जन्म: 1926,निधन: 2005
सूरज उफुक से झाँक रहा है नज़र उठा
इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी
इस ढेर को समेट नए बाम ओ दर उठा
मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे
कश्ती में सौ शिगाफ हों लंगर मगर उठा
शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ
अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा
मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना
कितना गुबार था जो सर-ए-हर-गुज़र उठा
सहरा में थोड़ी देर ठहरना गलत न था
ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा
दस्तक में कोई दर्द की खुश-बू जरूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा
‘कैसर’ मता-ए-दिल का खरीदार कौन है
बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा
1.
ज़ेहन में कौन से आसेब का दर बाँध लिया
तुम ने पूछा भी नहीं रख़्त-ए-सफर बाँध लिया
बे-मकानी की भी तहज़ीब हुआ करती है
उन परिंदों ने भी एक एक शजर बाँध लिया
रास्ते में कहीं गिर जाए तो मजबूरी है
मैं ने दामान-ए-दरीदा में हुनर बाँध लिया
अपने दामन पे नज़र कर मेरे हाथों पे न जा
मैं ने पथराव किया तू ने समर बाँध लिया
घर खुला छोड़ के चुपके से निकल जाऊँगा
शाम ही से सर-ओ-सामान-ए-सहर बाँध लिया
उम्र भर मैं ने भी साहिल के कसीदे लिक्खे
मेरे बच्चों ने भी इक रेत का घर बाँध लिया
हार बे-दर्द हवाओं से न मानी ‘कैसर’
बाद-बाँ फेंक के कदमों से भंवर बाँध लिया
2.मिरी तरह से मुहब्बत का दर्द झेले तो
छुपा-छुपा के कोई आँसुओं से खेले तो
मैं इंतज़ार करूँगा पलट के आ जाना
सफ़र न काट सको तुम अगर अकेले तो
तिरे क़रीब से गुज़रूँ , तुझे न पहचानूं
मेरी नज़र भी अगर इंतक़ाम ले ले तो
हवा को देख मेरे आँसुओ पे तंज़ न कर
यही धुआं तिरी आँखों के साथ खेले तो
बहुत गुमां है तुझे अपनी नाखुदाई पर
कोई जो डूबने वालों के नाम ले ले तो
मैं अपनी ज़ात में कैसर छुपा तो बैठा हूं
लगा लिये कहीं तनहाइयों ने मेले तो
3.
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
मैं जहाँ जा के छुपा था वहें दीवार गिरी
लोग किस्तों में मुझे कत्ल करेंगे शायद
सबसे पहले मेरी आवाज़ पे तलवार गिरी
और कुछ देर मिरी आस न टूटी होती
आख़िरी मौज थी जब हाथ से पतवार गिरी
अगले वक्तों में सुनेंगे दरो-दीवार मुझे
मेरी हर चीख़ मेरे अहद के उस पार गिरी
ख़ुद को अब ग़र्द के तूफाँ से बचाओ क़ैसर
तुम बहुत खुश थे कि हमसाये की दीवार गिरी
4.
या तो बाज़ार है या दस्ते-हुनर है मेरा
अब के कुछ और इरादे से सफर है मेरा
मै तुझे भी गलत अन्दाज़ नज़र से देखूँ
ज़िन्दगी जा यही अन्दाज़े नज़र है मेरा
दरो-दीवार का अहसान उठाये दुनिया
रात कट जाये जहाँ भी वही घर है मेरा
ये चुभन ले के न जा फेंक दे मुँह पर मेरे
तेरी आँखों में कोई ख़्वाब अगर है मेरा
तूने झाँका न कभी शीशमहल के बाहर
तेरे पिंदार के पीछे ही ख़ंडर है मेरा
छँव में थक जो बैठूँ तो शजर चीख उठे
जाने किस दर्द के सहरा में सफ़र है मेरा
अब तड़पने के लिये जिस्म में रखा क्या है
बूँद दो बूँद यही ख़ूने – जिगर है मेरा
मेरी गज़लों में मेरा दर्द छुपा है क़ैसर
दिल भी रह जाय पिघल कर वो हुनर है मेरा
कोई देखे तो ये समझे के पिए बैठा हूँ
आख़िरी नाव न आई तो कहाँ जाऊँगा
शाम से पार उतरने के लिए बैठा हूँ
मुझ को मालूम है सच ज़हर लगे है सब को
बोल सकता हूँ मगर होंट सिए बैठा हूँ
लोग भी अब मेरे दरवाज़े पे कम आते हैं
मैं भी कुछ सोच के जं़जीर दिए बैठा हूँ
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
मैं अभी तक तेरी तस्वीर लिए बैठा हूँ
कम से कम रेत से आँखें तो बचेंगी ‘कैसर’
मैं हवाओं की तरफ पीठ किये बैठा हूँ
सूरज निकल रहा था के नींद आ गई मुझे
रक्खी न जिंदगी ने मेरी मुफलिसी की शर्म
चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सरफा जान कर
दुनिया मेरी दुकान पे लौटा गई मुझे
दरिया पे एक तंज समझिए के तिश्नगी
साहिल की सर्द रेत में दफना गई मुझे
ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ
किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे
कागज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में
पहले सफर की रात ही रास आ गई मुझे
क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी
भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे
‘कैसर’ कलम की आग का एहसान-मंद हूँ
जब उँगलियाँ जलीं तो गज़ल आ गई मुझे
7.
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
देर तक टूटते लम्हों की सदा कैसी थी
ज़िंदगी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
उम्र भर सर से न उतरी ये बला कैसी थी
सुनते रहते थे मोहब्बत के फसाने क्या क्या
बूँद भर दिल पे न बरसी ये घटा कैसी थी
क्या मिला फैसला-ए-तर्क-ए-तअल्लुक कर के
तुम जो बिछड़े थे तो होंटो पे दुआ कैसी थी
टूट कर ख़ुद जो वो बिखरा है तो मालूम हुआ
जिस पे लिपटा था वो दीवार-ए-अना कैसी थी
जिस्म से नोच के फेंकी भी तो खुश-बू न गई
ये रिवायत की बोसीदा कबा कैसी थी
डूबते वक्त भँवर पूछ रहा है ‘कैसर’
जब किनारे से चले थे तो फज़ा कैसी
लोग दरवाज़ों से निकले के मुहाजिर ठहरे
दिल के मदफन पे नहीं होई भी रोने वाला
अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे
इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही
कौन जाने के कोई शर्त-ए-सफर फिर ठहरे
पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं
उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफिर ठहरे
ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है
क्या पड़ी है जो ये आँधी मेरी खातिर ठहरे
शाख-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं
वो परिेंदे जो अँधेरों के मुसाफिर ठहरे
अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे
चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे
तिश्नगी कब के गुनाओं की सज़ा है ‘कैसर’
वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफिर ठहरे
ज़ेहन में कौन से आसेब का दर बाँध लिया
तुम ने पूछा भी नहीं रख़्त-ए-सफर बाँध लिया
बे-मकानी की भी तहज़ीब हुआ करती है
उन परिंदों ने भी एक एक शजर बाँध लिया
रास्ते में कहीं गिर जाए तो मजबूरी है
मैं ने दामान-ए-दरीदा में हुनर बाँध लिया
अपने दामन पे नज़र कर मेरे हाथों पे न जा
मैं ने पथराव किया तू ने समर बाँध लिया
घर खुला छोड़ के चुपके से निकल जाऊँगा
शाम ही से सर-ओ-सामान-ए-सहर बाँध लिया
उम्र भर मैं ने भी साहिल के कसीदे लिक्खे
मेरे बच्चों ने भी इक रेत का घर बाँध लिया
हार बे-दर्द हवाओं से न मानी ‘कैसर’
बाद-बाँ फेंक के कदमों से भंवर बाँध लिया
2.मिरी तरह से मुहब्बत का दर्द झेले तो
छुपा-छुपा के कोई आँसुओं से खेले तो
मैं इंतज़ार करूँगा पलट के आ जाना
सफ़र न काट सको तुम अगर अकेले तो
तिरे क़रीब से गुज़रूँ , तुझे न पहचानूं
मेरी नज़र भी अगर इंतक़ाम ले ले तो
हवा को देख मेरे आँसुओ पे तंज़ न कर
यही धुआं तिरी आँखों के साथ खेले तो
बहुत गुमां है तुझे अपनी नाखुदाई पर
कोई जो डूबने वालों के नाम ले ले तो
मैं अपनी ज़ात में कैसर छुपा तो बैठा हूं
लगा लिये कहीं तनहाइयों ने मेले तो
3.
