़े हज़ार जाने
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
रंगीनियाँ नहीं तो रानाइयाँ भी कैसी
शबनम सी नाज़नीं को आता नहीं सँवरना
तेरी इनायतों से मुझको भी आ चला है
तेरी हिमायतों में हर-हर क़दम गुज़रना
कुछ आ चली है आहट इस पायनाज़ की सी
तुझ पर ख़ुदा की रहमत ऐ दिल ज़रा ठहरना
ख़ून-ए-जिगर का हासिल इक शेर तक की सूरत
अपना ही अक्स जिस में अपना ही रंग भरना
१८.
सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है
फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है
ये सबब[1] है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़[2] में है
मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है
जो न सूरत में न म’आनी[3] में न आवाज़ में है
दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़[4] में है
आशिकों के दिले-मजरूह [5] से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़[6] में है
गोशे-मुश्ताक़[7] की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है
शब्दार्थ:
- ↑ कारण
- ↑ हर वाद्य यन्त्र के सीने में
- ↑ अर्थ
- ↑ भेदों की श्रंखला
- ↑ घायल हृदय
- ↑ उचटती हुई नज़र
- ↑ उत्सुक कान
१९.
वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥
कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥
मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥
तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥
मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥
तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥
२०.
निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा
मिटा कर हमें आप पछताइएगा
कमी कोई महसूस फ़र्माइएगा
नहीं खेल नासेह[1]! जुनूँ की हक़ीक़त[2]
समझ लीजिए तो समझाइएगा
कहीं चुप रही है ज़बाने-महब्बत
न फ़र्माइएगा तो फ़र्माइएगा
शब्दार्थ:
- ↑ धर्मोपदेशक
- ↑ उन्माद की वास्तविकता
२१.
न ताबे-मस्ती[1] न होशे-हस्ती[2] कि शुक्रे-ने’मत[3]अदा करेंगे
ख़िज़ाँ[4] में जब है ये अपना आलम[5] बहार आई तो क्या करेंगे
हर एक ग़म को फ़रोग़ [6]देकर यहाँ तक आरस्ता[7] करेंगे
वही जो रहते हैं दूर हमसे ख़ुद अपनी आग़ोश वा[8]करेंगे
जिधर से गुज़रेंगे सरफ़रोशाना-कारनामे[9] सुना करेंगे
वो अपने दिल को हज़ार रोकें मिरी मोहब्बत का क्या करेंगे
न शुक्रे-ग़म ज़ेरे-लब करेंगे, न शिक्वा-ए-बरमला [10]करेंगे
जो हमपे गुज़रेगी दिल ही दिल में कहा करेंगे सुना करेंगे
ये ज़ाहिरी[11] जल्वा-हाय रंगीं[12] फ़रेब कब तक दिया करेंगे
नज़र की जो कर सके न तस्कीं[13] वो दिल की तस्कीन क्या करेंगे
वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले[14] किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ़ निस्बत[15] वो तेरी जन्नत का क्या करेंगे
नहीं है जिनको मजाले-हस्ती[16]सिवाए इसके वो क्या करेंगे
कि जिस ज़मीं के हैं बसने वाले उसे भी रुस्वा किया करेंगे
हम अपनी क्यों तर्ज़े-फ़िक्र[17] छोड़ें हम अपनी क्यों वज़अ़-ख़ास [18] बदलें
कि इन्क़िलाबाते-नौ-ब-नौ [19] तो हुआ किए हैं हुआ करेंगे
ये सख़्ततर इश्क़ के मराहिल[20] ये हर क़दम पर हज़ार एहसाँ
जो बच रहे तो जुनुँ के हक़ में[21] जिएँगे जब तक दुआ करेंगे
ये ख़ामकाराने- इश्क़[22] सोचें ये शिक्वा-संजाने-हुस्न[23] समझें
कि ज़िन्दगी ख़ुद हसीं न होगी तो फिर तवज्जुह वो क्या करेंगे
ख़ुद अपने ही सोज़े -बातिनी[24] से निकाल इक शम्ए-ग़ैर-फ़ानी[25]
चिराग़े दैरो-हरम[26] तो ऐ दिल जला करेंगे बुझा करेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ उन्माद का सामर्थ्य
- ↑ अस्तित्व का होश
- ↑ ईश्वरीय वरदानों के लिए धन्यवाद
- ↑ पतझड़
- ↑ अवस्था
- ↑ चमक, ख्याति
- ↑ सुसज्जित
- ↑ बाहों में लेने के लिए बाहें फैला देंगे
- ↑ सर की बाज़ी लगा कर किए हुए उल्लेखनीय काम
- ↑ होंठों ही होंठों में ग़म या दुख प्रदान करने के लिए धन्यवाद
- ↑ दिखावे के
- ↑ रंगीन जल्वे
- ↑ तुष्टि
- ↑ आर्तनाद
- ↑ सम्बन्ध
- ↑ जीवन को सहने की सामर्थ्य
- ↑ चिंतन का ढंग
- ↑ विशिष्ट तौर तरीके
- ↑ नई से नई क्रांतियाँ
- ↑ मंज़िलें
- ↑ उन्माद के पक्ष में
- ↑ कच्चे प्रेमी
- ↑ सौंदर्य से शिकायत रखने वाले
- ↑ भीतरी ताप
- ↑ अमर-ज्योति
- ↑ मंदिर मस्जिद के चराग़
२२.
न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा
ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा
मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा
गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा
चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा
२३.
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
२४.
