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सन्देश

मुद्दतें गुज़री तेरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं
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सोमवार, 27 मई 2013

धर्मेन्द्र कुमार सिंह "सज्जन" के दोहे

जन्म १९-०९-१९७९,प्रतापगढ़,उतर प्रदेश.अभी NTPC में प्रबंधक के रूप में कार्यरत.ईमेल: dkspoet@gmail.com,ब्लॉग:www. dkspoet.in,सम्पर्क +९४१८००४२७२






१.
जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय
ज्यों मंदिर के द्वार से, जूता चोरी होय

सिक्के यूँ मत फेंकिए, प्रभु पर हे जजमान
सौ का नोट चढ़ाइए,तब होगा कल्यान

फल, गुड़, मेवा,दूध, घी, गए गटक भगवान
फौरन पत्थर हो गए, माँगा जब वरदान

ताजी रोटी सी लगी, हलवाहे को नार
मक्खन जैसी छोकरी, बोला राजकुमार

संविधान शिव सा हुआ, दे देकर वरदान
राह मोहिनी की तकें, हम किस्से सच मान

जो समाज को श्राप है, गोरी को वरदान
ज्यादा अंग गरीब हैं,थोड़े से धनवान

बेटा बोला बाप से, फर्ज करो निज पूर्ण
सब धन मेरे नाम कर,खाओ कायम चूर्ण

ठंढा बिल्कुल व्यर्थ है, जैसे ठंढा सूप
जुबाँ जले उबला पिए, ऐसा तेरा रूप 

२.
है ग्यारह आयाम से, निर्मित यह संसार
सात मात्र अनुमान हैं, अभी ज्ञात हैं चार।

तीन दिशा आयाम हैं, चतुर्याम है काल;
चारों ने मिलकर बुना, स्थान-समय का जाल।

सात याम अब तक नहीं, खोज सका इंसान;
पर उनका अस्तित्व है, हमको है यह ज्ञान।

हैं रहस्य संसार के, बहुतेरे अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।

कहें समीकरणें सभी, होता है यह भान;
जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान।

यह भी संभव है सखे, हो अपना दिक्काल;
दिक्कालों के सिंधु में, तैर रही वनमाल।

ऐसे इक दिक्काल में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।

जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।

कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।

करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।

विजया जया किया करें, जब माता सँग वास;
प्रिय सखियों से तब उमा, करें हास परिहास।

हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।

कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।

सुन्दर छवि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।

सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?

आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।

कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।

३.
तन मन जलकर तेल का, आया सबके काम। 
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥

तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥

बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥

पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥ 

देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥


रविवार, 26 मई 2013

धर्मेन्द्र कुमार सिंह "सज्जन"


जन्म १९-०९-१९७९,प्रतापगढ़,उतर प्रदेश.अभी NTPC में प्रबंधक के रूप में कार्यरत.ईमेल: dkspoet@gmail.com,ब्लॉग:www. dkspoet.in,सम्पर्क +९४१८००४२७२





(१)

जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे

झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने लगे

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे

कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे

भूख इतनी भी न बढ़ने दीजिए मेरे हुजूर
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे

(२)

करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा

सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा

गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा

बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा

अंधविश्वास अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा

(३)

‘राहबर’ जब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई

प्रेम का रोग मुझको लगा
और ‘दारू’ दवा हो गई

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई

लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई

जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई

माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई

(४)

बरगदों से जियादा घना कौन है
किंतु इनके तले उग सका कौन है

मीन का तड़फड़ाना सभी देखते
झील का काँपना देखता कौन है

घर के बदले मिले खूबसूरत मकाँ
छोड़ता फिर जहाँ में भला कौन है

सामने हो अगर प्रश्न तुम सा हसीं
तो जहाँ में नहीं कर सका कौन है

ले के हाथों में पत्थर वो पूछा किए
सामने लाइए आइना कौन है

(५)