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
मैं जहाँ जा के छुपा था वहें दीवार गिरी
लोग किस्तों में मुझे कत्ल करेंगे शायद
सबसे पहले मेरी आवाज़ पे तलवार गिरी
और कुछ देर मिरी आस न टूटी होती
आख़िरी मौज थी जब हाथ से पतवार गिरी
अगले वक्तों में सुनेंगे दरो-दीवार मुझे
मेरी हर चीख़ मेरे अहद के उस पार गिरी
ख़ुद को अब ग़र्द के तूफाँ से बचाओ क़ैसर
तुम बहुत खुश थे कि हमसाये की दीवार गिरी
4.
या तो बाज़ार है या दस्ते-हुनर है मेरा
अब के कुछ और इरादे से सफर है मेरा
मै तुझे भी गलत अन्दाज़ नज़र से देखूँ
ज़िन्दगी जा यही अन्दाज़े नज़र है मेरा
दरो-दीवार का अहसान उठाये दुनिया
रात कट जाये जहाँ भी वही घर है मेरा
ये चुभन ले के न जा फेंक दे मुँह पर मेरे
तेरी आँखों में कोई ख़्वाब अगर है मेरा
तूने झाँका न कभी शीशमहल के बाहर
तेरे पिंदार के पीछे ही ख़ंडर है मेरा
छँव में थक जो बैठूँ तो शजर चीख उठे
जाने किस दर्द के सहरा में सफ़र है मेरा
अब तड़पने के लिये जिस्म में रखा क्या है
बूँद दो बूँद यही ख़ूने – जिगर है मेरा
मेरी गज़लों में मेरा दर्द छुपा है क़ैसर
दिल भी रह जाय पिघल कर वो हुनर है मेरा
5.
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँकोई देखे तो ये समझे के पिए बैठा हूँ
आख़िरी नाव न आई तो कहाँ जाऊँगा
शाम से पार उतरने के लिए बैठा हूँ
मुझ को मालूम है सच ज़हर लगे है सब को
बोल सकता हूँ मगर होंट सिए बैठा हूँ
लोग भी अब मेरे दरवाज़े पे कम आते हैं
मैं भी कुछ सोच के जं़जीर दिए बैठा हूँ
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
मैं अभी तक तेरी तस्वीर लिए बैठा हूँ
कम से कम रेत से आँखें तो बचेंगी ‘कैसर’
मैं हवाओं की तरफ पीठ किये बैठा हूँ
6.
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझेसूरज निकल रहा था के नींद आ गई मुझे
रक्खी न जिंदगी ने मेरी मुफलिसी की शर्म
चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सरफा जान कर
दुनिया मेरी दुकान पे लौटा गई मुझे
दरिया पे एक तंज समझिए के तिश्नगी
साहिल की सर्द रेत में दफना गई मुझे
ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ
किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे
कागज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में
पहले सफर की रात ही रास आ गई मुझे
क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी
भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे
‘कैसर’ कलम की आग का एहसान-मंद हूँ
जब उँगलियाँ जलीं तो गज़ल आ गई मुझे
7.
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
देर तक टूटते लम्हों की सदा कैसी थी
ज़िंदगी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
उम्र भर सर से न उतरी ये बला कैसी थी
सुनते रहते थे मोहब्बत के फसाने क्या क्या
बूँद भर दिल पे न बरसी ये घटा कैसी थी
क्या मिला फैसला-ए-तर्क-ए-तअल्लुक कर के
तुम जो बिछड़े थे तो होंटो पे दुआ कैसी थी
टूट कर ख़ुद जो वो बिखरा है तो मालूम हुआ
जिस पे लिपटा था वो दीवार-ए-अना कैसी थी
जिस्म से नोच के फेंकी भी तो खुश-बू न गई
ये रिवायत की बोसीदा कबा कैसी थी
डूबते वक्त भँवर पूछ रहा है ‘कैसर’
जब किनारे से चले थे तो फज़ा कैसी
8.