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
साँस लेता हूँ तो जन्नत की हवा आती है
मर्गे-नाकामे-मोहब्बत[3]मेरी तक़्सीर[4]मुआफ़[5]
ज़ीस्त[6] बन-बन के मेरे हक़ में क़ज़ा [7] आती है
नहीं मालूम वो ख़ुद हैं कि मोहब्बत उनकी
पास ही से कोई बेताब सदा[8]आती है
मैं तो इस सादगी-ए-हुस्न पे[9]सदक़े
न जफ़ा आती है जिसको न वफ़ा आती है
हाय क्या चीज़ है ये तक्मिला-ए-हुस्नो-शबाब[10]
अपनी सूरत से भी अब उनको हया[11]आती है
आई जब उनकी याद तो आती चली गई
हर नक़्श-ए-मासिवा को मिटाती चली गई
हर मन्ज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई
जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई
हर वाक़या क़रीबतर आता चला गया
हर शै हसीन तर नज़र आती चली गई
वीरान-ए-हयात के एक-एक गोशे में
जोगन कोई सितार बजाती चली गई
दिल फुँक रहा था आतिश-ए-ज़ब्त-ए-फ़िराक़ से
दीपक को मेघहार बनाती चली गई
बेहर्फ़-ओ-बेहिकायत-ओ-बेसाज़-ओ-बेसदा
रग-रग में नग़मा बन के समाती चली गई
जितना ही कुछ सुकून सा आता चला गया
उतना ही बेक़रार बनाती चली गई
कैफ़ियतों को होश-सा आता चला गया
बेकैफ़ियतों को नींद सी आती चली गई
क्या-क्या न हुस्न-ए-यार से शिकवे थे इश्क़ को
क्या-क्या न शर्मसार बनाती चली गई
तफ़रीक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का झगड़ा नहीं रहा
तमइज़-ए-क़ुर्ब-ओ-बोद मिटाती चली गई
मैं तिशना काम-ए-शौक़ था पीता चला गया
वो मस्त अंखडि़यों से पिलाती चली गई
इक हुस्न-ए-बेजेहत की फ़िज़ाए बसीत में
उठती हुई मुझे भी उठाती चली गई
फिर मैं हूँ और इश्क़ की बेताबियाँ जिगर
अच्छा हुआ वो नींद की माती चली गई।
१५.
हाँ किस को है मयस्सर ये काम कर गुज़रना
इक बाँकपन से जीना इक बाँकपन से मरना
दरिया की ज़िन्दगी पर सदक़े हज़ार जानें
मुझ को नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
साहिल के लब से पूछो दरिया के दिल से पूछो
इक मौज-ए-तह-नशीं का मुद्दत के बाद उभरना
जो ज़ीस्त को न समझे जो मौत को न जाने
जीना उन्हीं का जीना मरना उन्हीं का मरना
१६.
हर सू1 दिखाई देते हैं वो जलवागर2 मुझे
क्या-क्या फरेब3 देती है मेरी नज़र4 मुझे
डाला है बेखुदी5 ने अजब राह पर मुझे
आँखें हैं और कुछ नहीं आता नज़र मुझे
दिल ले के मेरा देते हो दाग़-ए-जिगर6 मुझे
ये बात भूलने की नहीं उम्र भर मुझे
आया ना रास नाला-ए-दिल7 का असर8 मुझे
अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी ख़बर9 मुझे
१७.
हर दम दुआएँ देना हर लम्हा आहें भरना
इन का भी काम करना अपना भी काम करना
याँ किस को है मय्यसर ये काम कर गुज़रना
एक बाँकपन पे जीना एक बाँकपन पे मरना
जो ज़ीस्त को न समझे जो मौत को न जाने
जीना उन्हीं का जीना मरना उन्हीं का मरना
हरियाली ज़िन्दगी पे सदक़े हज़ार जाने
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
रंगीनियाँ नहीं तो रानाइयाँ भी कैसी
शबनम सी नाज़नीं को आता नहीं सँवरना
तेरी इनायतों से मुझको भी आ चला है
तेरी हिमायतों में हर-हर क़दम गुज़रना
कुछ आ चली है आहट इस पायनाज़ की सी
तुझ पर ख़ुदा की रहमत ऐ दिल ज़रा ठहरना
ख़ून-ए-जिगर का हासिल इक शेर तक की सूरत
अपना ही अक्स जिस में अपना ही रंग भरना
१८.
सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है
फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है
ये सबब[1] है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़[2] में है
मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है
जो न सूरत में न म’आनी[3] में न आवाज़ में है
दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़[4] में है
आशिकों के दिले-मजरूह [5] से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़[6] में है
गोशे-मुश्ताक़[7] की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है
शब्दार्थ:
- ↑ कारण
- ↑ हर वाद्य यन्त्र के सीने में
- ↑ अर्थ
- ↑ भेदों की श्रंखला
- ↑ घायल हृदय
- ↑ उचटती हुई नज़र
- ↑ उत्सुक कान
१९.
वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥
कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥
मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥
तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥
मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥
तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥
२०.
निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा
मिटा कर हमें आप पछताइएगा
कमी कोई महसूस फ़र्माइएगा
नहीं खेल नासेह[1]! जुनूँ की हक़ीक़त[2]
समझ लीजिए तो समझाइएगा
कहीं चुप रही है ज़बाने-महब्बत
न फ़र्माइएगा तो फ़र्माइएगा
शब्दार्थ:
- ↑ धर्मोपदेशक
- ↑ उन्माद की वास्तविकता
२१.
