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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

'असअद' भोपाली


1.

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते
हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते

ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते

इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले
वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते

इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत
ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते

अहबाब पे दीवाने 'असद' कैसा भरोसा
ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते

2.

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे

न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे
वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे

निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे

निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे

बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे

बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे

3.

ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का
वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का

अपनी सन्नाई की तुझ को लाज भी है या नहीं
ऐ मुसव्विर देख रंग उड़ने लगा तस्वीर का

आप क्यूँ घबरा गए ये आप को क्या हो गया
मेरी आहों से कोई रिश्ता नहीं तासीर का

दिल से नाज़ुक शय से कब तक ये हरीफ़ाना सुलूक
देख शीशा टूटा जाता है तेरी तस्वीर का

हर नफ़स की आमद ओ शुद पर ये होती है ख़ुशी
एक हल्क़ा और भी कम हो गया ज़ंजीर का

फ़र्क़ इतना है के तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब
वरना मैं अक्स-ए-मुकम्मल हूँ तेरी तस्वीर का

4.

दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा
जो तेरे ग़म में फ़ना हो जाएगा

दर्द जब दिल से जुदा हो जाएगा
साज़-ए-हस्ती बे-सदा हो जाएगा

देखिए अहद-ए-वफ़ा अच्छा नहीं
मरना जीना साथ का हो जाएगा

बे-नतीजा है ख़याल-ए-तर्क-ए-राह
फिर किसी दिन सामना हो जाएगा

अब ठहर जा याद-ए-जानाँ रो तो लूँ
फ़र्ज़-ए-तन्हाई अदा हो जाएगा

लहज़ा लहज़ा रख ख़याल-ए-हुस्न-ए-दोस्त
लम्हा लम्हा काम का हो जाएगा

ज़ौक़-ए-अज़्म-ए-बा-अमल दरकार है
आग में भी रास्ता हो जाएगा

अपनी जानिब जब नज़र उठ जाएगी
ज़र्रा ज़र्रा आईना हो जाएगा

5.

जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई
घबरा के भूल बैठे हम शिकवा-ए-जुदाई

फ़ितरत को ज़िद है शायद दुनिया-ए-रंग-ओ-बू से
काँटों की उम्र आख़िर कलियों ने क्यूँ न पार्इ

अल्लाह क्या हुआ है ज़ोम-ए-ख़ुद-एतमादी
कुछ लोग दे रहे हैं हालात की दुहाई

ग़ुँचों के दिल बजाए खिलने के शिक़ हुए हैं
अब के बरस न जाने कैसी बहार आई

इस ज़िंदगी का अब तुम जो चाहो नाम रख दो
जो ज़िंदगी तुम्हारे जाने के बाद आई

6.

न साथी है न मंज़िल का पता है
मोहब्बत रास्ता ही रास्ता है

वफ़ा के नाम पर बर्बाद हो कर
वफ़ा के नाम से दिल काँपता है

मैं अब तेरे सिवा किस को पुकारूँ
मुक़द्दर सो गया ग़म जागता है

वो सब कुछ जान कर अनजान क्यूँ हैं
सुना है दिल को दिल पहचानता है

ये आँसू ढूँडता है तेरा दामन
मुसाफ़िर अपनी मंज़िल जानता है

7.

ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा
मुझे भी आप ने दिल से भुला दिया होगा

सुना है आज वो ग़म-गीन थे मलूल से थे
कोई ख़राब-ए-वफ़ा याद आ गया होगा

नवाज़िशें हों बहुत एहतियात से वरना
मेरी तबाही से तुम पर भी तबसरा होगा

किसी का आज सहारा लिया तो है दिल ने
मगर वो दर्द बहुत सब्र-आज़मा होगा

जुदाई इश्क़ की तक़दीर ही सही ग़म-ख़्वार
मगर न जाने वहाँ उन का हाल क्या होगा

बस आ भी जाओ बदल दें हयात की तक़दीर
हमारे साथ ज़माने का फ़ैसला होगा

ख़याल-ए-क़ुर्बत-ए-महबूब छोड़ दामन छोड़
के मेरा फ़र्ज़ मेरी राह देखता होगा

बस एक नारा-ए-रिंदाना एक ज़ुरा-ए-तल्ख़
फिर उस के बाद जो आलम भी हो नया होगा

मुझी से शिकवा-ए-गुस्ताख़ी-ए-नज़र क्यूँ है
तुम्हें तो सारा ज़माना ही देखता होगा

'असद' को तुम नहीं पहचानते तअज्जुब है
उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा

8.

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
ख़ुद-ब-ख़ुद घबरा के क़दमों में ज़माना आ गया

जब ख़याल-ए-यार दिल में वालेहाना आ गया
लौट कर गुज़रा हुआ काफ़िर ज़माना आ गया

ख़ुश्क आँखें फीकी फीकी सी हँसी नज़रों में यास
कोई देखे अब मुझे आँसू बहाना आ गया

ग़ुँचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
आप क्या आए के फिर मौसम सुहाना आ गया

मैं भी देखूँ अब तेरा ज़ौक़-ए-जुनून-ए-बंदगी
ले जबीन-ए-शौक़ उन का आस्ताना आ गया

हुस्न-ए-काफ़िर हो गया आमादा-ए-तर्क-ए-जफ़ा
फिर 'असद' मेरी तबाही का ज़माना आ गया

9.

जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए
बारहा दिल ने ये महसूस किया तुम आए

ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
वो तो कहिए के लबों पे न तबस्सुम आए

न वो आवाज़ में रस है न वो लहजे में खनक
कैसे कलियों को तेरा तर्ज़-ए-तकल्लुम आए

बारहा ये भी हुआ अंजुमन-ए-नाज़ से हम
सूरत-ए-मौज उठे मिस्ल-ए-तलातुम आए

ऐ मेरे वादा-शिकन एक न आने से तेरे
दिल को बहकाने कई तल्ख़ तवह्हुम आए

10.

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई
उन की निगाह और भी मासूम हो गई

हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे
अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई

क़ल्ब ओ ज़मीर बे-हिस ओ बे-जान हो गए
दुनिया ख़ुलूस ओ दर्द से महरूम हो गई

उन की नज़र के कोई इशारे न पा सका
मेरे जुनूँ की चारों तरफ़ धूम हो गई

कुछ इस तरह से वक़्त ने लीं करवटें 'असद'
हँसती हुई निगाह भी मग़मूम हो गई

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

गुलाब खंडेलवाल


परिचय:
जन्म: महाकवि गुलाब खंडेलवाल (Gulab Khandelwal) का जन्म अपने ननिहाल राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश के नवलगढ़ नगर में २१ फरवरी सन्‌ १९२४ ई. को हुआ था. उनके पिता का नाम शीतलप्रसाद तथा माता का नाम वसन्ती देवी था. उनके पिता के अग्रज रायसाहब सुरजूलालजी ने उन्हें गोद ले लिया था. उनके पूर्वज राजस्थान केमंडावा से बिहार के गया में आकर बस गये थे.
कुछ प्रमुख कृतियाँ: सौ गुलाब खिले, गुलाब-ग्रंथावली, देश विराना है, पँखुरियाँ गुलाब की आदि। 
*********************************************
१.
दुनिया को अपनी बात सुनाने चले हैं हम
पत्थर के दिल में प्यास जगाने चले हैं हम

हमको पता है ख़ूब, नहीं आँसुओं का मोल
पानी में फिर भी आग लगाने चले हैं हम

फिर याद आ रही है कोई चितवनों की छाँह
फिर दूध की लहर में नहाने चले हैं हम

मन के हैं द्वार-द्वार पे पहरे लगे हुए
उनको उन्हींसे छिपके चुराने चले हैं हम

यों तो कहाँ नसीब थे दर्शन भी आपके!
कहने को कुछ ग़ज़ल के बहाने चले हैं हम

कुछ और होंगी लाल पँखुरियाँ गुलाब की
काँटों से ज़िन्दगी को सजाने चले हैं हम

.

अंधेरी रात के परदे में झिलमिलाया किये
वे कौन थे कि जो सपनों में आया जाया किये!

थे उनकी आँखों में आँसू ही बस हमारे लिए
नज़र से और कहीं बिजलियाँ गिराया किये

बहुत था प्यार भी इतना कि पास बैठे रहे
हमारी बात को सुन-सुनके मुस्कुराया किये

सभीको एक ही चितवन से कर दिया मदहोश
सभीको एक ही प्याले से बरगलाया किये

उन्हींको उम्र की राहों में रख दिया हमने
दिए जो आपकी पलकों में झिलमिलाया किये

पता नहीं कि उन्हें कौन-सी रंगत हो पसंद!
हज़ारों रंग से घर अपना हम जलाया किये

नज़र से दूर भी जाकर हैं उनके पास बहुत
गुलाब प्यार के गीतों में छिपके आया किये

३.

आज तो शीशे को पत्थर पे बिखर जाने दे
दिल को रो लेंगें, ये दुनिया तो सँवर जाने दे

ज़िन्दगी कैसे कटी तेरे बिना, कुछ मत पूछ
यों तो कहने को बहुत कुछ है, मगर जाने दे

तेरे छूते ही तड़प उठता है साँसों का सितार
अपनी धड़कन मेरे दिल में भी उतर जाने दे

जी तो भरता नहीं इन आँखों की ख़ुशबू से, मगर
ज़िन्दगी का बड़ा लंबा है सफ़र, जाने दे

सुबह आयेगा कोई पोछने आँसू भी, 'गुलाब'
रात जिस हाल में जाती है, गुज़र जाने दे
 
४. 

हुआ है प्यार भी ऐसे ही कभी साँझ ढले 
कि जैसे चाँद निकल आये और पता न चले

कसो तो ऐसे कि जीवन के तार टूट न जायँ
पड़े जो चोट कहीं पर तो रागिनी ही ढले

मिले न हमको भले उनके प्यार की ख़ुशबू
नज़र से मिल ही लिया करते हैं गले से गले

हज़ार पाँव लड़खडाये ज़िन्दगी के, मगर
चले ही आये हैं उन चितवनों की छाँह तले

गुलाब बाग़ में करते रहे हैं सबसे निबाह
चुभे जो पाँव में काँटें तो वे भी साथ चले

५.

अब हमारे वास्ते दुनिया ठहर जाये तो क्या!
बाद मर जाने के जी को चैन भी आये तो क्या!

ख़ुद ही हम मंज़िल हैं अपनी, हमको अपनी है तलाश
दूसरी मंज़िल पे कोई लाख भटकाये तो क्या!

था लिखा किस्मत में तो काँटों से हरदम जूझना
कोई दिल को दो घड़ी फूलों में उलझाये तो क्या!

जिनको सुर भाते ग़ज़ल के, वे तो कब के जा चुके
अब इन्हें गाये तो क्या! कोई नहीं गाये तो क्या!

हर नये मौसम में खिलते हैं नये रँग में गुलाब
एक दुनिया को नहीं भाये तो क्या, भाये तो क्या!

६.

आप क्यों जान को यह रोग लगा लेते हैं
वे तो बस वैसे ही फूलों की हवा लेतें हैं

हमको भूली है नहीं याद घड़ी भर उनकी
देखें, अब कब वे हमें पास बुला लेते हैं

एक-से-एक है तस्वीर इन आँखों में बसी
जब जिसे चाहते सीने से लगा लेते हैं

है न दुनिया में कहीं कोई पराया हमको
जो भी मिलता है उसे अपना बना लेते हैं

एक दिन बाग़ से ख़ुद ही चले जायेंगे गुलाब
आज खिलते हैं अगर, आपका क्या लेते हैं!

७.

जहाँ है दिल ने पुकारा, वहीं जाना होगा
उन्हें भुलाना तो खुद को ही भुलाना होगा

चले तो बाग़ से जाते हो मगर याद रहे
जुही में फूल जो आयेंगे तो आना होगा

तुम्हीं जो रूठ गए, गायें भी तो क्या गायें!
हमारा गीत भी रोने का बहाना होगा

हमारा जान से जाना भी उनको खेल हुआ
मचल रहे हैं इसे फिर से दिखाना होगा

हमें तो प्यार में मिलने से रहा चैन कभी
नहीं जो तुम हुए दुश्मन तो ज़माना होगा

यहाँ गुलाब की रंगत का मोल कुछ भी नहीं
कलेजा चीरके काँटे पे दिखाना होगा

८.

दिल के लुट जाने का ग़म कुछ भी नहीं!
आप ही सब कुछ हैं, हम कुछ भी नहीं!

मुस्कुरा उठती थीं हमको देखकर
आज उन भौंहों पे ख़म कुछ भी नहीं!

मौत का डर प्यार में क्यों हो हमें!
ज़िन्दगी मरने से कम कुछ भी नहीं!

हम समझते थे कि सब कुछ हैं हमीं
मर के यह निकला कि हम कुछ भी नहीं

जा रहे मुँह फेरकर भौंरे गुलाब!
आपकी ख़ुशबू में दम कुछ भी नहीं!

९.

पहले तो मेरे दर्द को अपना बनाइए
फिर जो भी सुनाना हो, ख़ुशी से सुनाइए

ख़ुशबू न वह मिटेगी जो दिल में है बस गयी
जाकर कहीं भी प्यार की दुनिया बसाइए

पलकों की ओट में कोई दिल भी है बेक़रार
मुँह पर भले ही बेरुख़ी हमसे दिखाइए

कुछ मैं भी अपने आप को धीरज सिखा रहा
कुछ आप भी तो ख़ुद को तड़पना सिखाइए

मुस्कान नहीं होँठों पर, आँखें भरी-भरी
सौ बार आइये मगर ऐसे न आइए

उड़िए सुगंध बनके हवाओं में अब, गुलाब!
निकले हैं बाग़ से तो ग़ज़ल में समाइए

१०.

प्यार को हम न कोई नाम दिया चाहते हैं
बस उन्हें एक नज़र देख लिया चाहते हैं

एक प्याले के लिए कौन तड़पता इतना!
ज़िन्दगी हम तेरी हर साँस पिया चाहते हैं

और तड़पायेंगी यादें हमें इन ख़ुशियों की
आप क्यों हम पे ये एहसान किया चाहते हैं!

जिनको कस्तूरी के हिरणों-सी है ख़ुशबू की तलाश
दो घड़ी हम उन्हीं आँखों में जिया चाहते हैं

वह जो तुमको कभी हँसते हुए मिलते थे गुलाब
आज रो-रोके, सुना, जान दिया चाहते हैं

११.

लुभा रही है बहुत उनकी देखने की अदा
पर उसको क्यों कहें बादल कि जो बरस न सका!

किसीने देखा, किसीने सुना, किसीने कहा
हमारा जान से जाना भी रंग लाके रहा

रहे हैं एक-से तेवर न ज़िन्दगी के कभी
नहीं हैं चाँद और सूरज भी एक रुख़ पे सदा

बनी तो तुमसे किसी और से बने न बने
तुम्हारा है जो किसी और का हुआ न हुआ

मिलेंगे हम जो पुकारेगा दुख में कोई कभी
हरेक आँख के आँसू में है हमारा पता

सभी के ख़ून की रंगत तो लाल ही है मगर
वो रंग और ही कुछ है कि जो गुलाब बना

१२.

यह ज़िन्दगी तो कट गयी काँटों की डाल में
रखते हो अब गुलाब को सोने के थाल में

कुछ तो है बेबसी कि न आती है मौत भी
मछली तड़प रही है मछेरे के जाल में

साज़ों को ज़िन्दगी के बिखरना नहीं था यों
कुछ तो हुई थी भूल किसीकी सँभाल में

आहट तो उनकी आयी पर आँखें हुईं न चार
रातें हमारी कट गयीं ऐसे ही हाल में

बँधकर रही न डाल से ख़ुशबू गुलाब की
कोयल न कूकती कभी सुर और ताल में

१३.

हम अपने मन का उन्हें देवता समझते हैं
पता नहीं है कि हमको वे क्या समझते हैं

भला भले को, बुरे को बुरा समझते हैं
हम आदमी को ही लेकिन बड़ा समझते हैं

चढ़ा हुआ है सभी पर हमारे प्यार का रंग
कोई न इससे बड़ा कीमिया समझते हैं

समझ ने आपकी जाने समझ लिया है क्या!
ज़रा ये फिर से तो कहिये कि क्या समझते हैं

कोई जो सामने आता है मुस्कुराता हुआ
हम अपने मन का उसे आइना समझते हैं

किसी भी काम न आये, गुलाब! तुम, लेकिन
समझनेवाले तुम्हींको बड़ा समझते हैं

१४.

हमसे किसीका प्यार छिपाया न जायगा
इतना हसीन बोझ उठाया न जायगा

मेंहदी लगी हुई है उमंगों के पाँव में
सपने में भी तो आपसे आया न जायगा

लय-ताल टूट जाते हैं आते ही उनका नाम
जीवन का गीत हमसे तो गाया न जायगा

हँसने की बात और थी, रोने की बात और
पत्थर के दिल में फूल खिलाया न जायगा

यों तो किसीके मन से उतारे हुए हैं हम
आयेंगे याद फिर तो भुलाया न जायगा

लहरा रहे हैं आपकी आँखों में अब गुलाब
काँटों से ज़िन्दगी को बचाया न जायगा

१५.

हमारे प्यार का सपना भी आज टूट न जाय
सुरों को हाथ लगाने में साज़ टूट न जाय

जो देखने से ही पड़ता है आइने में बाल
लो, देखने से भी बाज़ आये आज टूट न जाय

है दिल की ज़िद तो यही, ख़ुद को भी लुटा के रहे
नज़र को ध्यान है इसका कि लाज टूट न जाय

हदें तो प्यार ने दुनिया की तोड़ दी हैं, मगर
बहुत हैं आप भी नाज़ुकमिज़ाज, टूट न जाय

गुलाब! बाग़ में फूलों के बादशाह हो तुम
धरा है सर पे जो काँटों का ताज, टूट न जाय

१६.

कुछ हम भी लिख गये हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में

हम से तो ज़िन्दगी की कहानी न बन सकी
सादे ही रह गये सभी पन्ने किताब में

दुनिया ने था किया कभी छोटा-सा एक सवाल
हमने तो ज़िन्दगी ही लुटा दी जवाब में

लेते न मुँह जो फेर हमारी तरफ से आप
कुछ ख़ूबियाँ भी देखते ख़ानाख़राब में

कुछ बात है कि आपको आया है आज प्यार
देखा नहीं था ज्वार यों मोती के आब में

हमने ग़ज़ल का और भी गौरव बढ़ा दिया
रंगत नयी तरह की जो भर दी गुलाब में

१७.

नहीं कोई भी मरने के सिवा अब काम बाक़ी है
हमारी ज़िन्दगी में बस यही एक शाम बाक़ी है

उमड़ आते हैं झट आँसू, कलेजा मुँह को आता है
उसे होँठों पे मत लाओ जो कोई नाम बाक़ी है

नहीं आया ज़वाब उनका तो हम ख़ुशकिस्मती समझे
रहा तो दिल में हरदम, उनसे कोई काम बाक़ी है

तलब आँखों में, चक्कर पाँव में है दिल में बेचैनी
नहीं अब इनसे बढ़कर और कुछ आराम बाक़ी है

गुलाब! आता है क्या तुमको सिवा आँसू बहाने के
यही तो ज़िन्दगी में बस सुबह और शाम बाक़ी है

१८.

मिलने की हर ख़ुशी में बिछुड़ने का ग़म हुआ
एहसान उनका ख़ूब हुआ फिर भी कम हुआ

कुछ तो नज़र का उनकी भी इसमें क़सूर था
देखा जिसे भी प्यार का उसको वहम हुआ

नज़रें मिलीं तो मिलके झुकीं, झुकके मुड़ गयीं
यह बेबसी कि आँख का कोना न नम हुआ

ज्यों ही लगी थी फैलने घर में दिए की जोत
त्योंही हवा का रुख़ भी बहुत बेरहम हुआ

कुछ तो चढ़ा था पहले से हम पर नशा, मगर
कुछ आपका भी सामने आना सितम हुआ

आती नहीं है प्यार की ख़ुशबू कहीं से आज
लगता है अब गुलाब का खिलना भी कम हुआ

१९.

सभी तरफ है अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं
भरम ही मन का है मेरा, कहीं भी कोई नहीं

नहीं निशान भी तेरा, कहीं भी कोई नहीं
घिरा है घेरे में घेरा, कहीं भी कोई नहीं

वहाँ पहाड़ की घाटी से, आधी रात के बाद
ये किसने फिर मुझे टेरा! कहीं भी कोई नहीं

चले है खोजने किसको ये खोजनेवाले!
पता तो बस यही तेरा--'कहीं भी कोई नहीं'

कहाँ है रोशनी तारों की, चाँद, सूरज की
अँधेरा और अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं

कहाँ जुड़ी थीं सभाएँ? कहाँ थे उनसे मिले?
कहाँ था अपना बसेरा? कहीं भी कोई नहीं

नहीं रहे हैं वही वह कि मैं ही मैं न रहा!
न साँझ वह न सवेरा, कहीं भी कोई नहीं

भले ही साँप यह रस्सी में आ रहा है नज़र
न बीन है, न सँपेरा, कहीं भी कोई नहीं

अभी तो छाँह-सी उतरी थी एक दिल में, मगर
नज़र को मैंने जो फेरा, कहीं भी कोई नहीं

न बाग़ है, नहीं भौंरे, न तितलियाँ, न गुलाब
उठा वसंत का डेरा, कहीं भी कोई न

२०.

हमारी रात अँधेरी से चाँदनी बन जाय
ज़रा सा रुख़ तो मिलाओ कि ज़िन्दगी बन जाय

वे और होते हैं जिनसे कि बंदगी बन जाय
मिले जो देवता हमको तो आदमी बन जाय

तुम्हारा प्यार हमारा है, बस हमारा है
कहीं न जान की दुश्मन ये दोस्ती बन जाय

कभी किसीसे जो लग जाय तो छूटे ही नहीं
नज़र का खेल है यह तो कभी-कभी बन जाय

गुलाब इतने हैं दुनिया की चोट खाए हुए
कलम हवा में छिड़क दें तो शायरी बन जाय

२१.

नज़र से दूर भी जाने से कोई दूर न था
हमारा दिल भी निशाने से कोई दूर न था

समझना चाहते उसको तो समझ लेते आप
ग़ज़ल में प्यार भी ताने से कोई दूर न था

जो रंग एक था आता तो एक जाता था
किसीके दूर बताने से कोई दूर न था

हमारा दिल तो धड़कता था आपके दिल में
छिपा था प्यार बहाने से, कोई दूर न था

पहुँच न पाई वहाँ क्यों गुलाब की ख़ुशबू!
हमारा मौन भी गाने से कोई दूर न था

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

”काज़िम” जरवली

परिचय:
जन्म: ”काज़िम” जरवली का जन्म १५ जून १९५५ लखनऊ के निकट जरवल मे एक देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी परिवार मे हुआ तथा पालन पोषण व शिक्षा लखनऊ मे हुई । उन्होंने १९७७ मे लखनऊ विश्विद्यालय से उर्दू मे स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की तथा गोल्ड मेडल प्राप्त किया ।काज़िम जरवली ने कम उम्र से ही उर्दू शायरी शुरू कर दी थी और धीरे धीरे भारत के विभिन्न भागो मे संपन्न मुशायरो मे भाग लेना शुरू किया। रचनाकार वर्तमान मे शिया कॉलेज लखनऊ मे कार्यरत हैं ।
प्रमुख कृतियाँ :किताब-ए-सन्ग, हुसैनियत, कूचे और कंदीले, इरम ज़ेरे क़लम।
*********************************************
१. 
कमान-ए-ज़ुल्म वो दस्ते ख़ता से मिलती है,
गले वो फूल की खुशबु हवा से मिलती है ।

बिखर रही है फ़ज़ा में अज़ान की शबनम,
वो रूहे लहन-ए-मुहम्मद सबा से मिलती है ।

समन्दरों को सुखा दे जो हिद्दत-ए-लब से,
हमें वो तशनालबी नैनवा से मिलती है ।

वफ़ा के दश्त में कासिम को देख लो सरवर,
फसील-ए-जिस्म तुम्हारी क़बा से मिलती है ।

चराग़-ए-सब्र को तनवीर बांटने के लिए,
बस एक रात की मोहलत जफा से मिलती है ।

बस एक वफ़ा की महक है जो चन्द प्यासों को,
फुरात तेरे किनारे हवा से मिलती है ।

कहा हुसैन ने मुझको छिपा लिया अम्मा,
यह रेत कितनी तुम्हारी रिदा से मिलती है ।

२. 

मुफलिसी मे भी यहाँ खुद को संभाले रखना,
जेब खाली हो मगर हाथो को डाले रखना ।

रोज़ ये खाल हथेली से उतर जाती है,
इतना आसान नहीं मुह मे निवाले रखना ।

गाँव पूछेगा के शहर से किया लाये हो,
मेरे माबूद सलामत मेरे छाले रखना ।

ज़िन्दगी तूने अजब काम लिया है मुझ्से,
ज़र्द पत्तो को हवाओ मे संभाले रखना ।

जब भी सच बात ज़बां पर कभी लाना ”काज़िम”
ज़ेहन मे अपने किताबो के हवाले रखना ।

३. 

लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली ।

मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली ।

जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली।

मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली।

चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली।

वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली।

खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली।

वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली।

यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ ”काज़िम”,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली

४. 

फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी ।

वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी ।

गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी ।

मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी ।

बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ ”काज़िम”,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।

५. 

खून की मौजों से नम परछाईयाँ,
हैं नज़ारें मोहतरम परछाईयाँ ।

जिस्म कट सकता है खंजर से मगर,
हो नहीं सकती क़लम परछाईयाँ ।

बाल बिखराए हुए शाम आ गयी,
हो गयीं जिस्मों से कम परछाईयाँ ।

जिन्दगानी की हकीकत तेरा ग़म,
और सब रंजो आलम परछाईयाँ ।

ये ज़मीं देखेगी ऐसी दोपहर,
ख़ाक पर तोड़ेंगी दम परछाईयाँ ।

मोजिज़ा बन जा मेरी तशनालबी,
धूप पर करदे रक़म परछाईयाँ ।

ज़ुफिशा है ज़हन में सूरज कोई,
हैं मेरे ज़ेरे क़लम परछाईयाँ ।

सामने रौज़ा है, सूरज पुश्त पर,
हमसे आगे दस क़दम परछाईयाँ ।

हशर का सूरज सवा नैज़े पा है,
धूप है शाहे उमम परछाईयाँ ।

छुप गया काज़िम वो तशना आफताब,
ढूँढती हैं यम बा यम परछाईयाँ ।

६. 

अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता ।

ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता ।

अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता ।

मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता ।

हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता ।

हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता ।

सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर ”काज़िम”,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।

७. 

सेर है ओस की बूंदों से सवेरा कितना.
बह गया रात की आँखों से उजाला कितना ।

अपने दुश्मन की तबाही पा मे रोया कितना,
मुनफ़रिद है मेरे एहसास का लहजा कितना ।

धूप मक़तल में खड़ी पूछ रही है मुझसे,
है तेरे जिस्म की दीवार में साया कितना ।

हैं जिधर तेज़ हवाएं वो उधर जाता है,
है उसे अपने चराग़ों पा भरोसा कितना ।

अब मेरी प्यास समंदर से कहीं आगे है,
आजमाएगा मेरा ज़र्फ़ ये दरिया कितना ।

जब टपकता है, ज़मीं अर्श नज़र आती है,
इन्किलाबी है मेरे खून का क़तरा कितना ।

अपनी तन्हाई उसे भीड़ नज़र आती है,
आज वो शख्स है दुनिया में अकेला कितना ।

ग़ौर से देखो बता देते हैं चेहरे काज़िम,
किस में है दर्द छिपाने का सलीक़ा कितना ।

८. 

यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।

इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।

रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।

वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।

पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।

पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।

रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।

ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।

शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली 

९. 

मुझे मालूम है मुझको पता है,
ये सन्नाटा तेरी आवाज़-ए-पा है।

चमन मे हर तरफ तेरे हैं चर्चे,
तेरा ही नाम पत्तों पर लिखा है।

मुझे आवाज़ देती है सहर क्यूँ,
परिंदा किस लिए नग़मा सरा है।

ये अब कैसी है दिल को बेक़रारी,
चमन है अब्र है ठंडी हवा है।

यहाँ पत्थर हुआ है कोई चेहरा,
यहाँ एक आईना टूटा पड़ा है।

सभी इन्सा हैं बस इतना समझ लो.
ज़रूरी है कि पूछो कौन क्या है।

सदा ये मारका चलता रहेगा,
न शब् हारी न ये सूरज थका है।

यही काज़िम है राज़-ए-इन्किसारी,
मेरे अंदर कोई मुझसे बड़ा है ।

१०. 

सराबो से नवाज़ा जा रहा हूँ,
आमीर-ए-दश्त बनता जा रहा हूँ ।

मैं खुशबु हु यह दुनिया जानती है,
मगर फिर भी छुपाया जा रहा हुं ।

ज़माना मुझ्को सम्झे या न सम्झे,
मै एक दिन हूँ, जो गुज़रा जा रहा हूँ ।

मेरे बाहर फ़सीले आहनी है,
मगर अन्दर से टुटा जा रहा हूँ ।

मेरे दरिया, हमेशा याद रखना,
तेरे साहिल से पियासा जा रहा हूँ ।

तुम अब थकती हुई नज़रे झुका लो,
बुलंदी से मै उतरा जा रहा हूँ ।

११. 

यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी।

इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी ।

रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी ।

वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली ।

पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली ।
पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई ।

रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी ।

ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की ।

शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
“काज़िम” शजर की शाख पे हंसती हुई कली

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

संजू दुबे (संजू शब्दिता )


परिचय :
जन्म : १५ अगस्त,अमेठी, उत्तरप्रदेश
शिक्षा : एम .ए (हिंदी साहित्य ) नेट जे .आर .एफ
ब्लॉग : http://sanjushabdita.blogspot.ae/
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१. 
हुए रुखसत दिले -नादां की ही कुछ सिसकियाँ भी थी
खयालों में वही पहली नज़र की मस्तियाँ भी थीं

लहर तडपी थी हर इक याद पे मचला भी था साहिल
ज़माने की वही रंजिश में डूबी किश्तियाँ भी थीं

बिखरती वो घड़ी बीती न जाने कितनी मुश्किल से
दबी ही थी जो सीने में क़सक की बिजलियाँ भी थीं

कभी कहते थे वो भी उम्र भर यूँ साथ चलने को
चलीं हैं साथ जो अब तक वही गमगीनियाँ भी थीं

भुलाकर यूँ न जी पायेंगे गुजरे वक़्त को हमदम
नहीं भूले हैं जो अब तक, वही बेचैनियाँ भी थीं

अभी तक याद है वो कौन सा लम्हा हुआ कातिल
नज़र खामोश थी औ दिल की कुछ मजबूरियाँ भी थीं

2-

सिर्फ कानों सुना नहीं जाता
लब से सब कुछ कहा नहीं जाता

दर्द कि इन्तहां हुई यारों
मुझसे अब यूँ सहा नहीं जाता

देश का हाल जो हुआ है अब
चुप तो मुझसे रहा नहीं जाता

चुन के मारो सभी दरिन्दों को
माफ इनको किया नहीं जाता

वो खता बार- बार करता है
फिर सज़ा क्यूँ दिया नहीं जाता

है भला क्या तेरी परेशानी
बावफ़ा जो हुआ नहीं जाता

कैसे वादा निभाऊ जीने का
तेरे बिन अब जिया नहीं जाता

3-

हँसते मौसम यूँ ही आते जाते रहे
गम के मौसम में हम मुस्कुराते रहे

यादें परछाइयाँ बन गयीं आजकल
हमसफ़र हम उन्हें ही बताते रहे

कल तेरा नाम आया था होंठों पे यूँ
जैसे हम गैर पर हक़ जताते रहे

दिल के ज़ख्मों को वो सिल तो देता मगर
हम ही थे जो उसे आजमाते रहे

तल्ख़ बातें ही अब बन गयीं रहनुमाँ
मीठे किस्से हमें बस रुलाते रहे

चल दिये हैं सफ़र में अकेले ही हम
साथ अपने ग़मों को बुलाते रहे

रूठ कर तुम गये सारा जग ले गये
चाँद तारे भी हमको चिढ़ाते रह

४-

वो मेरी रूह मसल देता है
साँस लेने में दखल देता है

जाने आदत भी लगी क्या उसको
खुद की ही बात बदल देता है

राज़ की बात उसे मत कहना
बाद में राज़ उगल देता है

मैं उसे रोज़ दुवा देती हूँ
वो मुझे रोज़ अज़ल देता है

उसको मालूम नहीं, गम में भी
वो मुझे रोज़ ग़ज़ल देता है

5

ये इश्क सुन तिरे हवाले ताज करते हैं
कि प्यार कल भी था तुझी से आज करते हैं

हुकूमतों का शोख़ रंग यह भी है यारों
कि हम जहाँ नहीं दिलों पे राज करते हैं

बहुत लगाव है हमें वतन की मिटटी से
इसी पे जान दें इसी पे नाज़ करते हैं

नरम दिली नहीं समझते देश के दुश्मन
चलो कि आज हम गरम मिज़ाज करते

सुभद्रा कुमारी चौहान


परिचय:
इनका जन्म १६ अगस्त १९०४ को नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथ सिंह के जमींदार परिवार में हुआ था।सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं।सुभद्रा कुमारी बाल्यावस्था से ही देश-भक्ति की भावना से प्रभावित थीं। इन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया। विवाह के पश्चात भी राजनीति में सक्रिय भाग लेती रहीं। दुर्भाग्यवश मात्र 43 वर्ष की अवस्था में एक दुर्घटना में 15 फ़रवरी 1948 को इनकी मृत्यु हो गई। 
प्रमुख कृतियाँ : मुकुल, त्रिधारा
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१. वीरों का कैसा हो बसंत

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गजरता बार-बार
प्राची-पश्चिम भू-नभ अपार
सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत
-वीरों का कैसा हो बसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुँचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग-अंग
है वीर देश में किंतुं कंत
-वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान
मिलने आए हैं आदि-अंत
-वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाँहें हों या हों कृपाण
चल-चितवन हों या धनुष-बाण
हो रस-विलास या दलित-त्राण
अब यही समस्या है दुरंत
-वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग-जाग
बतला अपने अनुभव अनंत
-वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिलाखंड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड
दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत
-वीरों का कैसा हो बसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छंद नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं
फिर हमें बताए कौन? हंत
-वीरों का कैसा हो बसंत

२. झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटि तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी
दूर फ़िरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

कानपुर के नाना की मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह सन्तान अकेली थी
नाना के संग पढ़ती थी वह नाना के संग खेली थी
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी; उसकी यही सहेली थी
वीर शिवाजी की गाथाएँ उसको याद ज़बानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

लक्ष्मी थी या दुर्गा, थी वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते, उसकी तलवारों के वार
नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना; ये थे उसके प्रिय खिलवाड़
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में
राजमहल में बजी बधाई ख़ुशियाँ छाईं झाँसी में
सुभट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई झाँसी में
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई
किन्तु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं
रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी दया नहीं आई
नि:सन्तान मरे राजा जी, रानी शोक समानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हर्षाया
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया
फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झण्डा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा, झाँसी हुई बिरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात
क़ैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर पर भी घात
उदयपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात
जब कि सिन्ध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो यही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में
लेफ्टिनेंट वॉकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वन्द्व असमानों में
ज़ख्मी होकर वॉकर भागा, उसे अजब हैरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरन्तर पार
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार
यमुना-तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी
काना और मुन्दरा सखियाँ रानी के संग आईं थीं
युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी
पर, पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार
किन्तु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार
रानी एक, शत्रु बहुतेरे; होने लगे वार-पर-वार
घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीरगति पानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी
मिला तेज़ से तेज़, तेज़ की वह सच्ची अधिकारी थी
अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी
हमको जीवित करने आई, बन स्वतन्त्रता नारी थी
दिखा गई पथ, सिखा गई, हमको जो सीख सिखानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

३. कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता जमना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्‍हैया बनता धीरे-धीरे

ले देती यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्‍हें नहीं कुछ कहता, पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्‍मा ऊँचे पर चढ़ जाता

वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बाँसुरी बजाता
अम्‍मा-अम्‍मा कह बंसी के स्‍वर में तुम्‍हें बुलाता

सुनकर मेरी बंसी माँ तुम कितनी ख़ुश हो जातीं
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं

तुमको आती देख, बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता
एक बार माँ कह, पत्‍तों में धीरे से छिप जाता

तुम हो चकित देखती, चारों ओर न मुझको पातीं
व्‍या‍कुल-सी हो तब, कदंब के नीचे तक आ जातीं

पत्‍तों का मरमर स्‍वर सुन, जब ऊपर आँख उठातीं
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं

ग़ुस्‍सा होकर मुझे डाँटतीं, कहतीं नीचे आ जा
पर जब मैं न उतरता, हँसकर कहतीं मुन्‍ना राजा

नीचे उतरो मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी
नए खिलौने-माखन-मिश्री-दूध-मलाई दूंगी

मैं हँसकर सबसे ऊपर की डाली पर चढ़ जाता
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बाँसुरी बजाता

बहुत बुलाने पर भी जब माँ नहीं उतरकर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्‍हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैलाकर अम्‍मा वहीं पेड़ के नीचे
ईश्‍वर से कुछ विनती करतीं, बैठी आँखें मीचे

तुम्‍हें ध्‍यान में लगी देख मैं, धीरे-धीरे आता
और तुम्‍हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबराकर आँख खोलतीं पर माँ खुश हो जातीं
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे

यह कदंब का पेड़ अगर मां होता जमना तीरे ।।

४. कोयल

देखो कोयल काली है पर मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक-कूक कर आमों में मिसरी घोली
कोयल! कोयल! सच बतलाओ क्‍या संदेशा लाई हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर इस डाली पर आई हो
क्‍या गाती हो, किसे बुलाती बतला दो कोयल रानी
प्‍यासी धरती देख मांगती हो क्‍या मेघों से पानी?

कोयल! यह मिठास क्‍या तुमने अपनी माँ से पाई है
माँ ने ही क्‍या तुमको मीठी बोली यह सिखलाई है?
डाल-डाल पर उड़ना-गाना जिसने तुम्‍हें सिखाया है
‘सबसे मीठे-मीठे बोलो’ -यह भी तुम्‍हें बताया है
बहुत भ‍ली हो तुमने माँ की बात सदा ही है मानी
इसीलिए तो तुम कहलाती हो सब चिडियो की रानी


५. पानी और धूप

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।

सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया
अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
बुला लिया कहकर आजा।

ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।

बिजली के आँगन में अम्‍माँ
चलती है कितनी तलवार
कैसी चमक रही है फिर भी
क्‍यों खाली जाते हैं वार।

क्‍या अब तक तलवार चलाना
माँ वे सीख नहीं पाए
इसीलिए क्‍या आज सीखने
आसमान पर हैं आए।

एक बार भी माँ यदि मुझको
बिजली के घर जाने दो
उसके बच्‍चों को तलवार
चलाना सिखला आने दो।

खुश होकर तब बिजली देगी
मुझे चमकती सी तलवार
तब माँ कर न कोई सकेगा
अपने ऊपर अत्‍याचार।

पुलिसमैन अपने काका को
फिर न पकड़ने आएँगे
देखेंगे तलवार दूर से ही
वे सब डर जाएँगे।

अगर चाहती हो माँ काका
जाएँ अब न जेलखाना
तो फिर बिजली के घर मुझको
तुम जल्‍दी से पहुँचाना।

काका जेल न जाएँगे अब
तूझे मँगा दूँगी तलवार
पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।


६. फूल के प्रति 

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान॥

मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास॥

सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल॥



७. मुरझाया फूल 

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी
पंखड़ियाँ बिखराना मत॥

गुजरो अगर पास से इसके
इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
देखो, इसे रुलाना मत॥

अगर हो सके तो ठंडी
बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!



८. व्याकुल चाह 

सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
प्यास बुझाने आए हो??

रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥

झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
पल-पल विजन डुलाती उस पर
अकुलाए प्राणों की आह॥

रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥



९. जीवन-फूल 

मेरे भोले मूर्ख हृदय ने
कभी न इस पर किया विचार।
विधि ने लिखी भाल पर मेरे
सुख की घड़ियाँ दो ही चार॥

छलती रही सदा ही
मृगतृष्णा सी आशा मतवाली।
सदा लुभाया जीवन साकी ने
दिखला रीती प्याली॥

मेरी कलित कामनाओं की
ललित लालसाओं की धूल।
आँखों के आगे उड़-उड़ करती है
व्यथित हृदय में शूल॥

उन चरणों की भक्ति-भावना
मेरे लिए हुई अपराध।
कभी न पूरी हुई अभागे
जीवन की भोली सी साध॥

मेरी एक-एक अभिलाषा
का कैसा ह्रास हुआ।
मेरे प्रखर पवित्र प्रेम का
किस प्रकार उपहास हुआ॥

मुझे न दुख है
जो कुछ होता हो उसको हो जाने दो।
निठुर निराशा के झोंकों को
मनमानी कर जाने दो॥

हे विधि इतनी दया दिखाना
मेरी इच्छा के अनुकूल।
उनके ही चरणों पर
बिखरा देना मेरा जीवन-फूल॥



१०. प्रतीक्षा

बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित
नयनों के मदु मुक्ता-जाल।
उनमें जाने कितनी ही
अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥

बिता दिए मैंने कितने ही
व्याकुल दिन, अकुलाई रात।
नीरस नैन हुए कब करके
उमड़े आँसू की बरसात॥

मैं सुदूर पथ के कलरव में,
सुन लेने को प्रिय की बात।
फिरती विकल बावली-सी
सहती अपवादों के आघात॥

किंतु न देखा उन्हें अभी तक
इन ललचाई आँखों ने।
संकोचों में लुटा दिया
सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥

अब मोती के जाल बिछाकर,
गिनतीं हैं नभ के तारे।
इनकी प्यास बुझाने को सखि!
आएंगे क्या फिर प्यारे?



११. मेरा जीवन

मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।

मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।

जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।

उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।

आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।

सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

फणीश्वरनाथ 'रेणु'

परिचय:
जन्म: फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के 'औराही हिंगना' गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। ये एक सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार थे। 
प्रमुख कृतियाँ: उपन्यास: मैला आँचल, परती परिकथा, कलंक-मुक्ति, जुलूस, कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड। कहानी संग्रह: ठुमरी, अग्निख़ोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी। संस्मरण: ऋणजल-धनजल, वन तुलसी की गन्ध, श्रुत अश्रुत पूर्व।
निधन: ११ अप्रैल १९७७ को देहावसान। 
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१. मिनिस्टर मंगरू

‘कहाँ गायब थे मंगरू?’-किसी ने चुपके से पूछा।
वे बोले- यार, गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था।
बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना-
कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का।
सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी,
कि कब सोया रहूंगा औ’ कहाँ जलपान खाऊंगा।
कहाँ ‘परमिट’ बेचूंगा, कहाँ भाषण हमारा है,
कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊंगा।

‘सुना है जाँच होगी मामले की?’ -पूछते हैं सब
ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के,
‘अंहिसा लाउंड्री’ में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।


२. इमेर्जेंसी

इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने
हर मौसम आकर ठिठक जाता है
सड़क के उस पार
चुपचाप दोनों हाथ
बगल में दबाए
साँस रोके
ख़ामोश
इमली की शाखों पर हवा

'ब्लाक' के अन्दर
एक ही ऋतु

हर 'वार्ड' में बारहों मास
हर रात रोती काली बिल्ली
हर दिन
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई
रक्तरंजित सुफ़ेद
खरगोश की लाश
'ईथर' की गंध में
ऊंघती ज़िन्दगी

रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?'
रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द!

इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ
हड़हड़-भड़भड़ करती
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी!

सैलाइन और रक्त की
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी!

-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी!

सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम
और तमाम चुपचाप हवाएँ
एक साथ
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी!


३. सुंदरियो!

सुंदरियो-यो-यो
हो-हो
अपनी-अपनी छातियों पर
दुद्धी फूल के झुके डाल लो !
नाच रोको नहीं।
बाहर से आए हुए
इस परदेशी का जी साफ नहीं।
इसकी आँखों में कोई
आँखें न डालना।
यह ‘पचाई’ नहीं
बोतल का दारू पीता है।
सुंदरियो जी खोलकर
हँसकर मत मोतियों
की वर्षा करना
काम-पीड़ित इस भले आदमी को
विष-भरी हँसी से जलाओ।
यों, आदमी यह अच्छा है
नाच देखना
सीखना चाहता है।


४. जागो मन के सजग पथिक ओ!

मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!

गोपाल सिंह नेपाली

परिचय:
जन्म: गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त, 1911 को बिहार के पश्चिमी चम्पारन के बेतिया में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है।हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होने बम्बइया हिन्दी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी नामक चार पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। सन् १९६२ के चीनी आक्रमन के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें 'सावन', 'कल्पना', 'नीलिमा', 'नवीन कल्पना करो' आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
कुछ प्रमुख कृतियाँ: उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, नीलिमा, हिमालय ने पुकारा
निधन: 17 अप्रैल, 1963 को इनका निधन हो गया था।
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१. स्‍वतंत्रता का दीपक 

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!


२. गरीब का सलाम ले

क्रांति को सफल बना नसीब का न नाम ले

भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले
यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो
न्याय हो तो आरपार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चांदनी
चांदनी लिये चला तो घूम हर मुकाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले


३. स्‍वतंत्रता का दीपक
घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्‍वतंत्रतादिया,
रुक रही न नाव हो, जोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वदेश का दिया हुआ प्राण के समान है!

यह अतीत कल्‍पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भवना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि, क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्‍योति का वितान है!

तीन चार फूल है, आस पास धूल है,
बाँस है, फूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्‍य प्राणदान है!

झूम झूम बदलियाँ, चुम चुम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रही, हलचले मचा रही!
लड़ रहा स्‍वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीत हार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्‍वतंत्र भावना का स्‍वतंत्र गान है!


४. मेरा देश बड़ा गर्वीला 

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली

यमुना-तीर, घाट गंगा के, तीर्थ-तीर्थ में बाट छाँव की
सदियों से चल रहे अनूठे, ठाठ गाँव के, हाट गाँव की

शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

खडी-खड़ी फुलवारी फूले, हार पिरोए बैठ गुजरिया
बरसाए जलधार बदरिया, भीगे जग की हरी चदरिया

तृण पर शबनम, तरु पर जुगनू, नीड़ रचाए तीली-तीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

घास-फूस की खड़ी झोपड़ी, लाज सम्भाले जीवन-भर की
कुटिया में मिट्टी के दीपक, मंदिर में प्रतिमा पत्थर की

जहाँ वास कँकड़ में हरि का, वहाँ नहीं चाँदी चमकीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

जो कमला के चरण पखारे, होता है वह कमल-कीच में
तृण, तंदुल, ताम्बूल, ताम्र, तिल के दीपक बीच-बीच में

सीधी-सदी पूजा अपनी, भक्ति लजीली मूर्ति सजीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा

लाल-लाल बन जाए काले, गोरी सूरत पीली-नीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

दिवाली -- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे

सारी रात पटाखे छोडे, नटखट बालक उम्र हठीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

खंडहर में इतिहास सुरक्षित, नगर-नगर में नई रौशनी
आए-गए हुए परदेशी, यहाँ अभी भी वही चाँदनी

अपना बना हजम कर लेती, चाल यहाँ की ढीली-ढीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

मन में राम, बाल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का

ऐसे हैं बहरत के वासी, गात गठीला, बाट चुटीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतुरंग-रंगीली

आन कठिन भारत की लेकिन, नर-नारी का सरल देश है
देश और भी हैं दुनिया में, पर गाँधी का यही देश है

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा

सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली


५. भाई - बहन

तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूँ,
तू बन जा हहराती गँगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ लाल बनूँ,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ,
यहाँ न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
...तू आँगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला ।

बहन प्रेम का पुतला हूँ मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना ।
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना ।

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गँगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घडी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है ।
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है ।

६. यह लघु सरिता का बहता जल

कितना शीतल, कितना निर्मल
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह निर्मल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल छल-छल,

तन का चंचल मन का विह्वल
यह लघु सरिता का बहता जल

ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन भर, रजनी भर, जीवन भर,

धोता वसुधा का अन्तस्तल
यह लघु सरिता का बहता जल

हिम के पत्थर वो पिघल पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकलच
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल,

नित जलकर भी कितना शीतल
यह लघु सरिता का बहता जल

कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,

गंगा, यमुना, सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल


७. वसंत गीत 

ओ मृगनैनी, ओ पिक बैनी,
तेरे सामने बाँसुरिया झूठी है!
रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है!

मुख भी तेरा इतना गोरा,
बिना चाँद का है पूनम!
है दरस-परस इतना शीतल,
शरीर नहीं है शबनम!
अलकें-पलकें इतनी काली,
घनश्याम बदरिया झूठी है!

रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी ह !
क्या होड़ करें चन्दा तेरी,
काली सूरत धब्बे वाली!
कहने को जग को भला-बुरा,
तू हँसती और लजाती!
मौसम सच्चा तू सच्ची है,
यह सकल बदरिया झूठी है!

रग-रग में इतना रंग भरा,
कि रंगीन चुनरिया झूठी है!


८. मैं प्यासा भृंग जनम भर का

मैं प्यासा भृंग जनम भर का
फिर मेरी प्यास बुझाए क्या,
दुनिया का प्यार रसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

चंदा का प्यार चकोरों तक
तारों का लोचन कोरों तक
पावस की प्रीति क्षणिक सीमित
बादल से लेकर भँवरों तक
मधु-ऋतु में हृदय लुटाऊँ तो,
कलियों का प्यार कसम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

महफ़िल में नज़रों की चोरी
पनघट का ढंग सीनाज़ोरी
गलियों में शीश झुकाऊँ तो,
यह, दो घूँटों की कमज़ोरी
ठुमरी ठुमके या ग़ज़ल छिड़े,
कोठे का प्यार रकम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जाहिर में प्रीति भटकती है
परदे की प्रीति खटकती है
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों पर बात अटकती है
नियमों का आँचल पकड़ूँ तो,
घूँघट का प्यार शरम भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

जीवन से है आदर्श बड़ा
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा
दो दिन जीने के लिए यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा
संन्यासी बनकर विचरूँ तो
संतों का प्यार दिल भर का ।
मैं प्यासा भृंग जनम भर का ।।

शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

शरमन जी के दोहे

परिचय :
जन्म : 8th May 1956 को जमशेदपूर (टाटा  नगर)
जाने माने  कवि, गीतकार, नाटककार, लेखक एवं ज्योतिषी
Email sharman.jsr@rediffmail.com

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१. 
उठो तोडो कारा तुम निर्भय होकर आज 
अपने चिंतन-मनन से बदलो भ्रष्ट समाज 

आओ मिलकर शपथ लें मर-मिटने को आज 
सबसे पहले हम चलें धरती माँ के पास 

कब-तक रहेगा ठगता बदल-बदलकर भेष 
हर कर्म के बाद रहे कर्मों का फल शेष 

किस पर हाय पड़ी नहीं मज़बूरी की मार 
मत हँसो कल आयेगी तेरी बारी यार 

ऐसी क्या भूल हुई कि टूटे मन के तार 
कारवाँ गुजर गया अब खाली रहा गुबार

2.

ओले टपके खेत में, बेघर हुए किसान 
पानी चढ़ता ही गया, डूब गये खलिहान 

अब के बरस मौसम ने बदला दिल का हाल 
इतने आँसू बरसे कि नयन हुए बेहाल 

ढूँढ रहे औषधी ये कहकर वैद्य-हकीम 
अच्छा होता कि रहते मिलकर राम-रहीम 

सुनके उसकी बाँसुरी तन-मन हुआ विभोर 
छवि देखूँ घनश्याम की, अपने चारों ओर 

अशुभ कृत का सदा करो जीवन में परिहार 
वर्ना नौका डुबेगी अगर छुटी पतवार 

जीवन सफल हो जाये ऐसा हो व्यापार 
मृत्यु से पहले कर ले खुद को तू तैयार 

बुझे कभी न साथी जन-जागरण की मशाल 
रण छोड़कर भागे शत्रु, चमके तेरा भाल

3.

सत् को न जाना जिसने वही मचाये शोर 
अहिंसा के मंदिर में, हिंसा पकड़ी जोर 

सत्-अहिंसा का पुजारी रहा हमेशा मौन 
कहते थे बापू किन्तु माना उनकी कौन 

चले गये गाँधी और आया गांधीवाद 
टूट गये सब जैसे आपस के संवाद 

बह रही है रग-रग में बापू की तासीर 
निश्चित है कि टूटेगा असत्य का प्राचीर 

आज भी हैं, कल भी थे साहब और गुलाम 
कब मिलेगा बल बोलो निर्बल को हे राम !

अगर करे अमल कोई, दीक्षा करे कमाल 
बेशक चेला तर जाय, सदगुरु हुए निहाल 

घिरे विपत्ति के बादल, टपके निशदिन लोर 
सुख चाहा लेकिन हाय, दुख ही रहा बटोर 

बीज नफरत का रोपे, करते छुप के वार 
घात करने वालों की लंबी हुई कतार 

मिले नही गरीबों को बिन पैसे इन्साफ 
देश के रखवाले ही करे तिजोरी साफ 

आते है उस पार से चुने हुए कुछ लोग 
जब-जब होती है हानि, देते अपना योग 

कहना था जो कह दिया, आगे सोच-विचार 
कहे माधव अर्जुन से अद्भुत जीवन-सार

4.

आपस में मिल के रहें, झलके मन का प्यार 
ऐसी वाणी बोलिए, दूर करे तकरार 

काजल की ये कोठरी, देती सबको दाग 
साबित बचा ना कोई, भाग सके तो भाग 

ज्ञानरूपी तलवार से जो काटे निज शीश
देते हैं भगवान उस बंदे को आशीष 

आज मेरी, कल तेरी, बारी-बारी यार 
उठेगी सबकी डोली, तय है चार कहार

5.

मन को अति निर्बल करे, तन को भी बीमार 
लालच वो बला है जो देती मति को मार 

न जाने कैसा होगा, किसका होगा राज 
राजनीति की पटकथा, सुन-सुन लगती लाज 

बुझ रही क्यों बच्चों की जलती हुई मशाल 
आज हमारे सामने, है गंभीर सवाल 

गँवा रहे हैं किसलिए बच्चे अपनी जान 
पौधे की उदासी से, है माली अनजान 

शिक्षा तो भरपूर मिली, दौलत हुई अपार 
दीक्षा बिना जीवन ये, नौका बिन पतवार

6.

सुनो, सुनाता हूँ प्रिय ! अचरज की इक बात 
पूर्वजों ने दी हमको, प्रेमबूटी सौगात 

कर ले प्रेमबूटी का, उबटन जैसी लेप 
स्वर्ण-सदृश तन होगा, मन होगा निर्लेप 

हाथ पकड़ो जिसका भी, संग करो निर्वाह 
प्रेमबूटी दिखलाये, सबको सीधी राह 

जाना है सब छोड़ के, है सबको ये ज्ञान 
लेकिन कभी ना छोड़े, झूठा निज अभिमान 

हाँ, अपना तो है यारों, चलता-फिरता योग 
चख ले जो प्रेमबूटी, हरदम रहे निरोग 

7.

पकड़ा है इस देश को, कोई भूत-पिशाच 
संत करे कुकर्म यहाँ, नेता तिकडमबाज 

अंग्रेजों ने डाली है, नीव यहाँ बेजोड़
कोई देश कोड़ रहा, कोई रहा निचोड़ 

भारत की कुंडली में ये कैसा है योग 
अलग राज्य का दर्जा, मांगे नेता लोग 

जन्मा था इस देश में, नंगा एक फकीर 
मनमुख जिसका एक था जैसे संत कबीर 

कहीं न हमको ले डूबे, आपस की ये होड 
कुछ लोगों के हाथ में, है ताकत बेजोड़

मुद्दा बहुत उठायेंगे, दे डंके की चोट 
लेकिन सोच-विचार के, देना अपना वोट 

कब होगा खुशहाल ये हमारा हिन्दुस्तान 
जिसके लिये वीरों ने दे दी अपनी जान 

दिन-पर-दिन निर्बल हुए, देकर यारों वोट 
हमको मिली ना रोटी, वो खाए अखरोट 

सावधान रहो, न चुनो ऐसे उमीदवार
जो करते गरीबों के सपनों का व्यापार 

इतना तो है जनता के हाथों में अधिकार 
भीड़ से थोडा हट के, आओ करें विचार

कैसे मिलन होगा यदि मन में बैठा चोर 
नगर ढिंढोरा पीटे, व्यर्थ मचाये शोर 

उलझे धागे की जल्दी, मिले न कोई छोर 
तनिक ध्यान से खोलिए, है अद्भुत ये डोर 

मिलते हैं सम्राट मगर मिलते नहीं फकीर 
मिल जाए तो जानिए, वो बदले तक़दीर 

देखूँ लेकिन ना दिखे, है आँखों में लोर 
कैसे देखूँ चन्द्रमा, घटा घिरी घनघोर 

गुजर रहे जिस दौर से, ऐसा है ये दौर
मेहनत करनेवाला, तरसे एक-एक कौर 

8.

बात जो इतनी जाने, व्यर्थ न जीवन खोय 
मिटटी पे इत्र पड़े, मगर इत्र न मिटटी होय

न समझे, समझ के भी है साईं अनमोल 
तुझसे अच्छा साज है, बजे कि निकले बोल 

उलझे धागे की बंधू, मिले न जल्दी छोर 
तनिक ध्यान से खोलिए , है अदभुत ये डोर 

पूछा क्यों यदि ज्ञान है, पूछन माने सीख 
बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख 

न योग, न कोई समाधि, ऐसी उठी तरंग 
न गिरह, न कोई कन्नी, फिर भी उड़े पतंग 

जब चाहूँ देखूं उसे अपने चारों ओर 
मेरा उससे है रिश्ता ज्यों पतंग से डोर 

कैसे मिलन होगा यदि मन में बैठा चोर 
नगर ढिंढोरा पीटे, व्यर्थ मचाय शोर 

मिलेंगे इस कलियुग में 'राम' मगर ये मान 
पहले खुद से पूछो कि क्या तुम हो हनुमान 

छोड़ कर गृहस्थी जो लेता है संन्यास 
वो नहीं पक्का योगी,कच्चा है विश्वास 

देखूं लेकिन ना दिखे, है आँखों में लोर 
कैसे देखूं चंद्रमा, घटा घिरी घनघोर 

साईं कृपा ने मेरी, ऑंखें दी है खोल 
धन-दौलत की चाह नहीं, साईं मेरा अनमोल 

एक ही बाती बार के, सौ घर करे अँजोर 
साईं के संयोग से, नयना लगते भोर 

साईं भक्तों से कहूँ , इधर-उधर मत डोल 
खिडकी से मत झांक तू , दरवाजे को खोल 

रास-डोल ना रहे जल कैसे खिंचा जाय 
आँगन कुँआ पड़ा रहे, अतिथि प्यासा जाय 

मिलते हैं सम्राट मगर, मिलते नहीं फकीर 
मिल जाय तो जानिए वो बदले तक़दीर 

ये अनमोल-रतन जिसे कहते हैं सब प्यार 
मिल जाए तो बांटिए , भूखा है संसार 

उधेड़-बुन में मन रहा, हुआ न मुझको ज्ञान 
अंत में जाना मैंने हरि हीरे की खान 

शर्मन् कहता है सुनो, चाहे मान-न-मान 
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, सब साईं के हाथ 

दुनिया इक तमाशा है, देख इसे चुपचाप 
पानी जितना उबले, निकले उतनी भाप 

कुँए में है श्रोत अगर क्या चिंता की बात 
जितना चाहे खींच लो, लगे रहो दिन-रात 

साईं मुझमे है सुनो, बात कहूँ मैं सांच 
ज्वाला के जितने निकट, उतनी लगती आंच 

अज्ञात हाथों से वही, रूप अनेक बनाय 
ऊँगली ज्यों कुम्हार की, चलती घट बन जाय 

कोई मंतर नहीं जो कानों में दूँ फूँक 
मेरा साईं कह रहा, ये बातें सब झूठ 

जीवन में संघर्ष है, मत इससे तू भाग 
भोजन बनता ही नहीं, बिन चूल्हा बिन आग 

साईं का मांगे कोई होने का प्रमाण 
तेरे अंदर है वही, कर ले मूरख ध्यान 

देह को पहुँचायेंगे मिलकर सब श्मशान 
साईं-साईं बोलिए, है जब तक ये प्राण 

जब-जब घिरे अँधेरा, खोजे नयन प्रकाश 
दीपक ढ़ूँढ़ो है कहाँ, उसकी हुई तलाश 

आँगन सूना रहे ना खाली ये खलिहान 
साईं इतना दीजिए , तुझसे हटे न ध्यान 

गुजर रहे जिस दौर से ऐसा है ये दौर 
मेहनत करनेवाला , तरसे एक-एक कौर 

चाहे तुम तीर्थ करो या करो खूब दान 
भाग्य सँवारे न सँवरे , अगर न होगा ज्ञान 

हाथ ना आया कुछ भी जीवन हुआ तमाम 
मर गए जपते-जपते, हुआ न मन निष्काम 

इक चुटकी में द्वार खुला, दुल्हन गयो समाय 
ज्यों ढ़ेला माटी का, जल में गयो बिलाय 

ऊँचे-ऊँचे भवन हैं, केवल भोग-विलास 
मेरी कुटिया में हरि, आकर करे निवास 

एक दिन पर्दा उठेगा, देखेंगे सबलोग 
कब-तक रखेगा छिपाकर अंतर्मन का योग 

जितना जो कुचक्र रचे, आज वही भगवान् 
पर क्या कभी मताल को लगता भी है ध्यान 

श्रद्धा कितनी है यही अपने मन से पूछ
साईं उनके साथ है जो करते महसूस 

उडी आँगन की चिड़िया , देखो पंख पसार 
मेरा मन-पाखी उड़ा , ज्योंहि सुनी पुकार 

साईं इतना कीजिए कि बिगड़े ना हिसाब 
आऊँ तेरी शरण में लेकर सही किताब 

पढ़-लिखकर अनपढ़ रहा, पढ़ा ना उसका लेख 
साईं कहता है सुनो, '' सबका मालिक एक ''

सीधा मेरा साईं न कोई लाग-लपेट 
साईं-साईं बोलिए, होगी एक-दिन भेंट 

साईं की भक्ति जग में है सचमुच बेजोड 
हो सके तो सबको तू इस धागे से जोड़ 

लगती है जवानी में ये दुनिया रंगीन 
अंत घडी तू तडपे, जैसे जल बिन मीन 

घट फूटने से पहले, खोज ले तू निकास 
खारा जल मीठा लगे, अगर लगी हो प्यास 

जीवन के कुहासे में नज़र न आती रात 
साईं मुझको ललचाय, लगती कभी न थाह 

साईं-साईं बोलकर प्रकट करूँ उदगार 
अगर देखना है उसे, अपना शीश उतार 

राम-रहीम मिले जहाँ , साईं का दरबार 
है अदभुत संयोग ये मानव में अवतार 

साईं की भाषा सीधी, सीधा है संकेत 
ऊँगली उठा के बोले, " सबका मालिक एक "