निरक्षरता अगर इस देश की काफ़ूर हो जाए
मज़ारों पर चढ़े भगवा, हरा सिंदूर हो जाए

ये मूरत खूबसूरत है न रख इतनी उँचाई पर
कभी नीचे गिरे तो पल में चकनाचूर हो जाए

हसीना साथ हो तेरे तो रख दिल पे जरा काबू
तेरे चेहरे की रंगत से न वो मशहूर हो जाए

लहू हो या पसीना हो बस इतना चाहता हूँ मैं
निकलकर जिस्म से मेरे न ये मगरूर हो जाए

जहाँ मरहम लगाती वो वहीं फिर घाव देती है
कहीं ये दिल्लगी उसकी न इक नासूर हो जाए

(६)

जिनको आने में इतने जमाने लगे
कब्र मेरी वो अपनी बताने लगे


झूठ पर झूठ बोला वो जब ला के हम
आइना आइने को दिखाने लगे

है बड़ा पाप पत्थर न मारो कभी
जिनका घर काँच का था, बताने लगे

प्रेम ही जोड़ सकता इन्हें ताउमर
टूट रिश्ते लहू के सिखाने लगे

भाग्य ने एक लम्हा दिया प्यार का
जिसको जीने में हमको जमाने लगे

(७)

उबलती धूप माथा चूम मेरा लौट जाती है
सुबह उठते ही सूरज को मेरी माँ जल चढ़ाती है

कहीं भी मैं गया पर आजतक भूखा नहीं सोया
मेरी माँ एक रोटी गाय की हर दिन पकाती है

पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी भी गाँव में हर साल माँ स्वेटर बनाती है

नहीं भटका हूँ मैं अब तक अमावस के अँधेरे में
मेरी माँ रोज चौबारे में एक दीया जलाती है

सदा ताजी हवा आके भरा करती है मेरा घर
नया टीका मेरी माँ रोज पीपल को लगाती है

(८)

है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ
तेरी आँखों में सागर है ये अक्सर भूल जाता हूँ

ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी तिलिस्मी है
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ

हमारे प्यार में इतना नशा तो अब भी बाकी है
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ

तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ

न जीता हूँ न मरता हूँ तेरी आदत लगी ऐसी
दवा हो जहर हो दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ

(९)

पानी का सारा गुस्सा जब पी जाता है बाँध
दरिया को बाँहों में लेकर बतियाता है बाँध

नदी चीर देती चट्टानों का सीना लेकिन
बँध जाती जब दिल माटी का दिखलाता है बाँध

पत्थर सा तन, मिट्टी सा दिल, मन हो पानी सा
तब जनता के हित में कोई बन पाता है बाँध

जन्म, बचपना, यौवन इसका देखा इसीलिए
सपनों में अक्सर मुझसे मिलने आता है बाँध

मरते दम तक साथ नदी का देता है तू भी
तेरी मेरी मिट्टी का कोई नाता है बाँध

(१०)

दिल है तारा रहे जहाँ चमके
टूट जाए तो आसमाँ चमके

है मुहब्बत भी जुगनुओं जैसी
जैसे जैसे हो ये जवाँ, चमके

क्या वो आया मेरे मुहल्ले में
आजकल क्यूँ मेरा मकाँ चमके

जब भी उसका ये जिक्र करते हैं
होंठ चमकें मेरी जुबाँ चमके

वो शरारे थे या के लब मौला
छू गए तन जहाँ जहाँ, चमके

ख्वाब ने दूर से उसे देखा
रात भर मेरे जिस्मोजाँ चमके                    

ज्यों ही चर्चा शुरू हुई उसकी
बेनिशाँ थी जो दास्ताँ, चमके

एक बिजली थी, मुझको झुलसाकर
कौन जाने वो अब कहाँ चमके

(११)

दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
मजा नहीं आया तुमको बिरयानी खाने में

खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में

पल भर के गुस्से से सारी बात बिगड़ जाती
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में

उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुकसान हुआ
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में

अपने हाथों वो देते हैं सुबहो शाम दवा
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में

(१२)

निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ
तू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ

न दिल रेत का है न तू हर्फ़ कोई
जिसे आँसुओं की लहर से मिटा दूँ

बहुत पूछती है ये तेरा पता, पर,
छुपाया जो खुद से, हवा को बता दूँ?

यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम
तुम्हारे लिए ही तुम्हीं को दगा दूँ

बिखेरी है छत पर यही सोच बालू
मैं सहरा का इन बादलों को पता दूँ

(१३)

गरीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है
वही इस देश में मज़लूम लोगों का विधाता है

कहाँ से नफ़रतें आकर घुली हैं उन फ़िजाओं में
जहाँ पत्थर भी ईश्वर है जहाँ गइया भी माता है

गरजती है बहुत फिर प्यार की बरसात भी करती
ये मेरा और बदली का न जाने कैसा नाता है

वो ताकत प्रेम में पत्थर पिघल जाए सभी कहते
पिघलते पत्थरों पर क्यूँ जमाना तिलमिलाता है

न ही मंदिर न ही मस्जिद न गुरुद्वारे न गिरिजा में
दिलों में झाँकता है जो ख़ुदा को देख पाता है

मैं तेरे प्यार का कंबल हमेशा साथ रखता हूँ
भरोसा क्या है मौसम का बदल इक पल में जाता है

(१४)

चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है
पालन कर के देखो एक जमाना लगता है

जय जय के पागल नारों ने कर्म किए ऐसे
हर जयकारा अब ईश्वर पर ताना लगता है

मीठे लगते सबको ढोल बजें जो दूर कहीं
गाँवों का रोना दिल्ली को गाना लगता है

कल तक झोपड़ियों के दीप बुझाने का मुजरिम
सत्ता पाने पर सबको परवाना लगता है

टूटेंगें विश्वास कली से मत पूछो कैसा
यौवन देवों को देकर मुरझाना लगता है

जाँच समितियों से करवाकर क्या मिल जाएगा
उसके घर में शाम सबेरे थाना लगता है

(१५)

अच्छे बच्चे सब खाते हैं
कहकर जूठन पकड़ाते हैं

कर्मों से दिल छलनी कर वो
बातों से मन बहलाते हैं

खत्म बुराई कैसे होगी
अच्छे जल्दी मर जाते हैं

जीवन मेले में सच रोता
चल उसको गोदी लाते हैं

कैसे समझाऊँ आँखों को
आँसू इतना क्यूँ आते हैं

कह तो देते हैं कुछ पागल 
पर कितने सच सह पाते हैं

डॉ. सत्यवान वर्मा सौरभ के दोहे

डॉ. सत्यवान वर्मा सौरभ ,३३३, कविता निकेतन , बडवा,( भिवानी) हरियाणा - 127045,ब्लॉग:http://kavitasaurabh.blogspot.ae/

१.

हिन्दी माँ का रूप है, समता की पहचान।
हिन्दी ने पैदा किए, तुलसी औ’ रसखान।।

हिन्दी हो हर बोल में, हिन्दी पे हो नाज़।
हिन्दी में होने लगे, शासन के सब काज।।

दिल से चाहो तुम अगर, भारत का उत्थान।
परभाषा को त्याग के, बाँटो हिन्दी ज्ञान।।

हिन्दी भाषा है रही, जन-जन की आवाज़।
फिर क्यों आँसू रो रही, राष्ट्रभाषा आज।।

हिन्दी जैसी है नहीं, भाषा रे आसान।
पराभाषा से चिपकता, फिर क्यूं रे नादान।।

 बिन भाषा के देश का, होय नहीं उत्थान।
बात पते की ये रही, समझो तनिक सुजान।।

 मिलके सारे आज सभी, मन से लो ये ठान।
हिन्दी भाषा का कभी, घट ना पाए मान।।

जिनकी भाषा है नहीं, उनका रूके विकास।
पराभाषा से होत है, यथाशीघ्र विनाश ।।

 मन रहता व्याकुल सदा, पाने माँ का प्यार।
लिखी मात की पातियां, बांचू बार हज़ार।।

 अंतर्मन गोकुल हुआ, जाना जिसने प्यार।
मोहन हृदय में बसे, रहते नहीं विकार।।



2.


बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान।
राधा के तन पे लगा, है मोहन का ध्यान।।

बस पैसों के दोस्त है, बस पैसों से प्यार।
बैठ सुदामा सोचता, मिले कहाँ अब यार।।

दुखी-ग़रीबों पे सदा, जो बांटे हैं प्यार।
सपने उसके सब सदा, होते हैं साकार।।

आपस में जब प्यार हो, फले खूब व्यवहार।
रिश्तों की दीवार में, पड़ती नहीं दरार।।

नवभोर में फले-फूले, मन में निश्छल प्यार।
आँगन आँगन फूल हो, महके बसंत बहार।।

रो हृदय में प्यार जो, बांटे हरदम प्यार।
उसके घर आंगन सदा, आए दिन त्यौहार।।

जहाँ महकता प्यार हो, धन न बने दीवार।
वहा कभी होती नहीं, आपस में तकरार।।

प्रेम वासनामय हुआ, टूट गए अनुबंध।
बिारे-बिखरे से लगे, अब मीरा के छंद।।

राखी प्रतीक प्रेम की, राखी है विश्वास।
जीवनभर है महकती, बनके फूल सुवास।।

राखी के धागे बसी, मीठी-मीठी प्रीत।
दुलार प्यारी बहन का, जैसे महका गीत।।

3.
आज़ादी के बाद भी, देश रहा कंगाल !
जेबें अपनी भर गए, नेता और दलाल !!

क़र्ज़ गरीबों का घटा, कहे भला सरकार!
विधना के खाते रही, बाकी वही उधार!!

हर क्षेत्र में हम बढे, साधन है भरपूर !
फिर क्यों फंदे झूलते, बेचारे मजदूर !!

लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात !
संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूंसे लात !!

देश बाँटने में लगी, नेताओं की फौज !
खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज !!

फूंकेगी क्या-क्या भला, ये आतंकी आग !
लाखों बेघर हो गए, लाखों मिटे सुहाग !!

बी. आर. विप्लवी


परिचय : बी. आर. विप्लवी
कार्य: अपर मंडल रेल प्रबंधक-पूर्व मध्य रेल,मुगलसराय
सम्पर्क :  brviplavi@gmail.com
प्रमुख कृतियाँ : सुबह की उम्मीद (ग़ज़ल संग्रह), वाणी प्रकाशन
१.
मुझे वह इस तरह से तोलता है
मिरी क़ीमत घटा कर बोलता है

वो जब भी बोलता है झूठ मुझसे
तो पूरा दम लगाकर बोलता है

मैं अपनी ही नज़र से बच रहा हूँ
न जाने कौन ऐसे खोलता है

जुबां काटी ताअरुर्फ़ यूँ कराया
यही है जो बड़ा मुंह बोलता है

मुझे तो ज़हर भी अमृत लगे हैं
वो कानों में अज़ब रस घोलता है


२.
ज़रूरत के मुताबिक़ चेहरे लेकर साथ चलता है
मिरा दमसाज़ ये देखें मुझे कैसे बदलता है

कहीं हो एक दो तो हम बुझाने की भी सोचेंगे
यहाँ हर गाम में शोले हैं सारा मुल्क़ जलता है

इसे अब खेल गुड्डे गुड़िया का अच्छा नहीं लगता
फ़क़त बारूद और बन्दूक से बच्चा बहलता है