न ताबे-मस्ती[1] न होशे-हस्ती[2] कि शुक्रे-ने’मत[3]अदा करेंगे
ख़िज़ाँ[4] में जब है ये अपना आलम[5] बहार आई तो क्या करेंगे
हर एक ग़म को फ़रोग़ [6]देकर यहाँ तक आरस्ता[7] करेंगे
वही जो रहते हैं दूर हमसे ख़ुद अपनी आग़ोश वा[8]करेंगे
जिधर से गुज़रेंगे सरफ़रोशाना-कारनामे[9] सुना करेंगे
वो अपने दिल को हज़ार रोकें मिरी मोहब्बत का क्या करेंगे
न शुक्रे-ग़म ज़ेरे-लब करेंगे, न शिक्वा-ए-बरमला [10]करेंगे
जो हमपे गुज़रेगी दिल ही दिल में कहा करेंगे सुना करेंगे
ये ज़ाहिरी[11] जल्वा-हाय रंगीं[12] फ़रेब कब तक दिया करेंगे
नज़र की जो कर सके न तस्कीं[13] वो दिल की तस्कीन क्या करेंगे
वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले[14] किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ़ निस्बत[15] वो तेरी जन्नत का क्या करेंगे
नहीं है जिनको मजाले-हस्ती[16]सिवाए इसके वो क्या करेंगे
कि जिस ज़मीं के हैं बसने वाले उसे भी रुस्वा किया करेंगे
हम अपनी क्यों तर्ज़े-फ़िक्र[17] छोड़ें हम अपनी क्यों वज़अ़-ख़ास [18] बदलें
कि इन्क़िलाबाते-नौ-ब-नौ [19] तो हुआ किए हैं हुआ करेंगे
ये सख़्ततर इश्क़ के मराहिल[20] ये हर क़दम पर हज़ार एहसाँ
जो बच रहे तो जुनुँ के हक़ में[21] जिएँगे जब तक दुआ करेंगे
ये ख़ामकाराने- इश्क़[22] सोचें ये शिक्वा-संजाने-हुस्न[23] समझें
कि ज़िन्दगी ख़ुद हसीं न होगी तो फिर तवज्जुह वो क्या करेंगे
ख़ुद अपने ही सोज़े -बातिनी[24] से निकाल इक शम्ए-ग़ैर-फ़ानी[25]
चिराग़े दैरो-हरम[26] तो ऐ दिल जला करेंगे बुझा करेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ उन्माद का सामर्थ्य
- ↑ अस्तित्व का होश
- ↑ ईश्वरीय वरदानों के लिए धन्यवाद
- ↑ पतझड़
- ↑ अवस्था
- ↑ चमक, ख्याति
- ↑ सुसज्जित
- ↑ बाहों में लेने के लिए बाहें फैला देंगे
- ↑ सर की बाज़ी लगा कर किए हुए उल्लेखनीय काम
- ↑ होंठों ही होंठों में ग़म या दुख प्रदान करने के लिए धन्यवाद
- ↑ दिखावे के
- ↑ रंगीन जल्वे
- ↑ तुष्टि
- ↑ आर्तनाद
- ↑ सम्बन्ध
- ↑ जीवन को सहने की सामर्थ्य
- ↑ चिंतन का ढंग
- ↑ विशिष्ट तौर तरीके
- ↑ नई से नई क्रांतियाँ
- ↑ मंज़िलें
- ↑ उन्माद के पक्ष में
- ↑ कच्चे प्रेमी
- ↑ सौंदर्य से शिकायत रखने वाले
- ↑ भीतरी ताप
- ↑ अमर-ज्योति
- ↑ मंदिर मस्जिद के चराग़
२२.
न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा
ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा
मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा
गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा
चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा
२३.
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
२४.
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है
ये सबब[1] है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़[2] में है
मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है
जो न सूरत में न म’आनी[3] में न आवाज़ में है
दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़[4] में है
आशिकों के दिले-मजरूह [5] से कोई पूछे
वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़[6] में है
गोशे-मुश्ताक़[7] की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह
सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है
वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥
कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥
मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥
तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥
मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥
तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥
२०.
निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा
जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा
मिटा कर हमें आप पछताइएगा
कमी कोई महसूस फ़र्माइएगा
नहीं खेल नासेह[1]! जुनूँ की हक़ीक़त[2]
समझ लीजिए तो समझाइएगा
कहीं चुप रही है ज़बाने-महब्बत
न फ़र्माइएगा तो फ़र्माइएगा
शब्दार्थ:
- ↑ धर्मोपदेशक
- ↑ उन्माद की वास्तविकता
२१.
न ताबे-मस्ती[1] न होशे-हस्ती[2] कि शुक्रे-ने’मत[3]अदा करेंगे
ख़िज़ाँ[4] में जब है ये अपना आलम[5] बहार आई तो क्या करेंगे
हर एक ग़म को फ़रोग़ [6]देकर यहाँ तक आरस्ता[7] करेंगे
वही जो रहते हैं दूर हमसे ख़ुद अपनी आग़ोश वा[8]करेंगे
जिधर से गुज़रेंगे सरफ़रोशाना-कारनामे[9] सुना करेंगे
वो अपने दिल को हज़ार रोकें मिरी मोहब्बत का क्या करेंगे
न शुक्रे-ग़म ज़ेरे-लब करेंगे, न शिक्वा-ए-बरमला [10]करेंगे
जो हमपे गुज़रेगी दिल ही दिल में कहा करेंगे सुना करेंगे
ये ज़ाहिरी[11] जल्वा-हाय रंगीं[12] फ़रेब कब तक दिया करेंगे
नज़र की जो कर सके न तस्कीं[13] वो दिल की तस्कीन क्या करेंगे
वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले[14] किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ़ निस्बत[15] वो तेरी जन्नत का क्या करेंगे
नहीं है जिनको मजाले-हस्ती[16]सिवाए इसके वो क्या करेंगे
कि जिस ज़मीं के हैं बसने वाले उसे भी रुस्वा किया करेंगे
हम अपनी क्यों तर्ज़े-फ़िक्र[17] छोड़ें हम अपनी क्यों वज़अ़-ख़ास [18] बदलें
कि इन्क़िलाबाते-नौ-ब-नौ [19] तो हुआ किए हैं हुआ करेंगे
ये सख़्ततर इश्क़ के मराहिल[20] ये हर क़दम पर हज़ार एहसाँ
जो बच रहे तो जुनुँ के हक़ में[21] जिएँगे जब तक दुआ करेंगे
ये ख़ामकाराने- इश्क़[22] सोचें ये शिक्वा-संजाने-हुस्न[23] समझें
कि ज़िन्दगी ख़ुद हसीं न होगी तो फिर तवज्जुह वो क्या करेंगे
ख़ुद अपने ही सोज़े -बातिनी[24] से निकाल इक शम्ए-ग़ैर-फ़ानी[25]
चिराग़े दैरो-हरम[26] तो ऐ दिल जला करेंगे बुझा करेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ उन्माद का सामर्थ्य
- ↑ अस्तित्व का होश
- ↑ ईश्वरीय वरदानों के लिए धन्यवाद
- ↑ पतझड़
- ↑ अवस्था
- ↑ चमक, ख्याति
- ↑ सुसज्जित
- ↑ बाहों में लेने के लिए बाहें फैला देंगे
- ↑ सर की बाज़ी लगा कर किए हुए उल्लेखनीय काम
- ↑ होंठों ही होंठों में ग़म या दुख प्रदान करने के लिए धन्यवाद
- ↑ दिखावे के
- ↑ रंगीन जल्वे
- ↑ तुष्टि
- ↑ आर्तनाद
- ↑ सम्बन्ध
- ↑ जीवन को सहने की सामर्थ्य
- ↑ चिंतन का ढंग
- ↑ विशिष्ट तौर तरीके
- ↑ नई से नई क्रांतियाँ
- ↑ मंज़िलें
- ↑ उन्माद के पक्ष में
- ↑ कच्चे प्रेमी
- ↑ सौंदर्य से शिकायत रखने वाले
- ↑ भीतरी ताप
- ↑ अमर-ज्योति
- ↑ मंदिर मस्जिद के चराग़
२२.
