शाहिद कबीर का जन्म एक मई सन 1932 को नागपुर में हुआ था। उनकी कुछ पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं: कच्ची दीवारें (उपन्यास), चारों ओर (गज़ल संग्रह), मट्टी का मकान (गज़ल संग्रह), पहचान (गज़ल संग्रह)। उनका देहावसान 11 मई सन 2001 को हुआ।
१.
लपक रहे हैं अन्धेरे हवा सुराग़ में है
सब अपने अपने उजालों को ले के चलते हैं
किसी दलील से कायल न होंगे दीवाने
लपक रहा है हरिक सिम्त ख़ौफ़ का आसेब
महक रही है उजड़ कर भी ज़िन्दगी “ शाहिद”
१.
लपक रहे हैं अन्धेरे हवा सुराग़ में है
ये देखना है कि कितना लहू चराग़ में है
सब अपने अपने उजालों को ले के चलते हैं
किसी की शम्म: में लौ है किसी के दाग़ में है
किसी दलील से कायल न होंगे दीवाने
जो बात दिल में बसी है वही दिमाग़ में है
लपक रहा है हरिक सिम्त ख़ौफ़ का आसेब
जो जंगलों में था कल तक वो आज बाग़ में है
महक रही है उजड़ कर भी ज़िन्दगी “ शाहिद”
किसी की याद की खुश्बू अभी दिमाग़ में है
२.
गम का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी
अपने गम को गीत बनाकर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
शहर में गलीयों गलीयों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी
तू मुझको और मैं तुझको समझाये क्या
दिल दिवाना तेरा भी है, मेरा भी
मैखाने की बात न कर मुझसे वाईज़
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी
अपने गम को गीत बनाकर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी
शहर में गलीयों गलीयों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी
तू मुझको और मैं तुझको समझाये क्या
दिल दिवाना तेरा भी है, मेरा भी
मैखाने की बात न कर मुझसे वाईज़
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी
३.
नींद से आँख खुली है अभी, देखा क्या है,
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या है.
बाँध रखा है किसी सोच ने घर से हमको,
वरना अपना दर-ओ-दीवार से रिश्ता क्या है.
रेत की ईंट की पत्थर की हूँ या मिट्टी की,
किसी दीवार के साए का भरोसा क्या है.
अपनी दानिश्त में समझे कोई दुनिया “शाहिद”
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या है?
4.
आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये
कबकी पत्थर हो चुकी थीं मुंतज़िर आंखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गये
जाने क्या अहसास साज़े-हुस्न की तारों में था
जिनको छूते ही मेरे नगमे रसीले हो गये
अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरज़ू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गये
आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये
5.
हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ
जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
मैं कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ
करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ
कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ
6.
तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए
आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए
अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए
कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए
अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए
7.
तमाम उम्र मैं आसेब के असर मे रहा
कि जो कहीं भी नहीं था मेरी नज़र मे रहा
न कोई राह थी अपनी न कोई मंज़िल थी
बस एक शर्ते-सफ़र थी जो मैं सफ़र मे रहा
वही ज़मीं थी वही आसमां वही चहरे
मैं शहर -शहर मे भटका नगर-नगर मे रहा
सब अपने-अपने जुनूं की अदा से हैं मजबूर
किसी ने काट दी सहरा मे कोई घर मे रहा
किसे बताऎं कि कैसे कटे हैं दिन "शाहिद"
तमाम उम्र ज़ियां पेशा-ए-हुनर मे रहा
8.
वो अपने तौर पे देता रहा सजा मुझको
हज़ार बार लिखा और मिटा दिया मुझको
ख़बर है अपनी न राहों कुछ पता मुझको
लिये चली है कोई दूर कि सदा मुझको
अगर है ज़िस्म तो छूकर मुझे यकीन दिला
तू अक्स है तो कभी आइना बना मुझको
चराग़ हूँ मुझे दामन की ओट मे ले ले
खुली हवा मे सरे-राह न जला मुझको
मेरी शिकस्त का उसको ग़ुमान तक न हुआ
जो अपनी फ़तह का टीका लगा गया मुझको
तमाम उम्र मैं साया बना रहा उसका
इस आरजू मैं कि वो मुड़के देखता मुझको
मेरे अलावा भी कुछ और मुझमें था "शाहिद"बस एक बार कोई फिर से सोचता मुझको
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या है.
बाँध रखा है किसी सोच ने घर से हमको,
वरना अपना दर-ओ-दीवार से रिश्ता क्या है.
रेत की ईंट की पत्थर की हूँ या मिट्टी की,
किसी दीवार के साए का भरोसा क्या है.
अपनी दानिश्त में समझे कोई दुनिया “शाहिद”
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या है?
4.
आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये
कबकी पत्थर हो चुकी थीं मुंतज़िर आंखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गये
जाने क्या अहसास साज़े-हुस्न की तारों में था
जिनको छूते ही मेरे नगमे रसीले हो गये
अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरज़ू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गये
आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये
5.
हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ
जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
मैं कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ
करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ
कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ
6.
तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए
आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए
अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए
कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए
अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए
7.
तमाम उम्र मैं आसेब के असर मे रहा
कि जो कहीं भी नहीं था मेरी नज़र मे रहा
न कोई राह थी अपनी न कोई मंज़िल थी
बस एक शर्ते-सफ़र थी जो मैं सफ़र मे रहा
वही ज़मीं थी वही आसमां वही चहरे
मैं शहर -शहर मे भटका नगर-नगर मे रहा
सब अपने-अपने जुनूं की अदा से हैं मजबूर
किसी ने काट दी सहरा मे कोई घर मे रहा
किसे बताऎं कि कैसे कटे हैं दिन "शाहिद"
तमाम उम्र ज़ियां पेशा-ए-हुनर मे रहा
8.
वो अपने तौर पे देता रहा सजा मुझको
हज़ार बार लिखा और मिटा दिया मुझको
ख़बर है अपनी न राहों कुछ पता मुझको
लिये चली है कोई दूर कि सदा मुझको
अगर है ज़िस्म तो छूकर मुझे यकीन दिला
तू अक्स है तो कभी आइना बना मुझको
चराग़ हूँ मुझे दामन की ओट मे ले ले
खुली हवा मे सरे-राह न जला मुझको
मेरी शिकस्त का उसको ग़ुमान तक न हुआ
जो अपनी फ़तह का टीका लगा गया मुझको
तमाम उम्र मैं साया बना रहा उसका
इस आरजू मैं कि वो मुड़के देखता मुझको
मेरे अलावा भी कुछ और मुझमें था "शाहिद"बस एक बार कोई फिर से सोचता मुझको