परिचय:
जन्म : 17 अक्टूबर 1936 , सोबंथा, बलिया, उत्तर प्रदेशविधाएँ : उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, कविता, आलोचना
मुख्य कृतियाँ:
उपन्यास : आखिरी कलाम, निष्कासन, नमो अंधकारम्
कहानी संग्रह : सपाट चेहरे वाला आदमी, सुखांत, प्रेमकथा का अंत न कोई, माई का शोकगीत, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, तू फू, कथा समग्र
कविता संग्रह : अगली शताब्दी के नाम, एक और भी आदमी है, युवा खुशबू, सुरंग से लौटते हुए (लंबी कविता)
नाटक : यमगाथा
आलोचना : निराला : आत्महंता आस्था, महादेवी, मुक्तिबोध : साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ
संस्मरण : लौट आ ओ धार
साक्षात्कार : कहा-सुनी
संपादन : तारापथ (सुमित्रानंदन पंत की कविताओं का चयन), एक शमशेर भी है, दो शरण (निराला की भक्ति कविताएँ), भुवनेश्वर समग्र, पक्षधर (पत्रिका - आपात काल के दौरान एक अंक का संपादन, जिसे सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया)
सम्मान:भारतेंदु सम्मान, शरद जोशी स्मृति सम्मान, कथाक्रम सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान
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1.
तुम्हारे दिन लौटेंगे बार-बार
मेरे नहीं। तुम देखोगी यह झूमती हरियाली
पेड़ों पर बरसती हवा की बौछार
यह राग-रंग तुम्हारे लिए होंगी चिन्ताएँ
अपरम्पार खुशियों की उलझन तुम्हारे
लिए होगी थकावटें, जंगल का महावट
पुकारेगा तुम्हें बार-बार। $फुर्सत ढूँढ़ोगी जब-तब
थकी-हार तब तुम आओगी
पाओगी मुझे झुँझलाओगी
सो जाओगी कड़ियाँ गिनते-गिनते सौ बार।
इसी तरह आयेगी बहार
चौंकाते हुए तुम्हें
तुम्हारे दिन।
2.
मैं
मरने के बाद भी
याद करूँगा
तुम्हें
तो लो, अभी मरता हूँ
झरता हूँ
जीवन
की
डाल से
निरन्तर
हवा में
तरता हूँ
स्मृतिविहीन करता हूँ
अपने को
तुमसे
हरता हूँ।
3.
तुम्हारे जन्म-दिन पर आयेगी स्वतंत्रता
तुम्हारे जन्म-दिन पर सजेगा लाल $िकला
तुम्हारे जन्म-दिन पर ले जाये जायेंगे प्रधानमंत्री ऊपर
बखान करेंगे। सलामी लेंगे। झण्डा खींचेंंगे तिरंगा
तुम्हारे जन्म-दिन पर खूब झमाझम होगी बारिश
झूमेंगे गरजेंगे मेघ
तुम्हारे जन्म-दिन पर $खूनी दरवाज़े पर पुलिस का दस्ता होगा
तुम्हारे जन्म-दिन पर पर मारे जायेंगे कश्मीरी दो-चार
तुम्हारे जन्म-दिन पर फिरूँगा अकेला
न जाने कहाँ
कब तक!
तुम्हारे जन्म-दिन पर एक दिन और
बड़ी हो जाओगी तुम
तुम्हारे जन्म-दिन पर ताज़े फूल
बार-बार बासी हो जायेंगे।
तुम्हारे जन्म-दिन के एक दिन बाद
लौटूँगा
अमर होकर
तुम्हारे
जन्म-दिन पर।
4.
18 नंबर बेंच पर कोई निशान नहीं
चारों ओर घासफूस – जंगली हरियाली
कीड़े-मकोड़े मच्छर अँधेरा। वर्षा से धुली
हरी-चिकनी काई की लसलस
चींटियों के भुरेभुरे बिल – सन्नाटा
बैठा सन्नाटा। क्षण वह धुल-पुँछ बराबर
कौन यहाँ आया बदलती प्रकृति के अलावा
प्रशासनिक भवन से दूर कुलसचिव के सुरक्षा-गॉर्ड
की नज़रों से बाहर ऋत्विक घटक की डोलती
दुबली छाया से उतर कौन यहाँ आया
एकान्त की मृत्यु बस रोज़ रात – व्यर्थ
वृक्षों की छिदरी छाँह, झूमती हवा की चीत्कार संग
मैं फिरता वहाँ
सब कुछ गुज़रता है चुपचाप
आज रात नहीं कोई वहाँ
बात नहीं कोई
झँपती आँख नहीं कोई।
5.
मुझे
लोग तुमसे विलग कर देंगे
जैसे बच्चे को माँ से छीना जाता है
उसके आँसू उसकी ची$ख मुझे सुन पड़ रही है
अचानक मेरा हाथ तुम्हारी हरी चुनरी से बिछड़ जायेगा
थोड़ी हरियाली मेरे आँसुओं में
थोड़ी अन्तस में तुम्हारे चुपचाप
थोड़ा देखना तुम्हारा दूर दिशाओं में
जिधर मैं घुल गया मिट गया अदृश्य के सूनेपन में
मेरे रक्त-रहित खँडहर का मुड़ना तुम्हारी ओर
जिधर तुम बेबस चुपचाप इतिहास-रहित लौट गयीं
अपनी महत्ता की दमक में रहो
जो दिन शेष हैं
सुखी और अपूर्ण
दर्शन देते हुए
नैतिकता के स्वांग
में मुस्कुराओ
घिरे हुए
चिरे हुए
बस याद करो कभी-कभी
उसको जो
था।
6.
कब लौटोगे कब लौटोगे
हे, जीवन के परम सुहावन – सावन!
पावन
रस बरसावन तप के गावन
आवन-जावन
कब लौटोगे
रास-रचावन
अन्तर्मन के सुमुख
सखावन
कब!
7.
बाहर खड़खड़
भड़भड़ शोर
भीतर झलफल
भोर अँजोर
बाँधी डोर
बटोर
काल की
ओर-छोर
सौंपा
बचा-खुचा जीवन
फिर तुमको।
फूटा स्रोत
सभी दिशाएँ
विस्मित घोर
अछोर।
8.
जब मैं हार गया सब कुछ करके
मुझे नींद आ गयी।
जब मैं गुहार लगाते-लगाते थक गया
मुझे नींद आ गयी
जब मैं भरपेट सोकर उठा
हड़बोंग में फँसा, $गुस्सा आया जब
मुझे नींद आ गयी। जब तुम्हारे इधर-उधर
घर के भीतर बिस्तर से सितारों की दूरी तक
भागते निपटाते पीठ के उल्टे धनुष में हुक लगाते
चुनरी से उलझते पल्लू में पिन फँसाते, तर्जनी
की ठोढ़ी पर छलक आयी $खून की बूँद को होठों में चूसते
खीझते, याद करते, भूली हुई बातों पर सिर ठोंकते
बाहर बाहर – मेरी आवाज़ की अनसुनी करते…
यही तो चाहिए था तुम्हें
ऐसा ही निपट आलस्य
ललित लालित्य, विजन में खुले हुए
अस्त-व्यस्त होठों पर नीला आकाश
ऐसी ही ध्वस्त-मस्त निर्जन पराजय
पौरुष की। इसी तरह हँसती-निहारतीं
बालक को जब तुम गयीं
मुझे नींद आ गयी।
जब तुमने लौटकर जगाया
माथा सहलाया तब मुझको
फिर नींद आ गयी।
मैं हूँ तुम्हारा उधारखाता
मैं हूँ तुम्हारी चिढ़
तंग-तंग चोली
तुम्हारी स्वतंत्रता पर कसी हुई,
फटी हुई चादर
लुगरी तुम्हारी फेंकी हुई
मैं हूँ तुम्हारा वह सदियों का बूढ़ा अश्व
जिसकी पीठ पर ढेर सारी मक्खियाँ
टूटी हुई नाल से खूँदता
सूना रणस्थल।
लो, अब सँभालो
अपनी रणभेरी
मैं जाता हूँ।
9.
जैसा मैंने कहा किया वैसा ही
खोले दुख के अंग—
सभी कुछ घायल।
जीवन निरूपम मिला तुम्हें ओ,
किसने उसकी छाल उतारी
किया निर्वसन। छील-छाल कर
श्वेत रंग से दुहा ज़हर
ओ, दुहिता माता खड़ी भगवती
सब सिंगार सिधारे, धरती का
अवलम्ब लिये, कैसी हो
किसकी हो तुम नारी!
जिसकी चर्चा का विष-नगर
बिछाये, सारे मनु सारे कनु
ची$ख रहे हैं कामाख्या की
व्यथा – कथाएँ।
10.
उतरा ज्वार।
जल
मैला।
लहरें
गयीं क्षितिज के पार।
काला सागर
अन्धी आँखें फाड़
ताक रहा है
गहन नीलिमा।
बुझे हुए तारे
कचपच-कचपच
ढूँढ़ रहे हैं
ठौर।
मैं हूँ मैं हूँ
यह दृश्।
खोज रहा हूँ
बंकिम चाँद
क्षितिज किनारे
मन में
जो अदृश्य है।
11.
अभी तुम हो रास्ते में
अभी तुम हो धाम के उस पार
अभी तुम पवनार में हो
वृद्ध-जर्जर साध्वियों के संग
अभी तुम हो प्रार्थना की व्यर्थता में
अभी तुम बापू कुटी में
अभी तुम शान्ति के स्तूप में
उस गोल घेरे में
अभी तुम हो नाशवान शरीर-मन्दिर में
अभी तुम हो फूल
जिसमें शूल-सा मैं चुभ रहा हूँ
लौट आओ
इसी पथ पर कुचल
दो यह नोक
मेरी। सदा को
सुनसान
मेरा।
12.
नहाया नहीं अरे, आज अभी तक
अभौतिक-अजीवन-अन-अर्थ,
कुछ भी खाया नहीं अदृश्य
अननुभूत। गुन-गुन खटराग
सुनाया नहीं उसको
जो आया नहीं।
भूल गया सब कुछ
शब्दों में कुछ भी समाया नहीं।
अब तो गया – निष्क्रमित हुआ
रूखा-सूखा यह जीवन
अब तक सरसाया नहीं
बरसे-बरसे वे बादल
वे बादल फिर भी
अघाया नहीं।
गया। अब गया यह
स्वर्ण-कलश अ-तिथि जीवन
जला
बस जलाया नहीं।
13.
सभी लोग लगे हैं काम में
चले गये। मैं हूँ आराम में
हमाम में। याद करूँगा तुम्हें
शाम में। सब होंगे अपने
धन-धाम में। मैं बैठा रहूँगा
अन्तिम विराम में।
नीरस निष्काम में
तमाम में।
14.
तुम्हारी आँख के आँसू हमारी आँख में
तुम्हारी आँख मेरी आँख में
तुम्हारा धड़कता सौन्दर्य
मेरी पसलियों की छाँव में
तुम्हारी नींद मेरे जागरण के पार्श्व में
तुम्हारी करवटें चुपचाप मेरी सलवटों में
तुम्हारी एक-एक कराह मेरी आह में।
पिछली रात की वह प्रात
अवाक् बैठे हम
तुम्हें मैं निरखता चुपचाप
मन में अनकहा सब
रह गया परिताप।
15.
सूख रहा है स्रोत अगम
पाताली अमर अमरकण्टक
भीतर का। सूख रहीं रतियाँ-बतियाँ
रूठीं। पीठ दीख रही है
मुझको अब अपनी ही
चिकनी झुर्री-मुड़ी पसलियाँ
दायें-बायें – यादें मिटी हुईं सब
जैसे स्याही पोंछ दिया हो स्मृति के
काल कठिन ने अपने हाथों
मैल हथेली पर धारे फिर
चला गया हो – बैठ गया हो
आँसू की उस नदी किनारे
धो लेने को।
जो कुछ भी धुँधला-धुँधला है
मैल साँझ की बिखर गयी है
मटमैला है शून्य अगम आकाश
और धरती के बीच
केवल रव है भीषण और भयानक
यह अनर्थ की कालनीति है
जिसमें बैठा हूँ मनमारे
कोई स्वप्र नहीं है।
16.
सभी मनुष्य हैं
सभी जीत सकते हैं
सभी हार नहीं सकते।
सभी मनुष्य हैं
सभी सुखी हो सकते हैं
सभी दुखी नहीं हो सकते।
सभी जानते हैं
दुख से कैसे बचा जा सकता है
कैसे सुख से बचें
सभी नहीं जानते।
सभी मनुष्य हैं
सभी ज्ञानी हैं
बावरा कोई नहीं है
बावरे के बिना
संसार नहीं चलता।
सभी मनुष्य हैं
सभी चुप नहीं रह सकते
सभी हाहाकार नहीं कर सकते
सभी मनुष्य हैं।
सभी मनुष्य हैं
सभी मर सकते हैं
सभी मार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैं
सभी अमर हो सकते हैं।
17.
सारे काम निपटाकर तुम्हें याद करने बैठा।
$फुर्सत ही नहीं देते लोग
तुम्हारे चेहरे पर नज़र टिकायी नहीं कि कोई आ गया
‘क्या कर रहे हैं?’
‘कुछ भी तो नहीं।’ मैंने कहा
चोरी-छिपे झाँककर देख लिया, सोचता हुआ —
कहीं इसने देख तो नहीं लिया, मैं जिसे देख रहा था
मेरी दृष्टि का अनुगमन तो नहीं किया इसने
कहाँ से टपक पड़ा मेरे एकान्त में!
चिड़चिड़ तो हुई भीतर लेकिन सँभाल लिया
बन्द किये धीरे से भीतर के गहरे कपाट
छुपा लिया तुम्हें चुपचाप
डाल दिये पर्दे भारी-भरकम
बन्द किये स्मरण के फैले डैने धीरे-धीरे सँभलकर
उतरा फिर नीचे-नीचे-नीचे
बोला फिर बिहँसकर
‘कहिये, कैसे आ गये बेवक्त?’
18.
धीरे-धीरे बीती साँझ
धीरे-धीरे डूबा क्षितिज अँधेरे की लय में
विलय हुआ मैं बैठा वन के बीच
छवि मेरी गुम हुई पत्थरों के
ऊबड़खाबड़पन में, बैठा पत्थर एक
प्रतीक्षा घायल। लहू चन्द्रमा
उठा अचानक बादल का दिल फाड़
हमारे हृदय-देश में हुआ उजाला
गाढ़ा-गाढ़ा मद्धिम-मद्धिम रक्तिम
स्मृति लौटी फिर किसकी
ठगा हुआ मैं
हुआ तिरोहित
पछतावे के अन्धे
तम में।
19.
मैं तुम्हारी पीठ पर बैठा हुआ घाव हूँ
जो तुम्हें दिखेगा नहीं
मैं तुम्हारी कोमल कलाई पर उगी हुई धूप हूँ
अतिरिक्त उजाला – ज़रूरत नहीं जिसकी
मैं तुम्हारी ठोढ़ी के बिल्कुल पास
चुपचाप सोया हुआ भरम हूँ साँवला
मर्म हूँ दर्पण में अमूर्त हुआ
उपरला होंठ हूँ खुलता हँसी की पंखुरियों में
एक बरबस झाँकते मोती के दर्शन कराता
कानों में बजता हुआ चुम्बन हूँ
उँगलियों की आँच हूँ
लपट हूँ तुम्हारी
वज्रासन तुम्हारा हूँ पृथ्वी पर
तपता झनझनाता क्षतिग्रस्त
मातृत्व हूँ तुम्हारा
हिचकोले लेती हँसी हूँ तुम्हारी
पर्दा हूँ बँधा हुआ
हुक् हूँ पीठ पर
दुख हूँ सधा हुआ
अमृत-घट रहट हूँ
बाहर उलीच रहा सारा
सुख हूँ तुम्हारा
गौरव हूँ रौरव हूँ
करुण-कठिन दिनों का
गर्भ हूँ गिरा हुआ
देवता-दैत्य हूँ नाशवान
मर्त्य असंसारी धुन हूँ
अनसुनी। नींद हूँ
तुम्हारी
ओ, नारी!
20.
जा रहा हूँ जीवन की खोज में
सम्भवत: मृत्यु मिले
सम्भवत: मिले एक सभ्य
सुसंस्कृत जीवन-व्यवहार
साँझ मिले बाँझ
आँच न मिले
जीवन की राख मिले
दसों-दिशाओं में।
क्या ऐसा नहीं हुआ कई बार
कई तथागतों के साथ
कई शताब्दियों में
निरन्तार!
जब भी वह निकला उल्लास
लास भौतिक जीवन पर इठलाता
मिली उसे निरी उदासीनता
मिला उसे कठिन कंकाल
मिला उसे भव्य अन्तराल।
क्या वह नहीं लौटा
विकल-विकल लिये
हाथों में अपना ही तरल रक्त
क्या उसकी आँखों से नहीं
टूटा, निपट उदास टिमटिमाता
सितारा एक?
पृथ्वी थोड़ी और
समृद्ध क्या नहीं हुई
उसके बाद!
21.
खुश होना अनैतिक है इस समाज में
अपने लिए मात्र ठौर ढूँढ़ना घोर अपराध है
भारतीय दण्ड संहिता की कोई धारा होनी चाहिए बा$कायदा
इसके लिए घृणा और छि:-छि: का विधान होना चाहिए
लोगों के दिल में पत्थर डले हैं और तुम्हें अपनी पड़ी है विनोद जी,
आप और हम अपराधियों की निकृष्टतम कोटि में आते हैं।
देखिये, वह मक्खी हरी वाली – इतनी बड़ी, जो विष्ठा की बू से आती है
वही आ रही है। हरियाली नहीं है यह, जिसे हम-आप निरख रहे हैं
इस वर्षा ऋतु में। विदर्भ की विशिष्ट वनस्पति की हरी कोई पत्ती नहीं है।
$खुशी के लिए जगह नहीं है, आत्मघात के लिए है, लेकिन आप तो
अनन्त आशावान भिक्षुक हैं इस जीवन-समर के। आप जीने के लिए पैदा हुए हैं
जीवन-धन के चौर्य-क्रम में परम पटु हैं आप और हम
कितनी सभ्य बेहयाई से हँसते हैं हहास मार छोटी-छोटी निरर्थकताओं पर
क्यों हैं हम-आप बोलिये विनोद जी!
वह जो लौटा जेल से – बिना अपराध के धरा गया था – आदमी से
प्रेम करने के कारण – वह लौटा
लेकिन जीने लायक नहीं छोड़ा उसे। हड्डी कहाँ बची। भुर्रा है पूरा शरीर
वह एक चुप-चुप कराह है बस – वह हमारा ग्रेट भट्टाचार्य – जो कभी
नहीं कहता कुछ। और आप हैं कि भिक्षापात्र दुनिया के आगे फैलाने में
शर्म नहीं लगती आपको
लिखने से क्या होगा विनोद जी,
माँगते-जाँचते, भिक्षा का उत्सव मनाते
मर जायेंगे आप $खुश होते-होते
इस तरह नाटक करते-करते
अपने तथाकथित ‘चुप’ को बचाते-बचाते
चतुर-चुटिया बाँधते-बाँधते नरक की राह में हैं आप।
मैं तो आत्मघात की सोच रहा हूँ ऐसे कृत्रिम जीवन से
अपने नये-पुराने पापों के लिए कायरतापूर्वक।
अनीति की एक कोटि यह भी है।
अचानक क्यों लगा – $खुश होना अनैतिक है इस समाज में?
जबकि जगह थी एकान्त-निर्विघ्र – जैसे कमलेश के लिए है
जो सर्ि$फ मुस्कुराते हैं – $खुश नहीं होते।
छोटी औकात है मेरी
क्षमा करिये आप कमलेश जी,
और आप विनोद जी,
सभी विशिष्ट और सरल-समझदार जन
सभी मेरे भाई-बन्द
सभी मेरे दुश्मन और दोस्त
सभी आश्चर्यचकित शुभम्
सभी अनुपम अपावन
क्षमा करें
इस बर्राहट के लिए।
22.
जीवन को दुहराना अपवित्रता है
दो बार दो स्त्रियों से कैसे कह सकते हो—
‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।’ कैसे जी सकते हो दो बार
जिया हुआ जीवन! कैसे वरण कर सकते हो वही स्मृति
दंश कैसे सह सकते हो शब्द और अर्थ की आवृत्तियों का दो बार
कौन करता होगा ऐसे असम्भव को सम्भव?
कौन दुहराता होगा भूली बातों का अनर्थ
ध्वनि के अन्दर बार-बार अन्तर्ध्वनि पैदा करने में
कौन होता होगा अनथक समर्थ
नरक के आगे नतमस्तक कैसे कोई हो सकता होगा!
नहीं सो सकता मैं अजाने बिस्तर पर भ्रम के
बड़बड़ सुख से दोबारा सुखी नहीं हो सकता।
कैसे दुहराऊँगा वही निष्कर्म! इतना निर्लज्ज कैसे हो सकूँगा
नहीं दे सकूँगा अपने सम्बन्ध का कोई भी नाम
कौन हूँ किसी का मैं ईश्वर, कौन हूँ तुम्हारा मैं
पिता या पति अथवा पुत्र, कैसे हो सकूँगा
निपट कामान्ध
उन्हीं-उन्हीं छुए हुए अंग-भर्त्तृहरि को कैसे छू सकूँगा
एक से अधिक बार। कैसे गिरूँगा अध:पतन के निर्मम कगार के
अतल में सुतल-समतल में। कैसे अपरिचित चित्त को परिचित में ढालूँगा
ऐसा बेहया नहीं हो सकूँगा
कुछ भी दुबारा कभी सम्भव नहीं है
वासना भी नहीं
पुंसत्व भी अकर्मक संज्ञा है जीवन में
जियो, ओ लोगो, पुरुषार्थियो, जियो तुम।
सड़क पर चलता हूँ दुहराने की इच्छा के साथ
सोचता हूँ नहीं हूँ कहीं भी।
वही एक जीवन है जिसमें मैं निर्भय हूँ
वही एक जीवन सर्ि$फ पहली और अन्तिम बार चला हुआ
$खत्म हुआ $खत्म हुआ $खत्म हुआ
गौरवमय, गुर्राता, नष्टप्राय
गत असम्भूत असम्भव
अनावृत्त
गोलार्द्ध।
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