परिचय:
२.
मुफलिसी मे भी यहाँ खुद को संभाले रखना,
जेब खाली हो मगर हाथो को डाले रखना ।
रोज़ ये खाल हथेली से उतर जाती है,
इतना आसान नहीं मुह मे निवाले रखना ।
गाँव पूछेगा के शहर से किया लाये हो,
मेरे माबूद सलामत मेरे छाले रखना ।
ज़िन्दगी तूने अजब काम लिया है मुझ्से,
ज़र्द पत्तो को हवाओ मे संभाले रखना ।
जब भी सच बात ज़बां पर कभी लाना ”काज़िम”
ज़ेहन मे अपने किताबो के हवाले रखना ।
३.
लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली ।
मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली ।
जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली।
मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली।
चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली।
वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली।
खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली।
वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली।
यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ ”काज़िम”,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली
४.
फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी ।
वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी ।
गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी ।
मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी ।
बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ ”काज़िम”,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।
५.
खून की मौजों से नम परछाईयाँ,
हैं नज़ारें मोहतरम परछाईयाँ ।
जिस्म कट सकता है खंजर से मगर,
हो नहीं सकती क़लम परछाईयाँ ।
बाल बिखराए हुए शाम आ गयी,
हो गयीं जिस्मों से कम परछाईयाँ ।
जिन्दगानी की हकीकत तेरा ग़म,
और सब रंजो आलम परछाईयाँ ।
ये ज़मीं देखेगी ऐसी दोपहर,
ख़ाक पर तोड़ेंगी दम परछाईयाँ ।
मोजिज़ा बन जा मेरी तशनालबी,
धूप पर करदे रक़म परछाईयाँ ।
ज़ुफिशा है ज़हन में सूरज कोई,
हैं मेरे ज़ेरे क़लम परछाईयाँ ।
सामने रौज़ा है, सूरज पुश्त पर,
हमसे आगे दस क़दम परछाईयाँ ।
हशर का सूरज सवा नैज़े पा है,
धूप है शाहे उमम परछाईयाँ ।
छुप गया काज़िम वो तशना आफताब,
ढूँढती हैं यम बा यम परछाईयाँ ।
६.
अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता ।
ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता ।
अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता ।
मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता ।
हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता ।
हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता ।
सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर ”काज़िम”,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।
७.
सेर है ओस की बूंदों से सवेरा कितना.
बह गया रात की आँखों से उजाला कितना ।
अपने दुश्मन की तबाही पा मे रोया कितना,
मुनफ़रिद है मेरे एहसास का लहजा कितना ।
धूप मक़तल में खड़ी पूछ रही है मुझसे,
है तेरे जिस्म की दीवार में साया कितना ।
हैं जिधर तेज़ हवाएं वो उधर जाता है,
है उसे अपने चराग़ों पा भरोसा कितना ।
अब मेरी प्यास समंदर से कहीं आगे है,
आजमाएगा मेरा ज़र्फ़ ये दरिया कितना ।
जब टपकता है, ज़मीं अर्श नज़र आती है,
इन्किलाबी है मेरे खून का क़तरा कितना ।
अपनी तन्हाई उसे भीड़ नज़र आती है,
आज वो शख्स है दुनिया में अकेला कितना ।
ग़ौर से देखो बता देते हैं चेहरे काज़िम,
किस में है दर्द छिपाने का सलीक़ा कितना ।
८.
यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।
इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।
रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।
वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।
पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।
रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।
ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।
शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली
९.
मुझे मालूम है मुझको पता है,
ये सन्नाटा तेरी आवाज़-ए-पा है।
चमन मे हर तरफ तेरे हैं चर्चे,
तेरा ही नाम पत्तों पर लिखा है।
मुझे आवाज़ देती है सहर क्यूँ,
परिंदा किस लिए नग़मा सरा है।
ये अब कैसी है दिल को बेक़रारी,
चमन है अब्र है ठंडी हवा है।
यहाँ पत्थर हुआ है कोई चेहरा,
यहाँ एक आईना टूटा पड़ा है।
सभी इन्सा हैं बस इतना समझ लो.
ज़रूरी है कि पूछो कौन क्या है।
सदा ये मारका चलता रहेगा,
न शब् हारी न ये सूरज थका है।
यही काज़िम है राज़-ए-इन्किसारी,
मेरे अंदर कोई मुझसे बड़ा है ।
१०.