पूछती है ये धरती, पुछ रहा आकाश 
किसने ये कुचक्र रचा, किसने किया विनाश 

फैले हैं चारों तरफ, हिंसा और बलात् 
सत् क्या है जो न जाने, वही करे उत्पात 

छोटी-छोटी बात में है जीवन का सार 
उसके आगे ड़ाल दे , नफ़रत के हथियार 

सबका मालिक एक है, राम-रहीम में देख 
एक अक्षररूप है वही ओम् साईं में देख

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

श्रद्धा जैन


परिचय :
जन्म: 08 नवंबर 1977,विदिशा, मध्य प्रदेश
संप्रति सिंगापुर में हिंदी अध्यापिका हैं ।
ब्लॉग
: भीगी ग़ज़लें
सम्पर्क
:shrddha8@gmail.com
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१. 
शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी

फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी

कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी

औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी

तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी

छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी

२.
तेरे बगैर लगता है, अच्छा मुझे जहाँ नहीं
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं

कल रात पास बैठे जो, कुछ राज़ अपने खुल गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं

मैं जल रही थी मिट रही, थी इंतिहा ये प्यार की
अंजान वो रहा मगर, शायद उठा धुआँ नहीं

कुछ बात तो ज़रूर थी, मिलने के बाद अब तलक
खुद की तलाश में हूँ मैं, लेकिन मेरे निशाँ नहीं

दुश्मन बना जहान ये, ऐसी फिज़ा बनी ही क्यूँ
मेरे तो राज़, राज़ हैं, कोई भी राज़दां नहीं

अंदाज़-ए-फ़िक्र और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
कह कर ग़ज़ल में बात सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं

३.
ऐसा नहीं कि हमको, मोहब्बत नहीं मिली

बस यह हुआ कि हस्बे-ज़रुरत नहीं मिली

दौलत है, घर है, ख़्वाब हैं, हर ऐश है मगर
बस जिसकी आरज़ू थी वो चाहत नहीं मिली

उससे हमारा क़र्ज़ उतारा नहीं गया
इन आंसुओं की आज भी क़ीमत नहीं मिली

देखे गए हैं जागती आँखों से कितने ख्वाब
हमको ये सोचने की भी मोहलत नहीं मिली

हालाँकि सारी उम्र ही गुज़री है उनके साथ
“श्रद्धा” मेरा नसीब कि क़ुरबत नहीं मिली

४.
मुश्किलें आएँगी जब, ये फैसला हो जाएगा
कितने पानी में है सब, इसका पता हो जाएगा

दूरियाँ दिल की कभी जो, बढ़ भी जाएँ हमसफ़र
रोकना मत तुम क़दम, तय फासला हो जाएगा

लाए थे दुनिया में क्या तुम, लेके तुम क्या जाओगे
क्या महल, क्या रिश्ते-नाते, सब जुदा हो जाएगा

तुम दुआ मांगों तो दिल से और रखो उस पर यक़ीन
गर बुरा होना भी होगा, तो भला हो जाएगा

आरज़ू थी फूल इक, दामन में खिल जाए मेरे
और गर ये भी न हो तो क्या ख़ला हो जाएगा

ज़िंदगी के रास्ते होते ही हैं काँटों भरे
साथ 'श्रद्धा' भी रही तो हौसला हो जाएगा

५.
जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम से सीधे सादे लोग

पूछा बच्चों ने नानी से - हमको ये बतलाओ ना
क्या सचमुच होती थी परियां, होते थे शहज़ादे लोग ?

टूटे सपने, बिखरे अरमां, दाग़ ए दिल और ख़ामोशी
कैसे जीते हैं जीवन भर इतना बोझा लादे लोग

अम्न वफ़ा नेकी सच्चाई हमदर्दी की बात करें
इस दुनिया में मिलते है अब, ओढ़े कितने लबादे लोग

कट कर रहते - रहते हम पर वहशत तारी हो गई है
ए मेरी तन्हाई जा तू, और कहीं के ला दे लोग

६.
मेरे दामन में काँटे हैं, मेरी आँखों में पानी है
मगर कैसे बताऊँ मैं ये किसकी मेहरबानी है

खुला ये राज़ मुझ पर ज़िंदगी का देर से शायद
तेरी दुनिया भी फानी है, मेरी दुनिया भी फ़ानी है

वफ़ा नाज़ुक सी कश्ती है ये अब डूबी कि तब डूबी
मुहब्बत में यकीं के साथ थोड़ी बदगुमानी है

ये अपने आइने की हमने क्या हालत बना डाली
कई चेहरे हटाने हैं, कईं यादें मिटानी हैं

तुम्हें हम फासलों से देखते थे औ'र मचलते थे
सज़ा बन जाती है कुरबत, अजब दिल की कहानी है

मिटा कर नक्श कदमों के, चलो अनजान बन जाएँ
मिलें शायद कभी हम-तुम, कि लंबी ज़िंदगानी है

ये मत पूछो कि कितने रंग पल-पल मैंने बदले हैं
ये मेरी ज़िंदगी क्या, एक मुजरिम की कहानी है

किताबे-उम्र का बस इक सबक़ ही याद है मुझको
तेरी कुर्बत में जो बीता वो लम्हा जावेदानी है

वफ़ा के नाम पर 'श्रद्धा' न हो कुर्बान अब कोई
कहानी हीर-रांझा की पुरानी थी, पुरानी है

७.
जब हमारी बेबसी पर मुस्करायीं हसरतें
हमने ख़ुद अपने ही हाथों से जलाईं हसरतें

ये कहीं खुद्दार के क़दमों तले रौंदी गईं
और कहीं खुद्दरियों को बेच आईं हसरतें

सबकी आँखों में तलब के जुगनू लहराने लगे
इस तरह से क्या किसी ने भी बताईं हसरतें

तीरगी, खामोशियाँ, बैचेनियाँ, बेताबियाँ
मेरी तन्हाई में अक्सर जगमगायीं हसरतें

मेरी हसरत क्या है मेरे आंसुओं ने कह दिया
आपने तो शोख रंगों से बनाईं हसरतें

सिर्फ तस्वीरें हैं, यादें हैं, हमारे ख़्वाब हैं
घर की दीवारों पे हमने भी सजाईं हसरतें

इस खता पे आज तक 'श्रद्धा' है शर्मिंदा बहुत
एक पत्थरदिल के क़दमों में बिछायीं हसरतें

८.
नज़र में ख़्वाब नए रात भर सजाते हुए
तमाम रात कटी तुमको गुनगुनाते हुए

तुम्हारी बात, तुम्हारे ख़याल में गुमसुम
सभी ने देख लिया हमको मुस्कराते हुए

फ़ज़ा में देर तलक साँस के शरारे थे
कहा है कान में कुछ उसने पास आते हुए

हरेक नक्श तमन्ना का हो गया उजला
तेरा है लम्स कि जुगनू हैं जगमगाते हुए

दिल-ओ-निगाह की साजिश जो कामयाब हुई
हमें भी आया मज़ा फिर फरेब खाते हुए

बुरा कहो कि भला पर यही हक़ीकत है
पड़े हैं पाँव में छाले वफ़ा निभाते हुए

९.
किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना

यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना

वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना

ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना

हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना

गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना

परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना

१०.
फूल, ख़ुशबू, चाँद, जुगनू और सितारे आ गए
खुद-ब-खुद ग़ज़लों में अफ़साने तुम्हारे आ गए

हम सिखाने पर तुले थे रूह को आदाब ए दिल
पर उसे तो ज़िस्म वाले सब इशारे आ गए

आँसुओं से सींची है, शायद ज़मीं ने फ़स्ल ये
क्या तअज्जुब पेड़ पर ये फल जो खारे आ गए

हमको भी अपनी मुहब्बत पर हुआ तब ही यकीं
हाथ में पत्थर लिए जब लोग सारे आ गए

उम्र भर फल-फूल ले, जो छाँव में पलते रहे
पेड़ बूढ़ा हो गया, वो लेके आरे आ गए

मैंने मन की बात ’श्रद्धा’ ज्यों की त्यों रक्खी मगर
लफ्ज़ में जाने कहां से ये शरारे आ गए

११.
हँस के जीवन काटने का, मशवरा देते रहे
आँख में आँसू लिए हम, हौसला देते रहे.

धूप खिलते ही परिंदे, जाएँगे उड़, था पता
बारिशों में पेड़ फिर भी, आसरा देते रहे

जो भी होता है, वो अच्छे के लिए होता यहाँ
इस बहाने ही तो हम, ख़ुद को दग़ा देते रहे

साथ उसके रंग, ख़ुश्बू, सुर्ख़ मुस्कानें गईं
हर खुशी को हम मगर, उसका पता देते रहे

चल न पाएगा वो तन्हा, ज़िंदगी की धूप में
उस को मुझसा, कोई मिल जाए, दुआ देते रहे

मेरे चुप होते ही, किस्सा छेड़ देते थे नया
इस तरह वो गुफ़्तगू को, सिलसिला देते रहे

पाँव में जंज़ीर थी, रस्मों-रिवाज़ों की मगर
ख़्वाब ‘श्रद्धा’ उम्र-भर फिर भी सदा देते रहे