तेरी बे-वफाई के बाद भी मेरे दिल का प्यार नहीं गया
शब-ए-इंतिजार गुज़र गई ग़म-ए-इंतिज़ार नहीं गया
मैं समंदरों का नसीब था मेरा डूबना भी अजीब था
मेरे दिल ने मुझ से बहुत कहा में उतर के पार नहीं गया
तू मेरा शरीक-सफर नहीं मेरे दिल से दूर मगर नहीं
मेरी ममलिकत न रही मगर तेरा इख्तियार नहीं गया
उसे इतना सोचा है रोज़ ओ शब के सवाल-ए-दीद रहा न अब
वो गली भी ज़ेर-ए-तवाफ है जहाँ एक बार नहीं गया
कभी कोई वादा वफा न कर यूँही रोज़ रोज़ बहाना कर
तू फरेब दे के चला गया तेरा ऐतबार नहीं गया
मुझे उस के जर्फ की क्या ख़बर कहीं और जा के हँसे अगर
मेरे हाल-ए-दिल पे तो रोए बिन कोई ग़म-गुसार नहीं गया
उसे क्या खबर के शिकस्तगी है जुनूँ की मंजिल-ए-आगही
जो मता-ए-शीशा-ए-दिल लिए सर-ए-कू-यार नहीं गया
मेरी जिंदगी मेरी शाएरी किसी गम कीे दने है ‘जाफरी’
दिल ओ जान का कर्ज़ चुका दिया मैं गुनाह-गार नही गया
शब-ए-इंतिजार गुज़र गई ग़म-ए-इंतिज़ार नहीं गया
मैं समंदरों का नसीब था मेरा डूबना भी अजीब था
मेरे दिल ने मुझ से बहुत कहा में उतर के पार नहीं गया
तू मेरा शरीक-सफर नहीं मेरे दिल से दूर मगर नहीं
मेरी ममलिकत न रही मगर तेरा इख्तियार नहीं गया
उसे इतना सोचा है रोज़ ओ शब के सवाल-ए-दीद रहा न अब
वो गली भी ज़ेर-ए-तवाफ है जहाँ एक बार नहीं गया
कभी कोई वादा वफा न कर यूँही रोज़ रोज़ बहाना कर
तू फरेब दे के चला गया तेरा ऐतबार नहीं गया
मुझे उस के जर्फ की क्या ख़बर कहीं और जा के हँसे अगर
मेरे हाल-ए-दिल पे तो रोए बिन कोई ग़म-गुसार नहीं गया
उसे क्या खबर के शिकस्तगी है जुनूँ की मंजिल-ए-आगही
जो मता-ए-शीशा-ए-दिल लिए सर-ए-कू-यार नहीं गया
मेरी जिंदगी मेरी शाएरी किसी गम कीे दने है ‘जाफरी’
दिल ओ जान का कर्ज़ चुका दिया मैं गुनाह-गार नही गया
9.
घर बसा कर भी मुसाफिर के मुसाफिर ठहरेलोग दरवाज़ों से निकले के मुहाजिर ठहरे
दिल के मदफन पे नहीं होई भी रोने वाला
अपनी दरगाह के हम ख़ुद ही मुजाविर ठहरे
इस बयाबाँ की निगाहों में मुरव्वत न रही
कौन जाने के कोई शर्त-ए-सफर फिर ठहरे
पत्तियाँ टूट के पत्थर की तरह लगती हैं
उन दरख़्तों के तले कौन मुसाफिर ठहरे
ख़ुश्क पत्ते की तरह जिस्म उड़ा जाता है
क्या पड़ी है जो ये आँधी मेरी खातिर ठहरे
शाख-ए-गुल छोड़ के दीवार पे आ बैठे हैं
वो परिेंदे जो अँधेरों के मुसाफिर ठहरे
अपनी बर्बादी की तस्वीर उतारूँ कैसे
चंद लम्हों के लिए भी न मनाज़िर ठहरे
तिश्नगी कब के गुनाओं की सज़ा है ‘कैसर’
वो कुआँ सूख गया जिस पे मुसाफिर ठहरे
10.
सदियों तवील रात के ज़ानूँ से सर उठासूरज उफुक से झाँक रहा है नज़र उठा
इतनी बुरी नहीं है खंडर की ज़मीन भी
इस ढेर को समेट नए बाम ओ दर उठा
मुमकिन है कोई हाथ समुंदर लपेट दे
कश्ती में सौ शिगाफ हों लंगर मगर उठा
शाख़-ए-चमन में आग लगा कर गया था क्यूँ
अब ये अज़ाब-ए-दर-बदरी उम्र भर उठा
मंज़िल पे आ के देख रहा हूँ मैं आइना
कितना गुबार था जो सर-ए-हर-गुज़र उठा
सहरा में थोड़ी देर ठहरना गलत न था
ले गर्द-बाद बैठ गया अब तो सर उठा
दस्तक में कोई दर्द की खुश-बू जरूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा
‘कैसर’ मता-ए-दिल का खरीदार कौन है
बाज़ार उजड़ गया है दुकान-ए-हुनर उठा