न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा
ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा
मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा
गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा
चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा
२३.
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
२४.
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा
मिटा कर हमें आप पछताइएगा
कमी कोई महसूस फ़र्माइएगा
नहीं खेल नासेह[1]! जुनूँ की हक़ीक़त[2]
समझ लीजिए तो समझाइएगा
कहीं चुप रही है ज़बाने-महब्बत
न फ़र्माइएगा तो फ़र्माइएगा
न ताबे-मस्ती[1] न होशे-हस्ती[2] कि शुक्रे-ने’मत[3]अदा करेंगे
ख़िज़ाँ[4] में जब है ये अपना आलम[5] बहार आई तो क्या करेंगे
हर एक ग़म को फ़रोग़ [6]देकर यहाँ तक आरस्ता[7] करेंगे
वही जो रहते हैं दूर हमसे ख़ुद अपनी आग़ोश वा[8]करेंगे
जिधर से गुज़रेंगे सरफ़रोशाना-कारनामे[9] सुना करेंगे
वो अपने दिल को हज़ार रोकें मिरी मोहब्बत का क्या करेंगे
न शुक्रे-ग़म ज़ेरे-लब करेंगे, न शिक्वा-ए-बरमला [10]करेंगे
जो हमपे गुज़रेगी दिल ही दिल में कहा करेंगे सुना करेंगे
ये ज़ाहिरी[11] जल्वा-हाय रंगीं[12] फ़रेब कब तक दिया करेंगे
नज़र की जो कर सके न तस्कीं[13] वो दिल की तस्कीन क्या करेंगे
वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले[14] किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ़ निस्बत[15] वो तेरी जन्नत का क्या करेंगे
नहीं है जिनको मजाले-हस्ती[16]सिवाए इसके वो क्या करेंगे
कि जिस ज़मीं के हैं बसने वाले उसे भी रुस्वा किया करेंगे
हम अपनी क्यों तर्ज़े-फ़िक्र[17] छोड़ें हम अपनी क्यों वज़अ़-ख़ास [18] बदलें
कि इन्क़िलाबाते-नौ-ब-नौ [19] तो हुआ किए हैं हुआ करेंगे
ये सख़्ततर इश्क़ के मराहिल[20] ये हर क़दम पर हज़ार एहसाँ
जो बच रहे तो जुनुँ के हक़ में[21] जिएँगे जब तक दुआ करेंगे
ये ख़ामकाराने- इश्क़[22] सोचें ये शिक्वा-संजाने-हुस्न[23] समझें
कि ज़िन्दगी ख़ुद हसीं न होगी तो फिर तवज्जुह वो क्या करेंगे
ख़ुद अपने ही सोज़े -बातिनी[24] से निकाल इक शम्ए-ग़ैर-फ़ानी[25]
चिराग़े दैरो-हरम[26] तो ऐ दिल जला करेंगे बुझा करेंगे
शब्दार्थ:
- ↑ उन्माद का सामर्थ्य
- ↑ अस्तित्व का होश
- ↑ ईश्वरीय वरदानों के लिए धन्यवाद
- ↑ पतझड़
- ↑ अवस्था
- ↑ चमक, ख्याति
- ↑ सुसज्जित
- ↑ बाहों में लेने के लिए बाहें फैला देंगे
- ↑ सर की बाज़ी लगा कर किए हुए उल्लेखनीय काम
- ↑ होंठों ही होंठों में ग़म या दुख प्रदान करने के लिए धन्यवाद
- ↑ दिखावे के
- ↑ रंगीन जल्वे
- ↑ तुष्टि
- ↑ आर्तनाद
- ↑ सम्बन्ध
- ↑ जीवन को सहने की सामर्थ्य
- ↑ चिंतन का ढंग
- ↑ विशिष्ट तौर तरीके
- ↑ नई से नई क्रांतियाँ
- ↑ मंज़िलें
- ↑ उन्माद के पक्ष में
- ↑ कच्चे प्रेमी
- ↑ सौंदर्य से शिकायत रखने वाले
- ↑ भीतरी ताप
- ↑ अमर-ज्योति
- ↑ मंदिर मस्जिद के चराग़
२२.
न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा
ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा
मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा
गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा
चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा
२३.
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
२४.
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
ख़िज़ाँ[4] में जब है ये अपना आलम[5] बहार आई तो क्या करेंगे
हर एक ग़म को फ़रोग़ [6]देकर यहाँ तक आरस्ता[7] करेंगे
वही जो रहते हैं दूर हमसे ख़ुद अपनी आग़ोश वा[8]करेंगे
जिधर से गुज़रेंगे सरफ़रोशाना-कारनामे[9] सुना करेंगे
वो अपने दिल को हज़ार रोकें मिरी मोहब्बत का क्या करेंगे
न शुक्रे-ग़म ज़ेरे-लब करेंगे, न शिक्वा-ए-बरमला [10]करेंगे
जो हमपे गुज़रेगी दिल ही दिल में कहा करेंगे सुना करेंगे
ये ज़ाहिरी[11] जल्वा-हाय रंगीं[12] फ़रेब कब तक दिया करेंगे
नज़र की जो कर सके न तस्कीं[13] वो दिल की तस्कीन क्या करेंगे
वहाँ भी आहें भरा करेंगे, वहाँ भी नाले[14] किया करेंगे
जिन्हें है तुझसे ही सिर्फ़ निस्बत[15] वो तेरी जन्नत का क्या करेंगे
नहीं है जिनको मजाले-हस्ती[16]सिवाए इसके वो क्या करेंगे
कि जिस ज़मीं के हैं बसने वाले उसे भी रुस्वा किया करेंगे
हम अपनी क्यों तर्ज़े-फ़िक्र[17] छोड़ें हम अपनी क्यों वज़अ़-ख़ास [18] बदलें
कि इन्क़िलाबाते-नौ-ब-नौ [19] तो हुआ किए हैं हुआ करेंगे
ये सख़्ततर इश्क़ के मराहिल[20] ये हर क़दम पर हज़ार एहसाँ
जो बच रहे तो जुनुँ के हक़ में[21] जिएँगे जब तक दुआ करेंगे
ये ख़ामकाराने- इश्क़[22] सोचें ये शिक्वा-संजाने-हुस्न[23] समझें
कि ज़िन्दगी ख़ुद हसीं न होगी तो फिर तवज्जुह वो क्या करेंगे
ख़ुद अपने ही सोज़े -बातिनी[24] से निकाल इक शम्ए-ग़ैर-फ़ानी[25]
चिराग़े दैरो-हरम[26] तो ऐ दिल जला करेंगे बुझा करेंगे
न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा
ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा
मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा
गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा
चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा
२३.
दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
मैं शिक्वाबलब था मुझे ये भी न रहा याद
शायद के मेरे भूलनेवाले ने किया याद
जब कोई हसीं होता है सर्गर्म-ए-नवाज़िश
उस वक़्त वो कुछ और भी आते हैं सिवा याद
मुद्दत हुई इक हादसा-ए-इश्क़ को लेकिन
अब तक है तेरे दिल के धड़कने की सदा याद
हाँ हाँ तुझे क्या काम मेरे शिद्दत-ए-ग़म से
हाँ हाँ नहीं मुझ को तेरे दामन की हवा याद
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तेरी लगज़िश-ए-पा याद
क्या लुत्फ़ कि मैं अपना पता आप बताऊँ
कीजे कोई भूली हुई ख़ास अपनी अदा याद
२४.
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
ये जिस ज़मीं की थी दुनिया उसी ज़मीं में रही
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
शब्दार्थ:
- ↑ उदास मन की कहानी
- ↑ उदास मन
- ↑ पर्दा
- ↑ वास्तविकताएँ
- ↑ परस्पर
- ↑ अकारण
- ↑ खींचातानी
- ↑ धर-अधर्म
- ↑ श्रद्धापूर्ण सर
- ↑ चुभन
- ↑ माथा
२५.
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
हिजाब [3] बन न गईं हों हक़ीक़तें [4] बाहम [5]
कि बेसबब [6] तो कशाकश [7] न कुफ़्रो-दीं [8] में रही
सरे-नियाज़ [9] न जब तक किसी के दर पे झुका
बराबर इक ख़लिश -सी [10] मिरी जबीं [11] पे रही
दिल गया रौनक-ए-हयात गई ।
ग़म गया सारी कायनात गई ।।
दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र,
लब तक आई न थी के बात गई ।
उनके बहलाए भी न बहला दिल,
गएगां सइये-इल्तफ़ात गई ।
मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन,
इक मसीहा-नफ़स की बात गई ।
हाय सरशरायां जवानी की,
आँख झपकी ही थी के रात गई ।
नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे,
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई ।
क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात ‘जिगर’
मौत आई अगर हयात गई ।
२६.
दिल को मिटा के दाग़े-तमन्ना[1] दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
शब्दार्थ:
- ↑ कामना का दाग़
- ↑ प्रलय
- ↑ परियों जैसे मुखड़े वालियों से मिलन की कामना
- ↑ सरल स्वभाव वाले इश्क़ ने
२७.
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे
महशर[2] में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे
मैं और आरज़ू-ए-विसाले-परी-रुख़ाँ[3]
इस इश्क़े-सादा-लौह[4] ने भटका दिया मुझे
हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उम्मीद ने धोका दिया मुझे
दावा किया था ज़ब्ते-मोहब्बत का ऐ ‘जिगर’
ज़ालिम ने बात-बात पे तड़पा दिया मुझे
दिल को जब दिल से राह होती है
आह होती है वाह होती है
इक नज़र दिल की सिम्त देख तो लो
कैसे दुनिया तबाह होती है
हुस्न-ए-जानाँ की मन्ज़िलों को न पूछ
हर नफ़स एक राह होती है
क्या ख़बर थी कि इश्क़ के हाथों
ऐसी हालत तबाह होती है
साँस लेता हूँ दम उलझता है
बात करता हूँ आह होती है
जो उलट देती है सफ़ों के सफ़े
इक शिकस्ता-सी आह होती है
२८.
दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदा-ए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उन से भी उठाई न गई
२९.
तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मुहब्बत की ज़िंदगी न हुई!
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह कभी हुई न हुई!
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एह्तेमाम पे भी शरह-ए-आशिकी न हुई
सबा यह उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहां सुबह-ओ-शाम ही न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
ख़्याल-ए-यार सलामत तुझे खुदा रखे
तेरे बगैर कभी घर में रोशनी न हुई
गए थे हम भी जिगर जलवा-गाह-ए-जानां में
वो पूछते ही रहे हमसे बात ही न हुई
३०.
तुझी से इब्तदा है तू ही इक दिन इंतहा होगा
सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बेसदा होगा
हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा
सब उस को देखते होंगे वो हमको देखता होगा
सर-ए-महशर हम ऐसे आसियों का और क्या होगा
दर-ए-जन्नत न वा होगा दर-ए-रहमत तो वा होगा
जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है हमारा और उस का सामना होगा
निगाह-ए-क़हर पर ही जान-ओ-दिल सब खोये बैठा है
निगाह-ए-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगा
ये माना भेज देगा हम को महशर से जहन्नुम में
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा
समझता क्या है तू दीवानगी-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिबख़ुदा होगा
“ज़िगर” का हाथ होगा हश्र में और दामन-ए-हज़रत
शिकायत हो कि शिकवा जो भी होगा बरमला होगा
३१.