सराबो से नवाज़ा जा रहा हूँ,
आमीर-ए-दश्त बनता जा रहा हूँ ।
मैं खुशबु हु यह दुनिया जानती है,
मगर फिर भी छुपाया जा रहा हुं ।
ज़माना मुझ्को सम्झे या न सम्झे,
मै एक दिन हूँ, जो गुज़रा जा रहा हूँ ।
मेरे बाहर फ़सीले आहनी है,
मगर अन्दर से टुटा जा रहा हूँ ।
मेरे दरिया, हमेशा याद रखना,
तेरे साहिल से पियासा जा रहा हूँ ।
तुम अब थकती हुई नज़रे झुका लो,
बुलंदी से मै उतरा जा रहा हूँ ।
११.
यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।
इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।
रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।
वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।
पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।
रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।
ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।
शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली ।
जन्म: ”काज़िम” जरवली का जन्म १५ जून १९५५ लखनऊ के निकट जरवल मे एक देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी परिवार मे हुआ तथा पालन पोषण व शिक्षा लखनऊ मे हुई । उन्होंने १९७७ मे लखनऊ विश्विद्यालय से उर्दू मे स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की तथा गोल्ड मेडल प्राप्त किया ।काज़िम जरवली ने कम उम्र से ही उर्दू शायरी शुरू कर दी थी और धीरे धीरे भारत के विभिन्न भागो मे संपन्न मुशायरो मे भाग लेना शुरू किया। रचनाकार वर्तमान मे शिया कॉलेज लखनऊ मे कार्यरत हैं ।
प्रमुख कृतियाँ :किताब-ए-सन्ग, हुसैनियत, कूचे और कंदीले, इरम ज़ेरे क़लम।
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१.
कमान-ए-ज़ुल्म वो दस्ते ख़ता से मिलती है,
गले वो फूल की खुशबु हवा से मिलती है ।
बिखर रही है फ़ज़ा में अज़ान की शबनम,
वो रूहे लहन-ए-मुहम्मद सबा से मिलती है ।
समन्दरों को सुखा दे जो हिद्दत-ए-लब से,
हमें वो तशनालबी नैनवा से मिलती है ।
वफ़ा के दश्त में कासिम को देख लो सरवर,
फसील-ए-जिस्म तुम्हारी क़बा से मिलती है ।
चराग़-ए-सब्र को तनवीर बांटने के लिए,
बस एक रात की मोहलत जफा से मिलती है ।
बस एक वफ़ा की महक है जो चन्द प्यासों को,
फुरात तेरे किनारे हवा से मिलती है ।
कहा हुसैन ने मुझको छिपा लिया अम्मा,
यह रेत कितनी तुम्हारी रिदा से मिलती है ।
गले वो फूल की खुशबु हवा से मिलती है ।
बिखर रही है फ़ज़ा में अज़ान की शबनम,
वो रूहे लहन-ए-मुहम्मद सबा से मिलती है ।
समन्दरों को सुखा दे जो हिद्दत-ए-लब से,
हमें वो तशनालबी नैनवा से मिलती है ।
वफ़ा के दश्त में कासिम को देख लो सरवर,
फसील-ए-जिस्म तुम्हारी क़बा से मिलती है ।
चराग़-ए-सब्र को तनवीर बांटने के लिए,
बस एक रात की मोहलत जफा से मिलती है ।
बस एक वफ़ा की महक है जो चन्द प्यासों को,
फुरात तेरे किनारे हवा से मिलती है ।
कहा हुसैन ने मुझको छिपा लिया अम्मा,
यह रेत कितनी तुम्हारी रिदा से मिलती है ।
२.
मुफलिसी मे भी यहाँ खुद को संभाले रखना,
जेब खाली हो मगर हाथो को डाले रखना ।
रोज़ ये खाल हथेली से उतर जाती है,
इतना आसान नहीं मुह मे निवाले रखना ।
गाँव पूछेगा के शहर से किया लाये हो,
मेरे माबूद सलामत मेरे छाले रखना ।
ज़िन्दगी तूने अजब काम लिया है मुझ्से,
ज़र्द पत्तो को हवाओ मे संभाले रखना ।
जब भी सच बात ज़बां पर कभी लाना ”काज़िम”
ज़ेहन मे अपने किताबो के हवाले रखना ।
३.
लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली ।
मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली ।
जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली।
मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली।
चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली।
वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली।
खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली।
वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली।
यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ ”काज़िम”,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली
४.
फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी ।
वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी ।
गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी ।
मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी ।
बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ ”काज़िम”,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।
५.
खून की मौजों से नम परछाईयाँ,
हैं नज़ारें मोहतरम परछाईयाँ ।
जिस्म कट सकता है खंजर से मगर,
हो नहीं सकती क़लम परछाईयाँ ।
बाल बिखराए हुए शाम आ गयी,
हो गयीं जिस्मों से कम परछाईयाँ ।
जिन्दगानी की हकीकत तेरा ग़म,
और सब रंजो आलम परछाईयाँ ।
ये ज़मीं देखेगी ऐसी दोपहर,
ख़ाक पर तोड़ेंगी दम परछाईयाँ ।
मोजिज़ा बन जा मेरी तशनालबी,
धूप पर करदे रक़म परछाईयाँ ।
ज़ुफिशा है ज़हन में सूरज कोई,
हैं मेरे ज़ेरे क़लम परछाईयाँ ।
सामने रौज़ा है, सूरज पुश्त पर,
हमसे आगे दस क़दम परछाईयाँ ।
हशर का सूरज सवा नैज़े पा है,
धूप है शाहे उमम परछाईयाँ ।
छुप गया काज़िम वो तशना आफताब,
ढूँढती हैं यम बा यम परछाईयाँ ।
६.
अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता ।
ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता ।
अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता ।
मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता ।
हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता ।
हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता ।
सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर ”काज़िम”,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।
७.
सेर है ओस की बूंदों से सवेरा कितना.
बह गया रात की आँखों से उजाला कितना ।
अपने दुश्मन की तबाही पा मे रोया कितना,
मुनफ़रिद है मेरे एहसास का लहजा कितना ।
धूप मक़तल में खड़ी पूछ रही है मुझसे,
है तेरे जिस्म की दीवार में साया कितना ।
हैं जिधर तेज़ हवाएं वो उधर जाता है,
है उसे अपने चराग़ों पा भरोसा कितना ।
अब मेरी प्यास समंदर से कहीं आगे है,
आजमाएगा मेरा ज़र्फ़ ये दरिया कितना ।
जब टपकता है, ज़मीं अर्श नज़र आती है,
इन्किलाबी है मेरे खून का क़तरा कितना ।
अपनी तन्हाई उसे भीड़ नज़र आती है,
आज वो शख्स है दुनिया में अकेला कितना ।
ग़ौर से देखो बता देते हैं चेहरे काज़िम,
किस में है दर्द छिपाने का सलीक़ा कितना ।
८.
यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।
इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।
रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।
वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।
पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।
रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।
ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।
शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली
९.
मुझे मालूम है मुझको पता है,
ये सन्नाटा तेरी आवाज़-ए-पा है।
चमन मे हर तरफ तेरे हैं चर्चे,
तेरा ही नाम पत्तों पर लिखा है।
मुझे आवाज़ देती है सहर क्यूँ,
परिंदा किस लिए नग़मा सरा है।
ये अब कैसी है दिल को बेक़रारी,
चमन है अब्र है ठंडी हवा है।
यहाँ पत्थर हुआ है कोई चेहरा,
यहाँ एक आईना टूटा पड़ा है।
सभी इन्सा हैं बस इतना समझ लो.
ज़रूरी है कि पूछो कौन क्या है।
सदा ये मारका चलता रहेगा,
न शब् हारी न ये सूरज थका है।
यही काज़िम है राज़-ए-इन्किसारी,
मेरे अंदर कोई मुझसे बड़ा है ।
१०.
सराबो से नवाज़ा जा रहा हूँ,
आमीर-ए-दश्त बनता जा रहा हूँ ।
मैं खुशबु हु यह दुनिया जानती है,
मगर फिर भी छुपाया जा रहा हुं ।
ज़माना मुझ्को सम्झे या न सम्झे,
मै एक दिन हूँ, जो गुज़रा जा रहा हूँ ।
मेरे बाहर फ़सीले आहनी है,
मगर अन्दर से टुटा जा रहा हूँ ।
मेरे दरिया, हमेशा याद रखना,
तेरे साहिल से पियासा जा रहा हूँ ।
तुम अब थकती हुई नज़रे झुका लो,
बुलंदी से मै उतरा जा रहा हूँ ।
११.
यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।
इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।
रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।
वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।
पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।
रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।
ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।
शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली ।