परिचय:
जन्म-01.07.1949 को गोरखपुर के एक गाँव खोराबार
पत्रिकाओं एवं अखबारों में प्रकाशन 1970 से अब तक।
संकलन-गजलों का संकलन ‘‘ राख की जो पर्त अंगारों प’ है ’’ सन् 2000 में प्रकाशित।
१.
न मेरा जिस्म कहीं औ' न मेरी जाँ रख दे
मेरा पसीना जहाँ है, मुझे वहाँ रख दे
मेरा पसीना जहाँ है, मुझे वहाँ रख दे
बगूला बन के भटकता फिरूँगा मैं कब तक
यक़ीन रख कि न रख, मुझमे कुछ गुमाँ रख दे
यक़ीन रख कि न रख, मुझमे कुछ गुमाँ रख दे
बिदक भी जाते हैं, कुछ लोग भिड़ भी जाते हैं
प' इसके डर से, कोई आईना कहाँ रख दे
प' इसके डर से, कोई आईना कहाँ रख दे
वो रात है, कि अगर आदमी के बस में
हो
चिराग़ दिल को करे और मकाँ-मकाँ रख दे
चिराग़ दिल को करे और मकाँ-मकाँ रख दे
जो अनकहा है अभी तक, वो कहके देखा जाए
ख़मोशियों के दहन में, कोई ज़ुबाँ रख दे
ख़मोशियों के दहन में, कोई ज़ुबाँ रख दे
२.
अब तक का इतिहास यही है, उगते हैं कट जाते हैं
हम जितना होते हैं अक्सर, उससे भी घट जाते हैं
हम जितना होते हैं अक्सर, उससे भी घट जाते हैं
तुम्हें तो अपनी धुन रहती है, सफ़र-सफ़र, मंज़िल-मंज़िल
हम रस्ते के पेड़ हैं लेकिन, धूल में हम अट जाते हैं
हम रस्ते के पेड़ हैं लेकिन, धूल में हम अट जाते हैं
लोगों की पहचान तो आख़िर, लोगों से ही होती है
कहाँ किसी के साथ किसी के बाज़ू-चौखट जाते हैं
कहाँ किसी के साथ किसी के बाज़ू-चौखट जाते हैं
हम में क्या-क्या पठार हैं, परबत हैं और खाई है
मगर अचानक होता है कुछ और यह सब घट जाते हैं
मगर अचानक होता है कुछ और यह सब घट जाते हैं
अपने-अपने हथियारों की दिशा तो कर ली जाए ठीक
वरना वार कहीं होता है, लोग कहीं कट जाते हैं
वरना वार कहीं होता है, लोग कहीं कट जाते हैं
३.
यहीं एक प्यास थी, जो खो गई है
नदी यह सुन के पागल हो गई है
नदी यह सुन के पागल हो गई है
जो हरदम घर को घर रखती थी मुझमें
वो आँख अब शहर जैसी हो गई है
वो आँख अब शहर जैसी हो गई है
हवा गुज़री तो है जेहनों से लेकिन
जहाँ चाहा है आँधी बो गई है
जहाँ चाहा है आँधी बो गई है
दिया किस ताक़ में है, यह न सोचो
कहीं तो रोशनी कुछ खो गई है
कहीं तो रोशनी कुछ खो गई है
३.
तमाशा आँख को भाता बहुत है
मगर यह खून रुलवाता बहुत है।
अजब इक शै थी वो भी जेरे दामन
कि दिल सोचो तो पछताता बहुत है।
किसी की जंग उसे लड़नी नहीं है
मगर तलवार चमकाता बहुत है।
अगर दिल से कहूँ भी कुछ कभी मैं
समझता कम है समझाता बहुत है।
अजब है होशियारी का भी नश्शा
मजा आए तो फिर आता बहुत है।
हसद की आग अगर कुछ बुझ भी जाए
धुआँ सीने में रह जाता बहुत है।
हमारे दुख में तो इक, बात भी थी
तुम्हारे सुख में सन्नाटा बहुत है...।
४.
नहीं था, तो यही पैसा नहीं थानहीं तो आदमी में क्या नहीं था।
परिंदों के परों भर आस्माँ से
मेरा सपना अधिक ऊँचा नहीं था।
यहाँ हर चीज वह हे, जो नहीं हे
कभी पहले भी ऐसा था-? नहीं था।
हसद से धूप काली थी तो क्यों थी
दिया सूरज से तो जलता नहीं था।
पर इम्कां के झुलसते जा रहे थे
कहीं भी दूर तक साया नहीं था।
हुआ यह था कि उग आया था हम में
मगर जंगल अभी बदला नहीं था।
जमीनों-आस्माँ की वुस्अतों में-
अटाए से भी मैं अटता नहीं था।
हमारे बीच चाहे और जो था
मगर इतना तो सन्नाटा नहीं था।
मुझे सब चाहते थे सस्ते-दामों
मुझे बिकने का फन आता नहीं था...
५.
मस्खरे तलवार लेकर आ गएहम हँसे ही थे कि धोखा खा गए।
आस्मां आँखों को कुछ छोटा पड़ा
सारे मौसम मुट्ठियों में आ गए।
हादसे होते नहीं अब शहर में
यह खबर हमने सुनी, घबरा गए।
तुमको भी लगता हो शायद अब यही
सच वही था, जिससे तुम कतरा गए।
कुठ घरौंदे-सा उगा फिर रेत पर
और हम बच्चों-सा जिद पर आ गए।
रह गई खुलने से यकसर खामोशी
शब्द तो कुछ अर्थ अपना पा गए।
जिंदगी कुछ कम नहीं, ज्यादा नहीं
बस यही अंदाज हमको भा गए।
सच को सच की तर्ह जीने की थी धुन
हम सिला अपने किए का पा गए।
अब कहाँ ले जाएगी ऐ जिंदगी
घर से हम बाजार तक तो आ गए ।