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है
मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है
कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है
वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा
मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है
वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है
वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है
वही है ज़िन्दगी अपनी ‘जिगर’ ये हाल है अपना
कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है
३२.
मुमकिन[1] नहीं कि जज़्बा-ए-दिल[2] कारगर [3] न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
शब्दार्थ:
- ↑ संभव
- ↑ मनो-भावना
- ↑ सफल
- ↑ इश्क़ का अपमान
- ↑ आवश्यक
- ↑ आत्म-सम्मान का भाव
- ↑ आत्म-विसर्जन,आत्म-विस्मरण
- ↑ सौंदर्य का अपमान
- ↑ धर्म और दिल
- ↑ दुआ करने का इच्छुक
३३.
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
ये और बात है तुम्हें अब तक ख़बर न हो
तौहीने-इश्क़ [4]देख न हो ऐ ‘ जिगर’ न हो
हो जाए दिल का ख़ून मगर आँख नम न हो
लाज़िम[5] ख़ुदी[6] का होश भी है बेख़ुदी[7] के साथ
किसकी उसे ख़बर जिसे अपनी ख़बर न हो
एहसाने-इश्क़ अस्ल में तौहीने-हुस्न[8] है
हाज़िर है दीनो-दिल[9] भी ज़रूरत अगर न हो
या तालिबे-दुआ[10] था मैं इक- एक से ‘जिगर’
या ख़ुद ये चाहता हूँ दुआ में असर न हो
कहाँ से बढ़कर पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न साक़ी
मगर आसूदा इनसाँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू तेरा मयख़ाना तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत-ए-दार-ओ-रसन साक़ी
रग-ओ-पै में कभी सेहबा ही सेहबा रक़्स करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न साक़ी
न ला विश्वास दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे मक़तल भी देखेंगे चमन अन्दर चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत का तक़ाज़ा कुछ भी हो लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्क-ए-मनसब दफ़अतन साक़ी
अभी नाक़िस है मयआर-ए-जुनु, तनज़ीम-ए-मयख़ाना
अभी नामोतबर है तेरे मसतों का चलन साक़ी
वही इनसाँ जिसे सरताज-ए-मख़लूक़ात होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुरज़े
लिबास-ए-आदमीयत है शिकन अन्दर शिकन साक़ी
मुझे डर है कि इस नापाकतर दौर-ए-सियासत में
बिगड़ जाएँ न खुद मेरा मज़ाक़-ए-शेर-ओ-फ़न साक़ी
३४.
काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़्तियार[1] आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत तड़पा उनको प्यार आ ही गया
जब निगाहें उठ गईं अल्लाह री मे’राजे-शौक़[2]
देखता क्या हूँ वो जाने-इन्तिज़ार[3] आ ही गया
हाय ये हुस्न-ए-तस्व्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू
मैंने समझा जैसे वो जाने बहार आ ही गया
हाँ, सज़ा दे ऎ खु़दा-ए-इश्क़ ऎ तौफ़ीक़-ए-ग़म
फिर ज़ुबान-ए-बेअदब पर ज़िक्र-ए-यार आ ही गया
इस तरहा हूँ किसी के वादा-ए-फ़रदा[4] पे मैं
दर हक़ीक़त जैसे मुझको ऐतबार आ ही गया
हाय, काफ़िर दिल की ये काफ़िर जुनूँ अंगेज़ियाँ[5]
तुमको प्यार आए न आए, मुझको प्यार आ ही गया
जान ही दे दी ` जिगर’ ने आज पा-ए-यार[6] पर
उम्र भर की बेक़रारी को क़रार आ ही गया
शब्दार्थ:
- ↑ विवशता की भावना
- ↑ इश्क़ की चरम सीमा
- ↑ प्रतीक्षा का प्राण अर्थात प्रेयसी
- ↑ आने वाले कल के वादे पर
- ↑ उन्माद पूर्ण हरकतें
- ↑ प्रेयसी के क़दमों
३५.
कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं[1] रहे
जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे
ईमान-ओ-कुफ़्र[2] और न दुनिया-ओ- दीं [3] रहे
ऐ इश्क़ !शादबाश [4] कि तनहा हमीं रहे
या रब किसी के राज़-ए-मोहब्बत की ख़ैर हो
दस्त-ए-जुनूँ[5] रहे न रहे आस्तीं[6] रहे
जा और कोई ज़ब्त[7] की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे
मुझ को नहीं क़ुबूल दो आलम[8] की वुस’अतें[9]
क़िस्मत में कू-ए-यार [10] की दो ग़ज़ ज़मीं रहे
दर्द-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ [11] के ये सख़्त- मरहले[12]
हैरां[13] हूँ मैं कि फिर भी तुम इतने हसीं रहे
इस इश्क़ की तलाफ़ी-ए-माफ़ात[14] देखना
रोने की हसरतें हैं जब आँसू नहीं रहे
शब्दार्थ:
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
- ↑ पहलू में बैठे
- ↑ धर्म-अधर्म
- ↑ दुनिया और धर्म
- ↑ प्रसन्न रहो
- ↑ उन्माद का हाथ
- ↑ आस्तीन
- ↑ सहनशीलता
- ↑ दोनों लोकों की
- ↑ विशालताएँ
- ↑ प्रेयसी की गली
- ↑ विरह वेदना
- ↑ समस्याएँ
- ↑ विस्मित
- ↑ समय निकलने के बाद की क्षतिपूर्ति
३६.
मुद्दत में वो फिर ताज़ा मुलाक़ात का आलम
ख़ामोश अदाओं में वो जज़्बात का आलम
अल्लाह रे वो शिद्दत-ए-जज़्बात का आलम
कुछ कह के वो भूली हुई हर बात का आलम
आरिज़ से ढलकते हुए शबनम के वो क़तरे
आँखों से झलकता हुआ बरसात का आलम
वो नज़रों ही नज़रों में सवालात की दुनिया
वो आँखों ही आँखों में जवाबात का आलम
३७.
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आके मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से, तेरी फ़िक्र से, तेरी याद से, तेरे नाम से
मेरे साक़िया, मेरे साक़िया, तुझे मरहबा, तुझे मरहबा
तू पिलाये जा, तू पिलाये जा, इसी चश्म-ए-जाम ब जाम से
तेरी सुबह-ओ-ऐश है क्या बला, तुझे अए फ़लक जो हो हौसला
कभी करले आके मुक़ाबिला, ग़म-ए-हिज्र-ए-यार की शाम से
३८.
बुझी हुई शमा का धुआँ हूँ और अपने मर्कज़ को जा रहा हूँ
के दिल की हस्ती तो मिट चुकी है अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ
मुहब्बत इन्सान की है फ़ित्रत कहा है इन्क़ा ने कर के उल्फ़त
वो और भी याद आ रहा है मैं उस को जितना भुला रहा हूँ
ये वक़्त है मुझ पे बंदगी का जिसे कहो सज्दा कर लूँ वर्ना
अज़ल से ता बे-अफ़्रीनत मैं आप अपना ख़ुदा रहा हूँ
ज़बाँ पे लबैक हर नफ़स में ज़मीं पे सज्दे हैं हर क़दम पर
चला हूँ यूँ बुतकदे को नासेह, के जैसे काबे को जा रहा हूँ
३९.
बराबर से बचकर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाओं मूँह फेर के जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सब से गुज़र जाने वाले
४०.
फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
शब्दार्थ:
- ↑ आन्तरिक वेदना के आनन्द
- ↑ गतिशील आयु,जीवन
- ↑ उपचारक
- ↑ क्षीण, निर्बल हृदय
४१.
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ[1] से हम
इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ[2] से हम
ऐ चारासाज़[3] हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम
बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ [4] से हम
नियाज़-ओ-नाज़ के झगड़े मिटाये जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाये जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पाकर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराये जाते हैं
मेरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाये जाते हैं दामन छुड़ाये जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो अंग बन-बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छये जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तेरी निगाह के अंदाज़ पाये जाते हैं
ये अपनी तर्क-ए-मुहब्बत भी क्या मुहब्बत है
जिन्हें भुलाते हैं वो याद आये जाते हैं
४२.
जान कर मिन-जुमला-ऐ-खासाना-ऐ-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाम-ओ-पैमाना मुझे
सब्ज़ा-ओ-गुल, मौज-ए-दरिया, अंजुम-ओ-खुर्शीद-ओ-माह
एक ताल्लुक सब से है लेकिन रकीबाना मुझे
नग-ए-मैखाना था साकी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे ‘पीर-ए-मैखाना’ मुझे
जिंदगी मैं आ गया जब कोई वक्त-ए-इम्तेहान
उसने देखा है जिगर बे-इख्तियाराना मुझे
४३.
ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥
कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥
इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥
४४.
जह्ले-ख़िरद [1]ने दिन ये दिखाए
घट गए इन्साँ बढ़ गए साए
हाय वो क्योंकर दिल बहलाए
ग़म भी जिसको रास न आए
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए
पानी छिड़के , आग लगाए
दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है
भागे, लेकिन राह न पाए
कैसा मजाज़[2] और कैसी हक़ीक़त[3]
अपने ही जल्वे अपने ही साए
कारे- ज़माना [4]जितना- जितना
बनता जाए बिगड़ता जाए
शब्दार्थ:
- ↑ बुद्धि की मूढ़ता ने
- ↑ आलौकिकता
- ↑ वास्तविकता
- ↑ संसार को सुन्दर बनाने का का
४५.
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
कहाँ वो शोख़, मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब इस के बाद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
४६.
इसी चमन में ही हमारा भी इक ज़माना था
यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था
नसीब अब तो नहीं शाख़ भी नशेमन की
लदा हुआ कभी फूलों से आशियाना था
तेरी क़सम अरे ओ जल्द रूठनेवाले
गुरूर-ए-इश्क़ न था नाज़-ए-आशिक़ाना था
तुम्हीं गुज़र गये दामन बचाकर वर्ना यहाँ
वही शबाब वही दिल वही ज़माना था
४७.
इस इश्क़ के हाथों से हर-गिज़ नामाफ़र देखा
उतनी ही बड़ी हसरत जितना ही उधर देखा
था बाइस-ए-रुसवाई हर चंद जुनूँ मेरा
उनको भी न चैन आया जब तक न इधर देखा
यूँ ही दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर
याँ दर्द ने करवट ली है याँ तुमने इधर देखा
माथे पे पसीना क्यों आँखों में नमी सी क्यों
कुछ ख़ैर तो है तुमने क्या हाल-ए-जिगर देखा
४८.
इश्क़ में लाजवाब हैं हम लोग
माहताब आफ़ताब हैं हम लोग
गर्चे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
शाम से आ गये जो पीने पर
सुबह तक आफ़ताब हैं हम लोग
नाज़ करती है ख़ाना-वीरानी
ऐसे ख़ाना- ख़राब हैं हम लोग
तू हमारा जवाब है तनहा
और तेरा जवाब हैं हम लोग
ख़ूब हम जानते हैं क़द्र अपनी
कितने नाकामयाब हैं हम लोग
हर हक़ीक़त से जो गुज़र जायेँ
वो सदाक़त-म’आब हैं हम लोग
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
४९.
इश्क़ लामहदूद जब तक रहनुमा होता नहीं
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का हक़ अदा होता नहीं
इस से बढ़कर दोस्त कोई दूसरा होता नहीं
सब जुदा हो जायेँ लेकिन ग़म जुदा होता नहीं
बेकराँ होता नहीं बे-इन्तेहा होता नहीं
क़तर जब तक बढ़ के क़ुलज़म आश्ना होता नहीं
ज़िन्दगी इक हादसा है और इक ऐसा हादसा
मौत से भी ख़त्म जिस का सिलसिला होता नहीं
दर्द से मामूर होती जा रही है क़ायनात
इक दिल-ए-इन्साँ मगर दर्द आश्ना होता नहीं
इस मक़ाम-ए-क़ुर्ब तक अब इश्क़ पहुँचा है जहाँ
दीदा-ओ-दिल का भी अक्सर वास्ता होता नहीं
अल्लाह अल्लाह ये कमाल-ए-इर्तबात-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
फ़ासले हों लाख दिल से दिल जुदा होता नहीं
वक़्त आता है इक ऐसा भी सर-ए-बज़्म-ए-जमाल
सामने होते हैं वो और सामना होता नहीं
क्या क़यामत है के इस दौर-ए-तरक़्क़ी में “ज़िगर”
आदमी से आदमी का हक़ अदा होता नहीं
५०.
इश्क़ फ़ना[1] का नाम है इश्क़ में ज़िन्दगी न देख
जल्वा-ए-आफ़्ताब [2] बन ज़र्रे में रोशनी न देख
शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख
तुझको ख़ुदा का वास्ता तू मेरी ज़िन्दगी न देख
जिसकी सहर भी शाम हो उसकी सियाह शबी [3] न देख
शब्दार्थ:
- ↑ बर्बादी,तबाही,मृत्यु
- ↑ सूर्य की आभा
- ↑ अँधेरी रात
५१.
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगारंग
उस को सादा किताब होना था
हमने नाकामियों को ढूँढ लिया
आख़िर इश्क कामयाब होना था
५२.
इश्क़ की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी ज़ुबान है प्यारे
हम ज़माने से इंतक़ाम तो लें
एक हसीं दर्मियान है प्यारे
तू नहीं मैं हूं मैं नहीं तू है
अब कुछ ऐसा गुमान है प्यारे
रख क़दम फूँक-फूँक कर नादान
ज़र्रे-ज़र्रे में जान है प्यारे
५३.
इक लफ़्ज़े-मोहब्बत[1] का अदना[2] ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
ये किसका तसव्वुर[3] है ये किसका फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह[4] का दाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों[5] की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है
या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है
अश्कों के तबस्सुम[6] में आहों के तरन्नुम[7] में
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है
आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है
ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा[8] हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा
आज एक सितमगर[9] को हँस-हँस के रुलाना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में ‘जिगर’ लेकिन
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम के शब्द का
- ↑ तुच्छ
- ↑ कल्पना
- ↑ माला
- ↑ मिट्टी या धरती पर रहने वाले
- ↑ मुस्कुराहट
- ↑ गेयता
- ↑ उन्मादी प्रेम
- ↑ अत्याचारी
५४.
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है
आज क्या बात है के फूलों का
रंग तेरी हँसी से मिलता है
मिल के भी जो कभी नहीं मिलता
टूट कर दिल उसी से मिलता है
कार-ओ-बार-ए-जहाँ सँवरते हैं
होश जब बेख़ुदी से मिलता है
५५.
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥
कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥
मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥
५६.
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गये
ख़्वाबिदा ज़िन्दगी थी जगा कर चले गये
चेहरे तक आस्तीन वो लाकर चले गये
क्या राज़ था कि जिस को छिपाकर चले गये
रग-रग में इस तरह वो समा कर चले गये
जैसे मुझ ही को मुझसे चुराकर चले गये
आये थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गये
लब थरथरा के रह गये लेकिन वो ऐ “ज़िगर”
जाते हुये निगाह मिलाकर चले गये
५७.
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था
कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर[1] था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था
लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू[2]
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना[3] ज़रूर था
साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था
जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था
देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा[4]
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था
शब्दार्थ:
- ↑ अधीर हृदय का हितैषी
- ↑ अभिलाषा रूपी साज़
- ↑ आकांक्षा का ख़ून
- ↑ मधुशाला के रास्ते में
५८.
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इन्सान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की उदारता
- ↑ प्रेम की पहचान
- ↑ प्रकृति की उदारता
- ↑ चिंतन और परख
- ↑ पुरस्कार
- ↑ आँखें और दिल
- ↑ चैन
- ↑ प्रेयसी की महफ़िल
- ↑ अहंकार
- ↑ बुद्धि ,अक़्ल
- ↑ पराजय
- ↑ क़ैद
- ↑ जाल
५९.
अब तो यह भी नहीं रहा अहसास
दर्द होता है या नहीं होता
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा[1]
आदमी काम का नहीं होता
हाय क्या हो गया तबीयत को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा[2]नहीं होता
वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता
दिल को क्या-क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता
शब्दार्थ:
- ↑ बदनाम
- ↑ आनन्ददायक
६०.
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे
हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे
हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे
इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे
मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे
बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे
मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर”
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
फ़ैज़ाने-मोहब्बत[1] आम सही, इर्फ़ाने-मोहब्बत[2] आम नहीं
ये तूने कहा क्या ऐ नादाँ फ़ैयाज़ी-ए-क़ुदरत[3] आम नहीं
तू फ़िक्रो-नज़र [4]तो पैदाकर, क्या चीज़ है जो इनआम[5] नहीं
यारब ये मुकामे-इश्क़ है क्या गो दीदा-ओ-दिल [6]नाकाम नहीं
तस्कीन[7] है और तस्कीन नहीं आराम है और आराम नहीं
आना है जो बज़्मे-जानाँ[8] में पिन्दारे-ख़ुदी[9] को तोड़ के आ
ऐ होशो-ख़िरद के दीवाने याँ होशो-ख़िरद[10] का काम नहीं
इश्क़ और गवारा ख़ुद कर ले बेशर्त शिकस्ते-फ़ाश[11] अपनी
दिल की भी कुछ उनके साज़िश है तन्हा ये नज़र का काम नहीं
सब जिसको असीरी[12] कहते हैं वो तो है असीरी ही लेकिन
वो कौन-सी आज़ादी है जहाँ, जो आप ख़ुद अपना दाम[13] नहीं