हमारी टूटी छत पर धूप भी बरसा गई पानी
ये मौसम 'विपल्वी' के साथ कैसी चाल चलता है


३.
उम्र की दास्तान लम्बी है
चैन कम है थकान लम्बी है

हौसले देखिए परिंदों के
पर कटे हैं उड़ान लम्बे हैं

पैर फिसले ख़ताएँ याद आईं
कैसे ठहरें ढलान लम्बी है

ज़िंदगी की ज़रूरतें समझो
वक़्त कम है दुकान लम्बी है

झूठ-सच जीत-हार की बातें
छोड़िए दास्तान लम्बी है


४.
ये कौन हवाओं में ज़हर घोल रहा है
सब जानते हैं कोई नहीं बोल रहा है

बाज़ार कि शर्तों पे ही ले जाएगा शायद
वो आँखों ही आँखों में मुझे तोल रहा है

मर्दों की नज़र में तो वो कलयुग हो कि सतयुग
औरत के हसीं जिस्म का भूगोल रहा है

तू ही न समझ पाए कमी तेरी है वरना
दरवेश की सूरत में ख़ुदा बोल रहा है

जो ख़ुद को बचा ले गया दुनिया की हवस से
इस दौर में वह शख़्स ही अनमोल रहा है


५.
दूर से ही क़रीब लगते हैं
उनसे रिश्ते अज़ीब लगते हैं

उनकी आराइशों से क्या लेना
उनके गेसू सलीब लगते हैं

जो हुकूमत से लड़ते रहते हैं
वो बड़े बदनसीब लगते हैं

नेक नीयत नहीं दुआओं में
लोग दिल से ग़रीब लगते हैं

'विप्लवी' सोने की कलम वाले
आज आला अदीब लगते हैं


६.
थक गई है नज़र फिर भी उम्मीद है
उनका आना टला टल गई ईद है

सोचता ही रहा तुम तो ऐसे न थे
कहके आते नहीं किसकी तक़ीद है

ख़त पढूं ख्वाब देखूं कि ज़िंदा रहूँ
वो न आँखें न वह ताक़ते दीद है


७.
जहाँ शीशे तराशे जा रहे हैं
वहीं पत्थर तलाशे जा रहे हैं

कुआँ खोदा गया था जिनकी ख़ातिर
वही प्यासे के प्यासे जा रहे हैं

कहाँ सीखेंगे बच्चे जिद पकड़ना
सभी मेले तमाशे जा रहे हैं

जिन्हें महफ़िल में ढूँढा जाएगा फिर
वही मेरी बला से जा रहे हैं


८.
तू हजारों ख़्वाहिशों में बँट गई
ज़िन्दगी क़ीमत ही तेरी घट गई

सुबह की उम्मीद यूँ रोशन रही
इस भरोसे रात काली कट गई

पहले मुझसे तुम कि मैं तुमसे मिला
ये बताओ किसकी इज़्ज़त घट गई

तिश्नगी सहराओं सी बढती गई
जुस्तजू में उम्र सारी कट गई

'विप्लवी' इस हिज्र के क्या वहम थे
हो गया दीदार कड़वाहट गई


९.
आँख का फ़ैसला दिल की तज्वीज़ है
इश्क़ गफ़लत भरी एक हंसी चीज़ है

आँख खुलते ही हाथों से जाती रही
ख़्वाब में खो गई कौन सी चीज़ है

मैं कहाँ आसमाँ की तरफ देखता
मेरे सजदों को जब तेरी दहलीज़ है

दिल दुखाकर रुलाते हैं आते नहीं
क्या ये अपना बनाने की तज्वीज़ है

हो न पाएगी जन्नत ज़मीं से हंसी
'विप्लवी' ज़िन्दगी ही बड़ी चीज़ है


१०.
इबादतख़ाने ढाए जा रहे हैं
सिनेमाघर बनाए जा रहे हैं

फिरें आजाद क़ातिल और पहरे
शरीफ़ों पर बिठाए जा रहे हैं

क़लम करना था जिनका सर ज़रूरी
उन्हीं को सर झुकाए जा रहे हैं

सुयोधन मुन्सिफ़ी के भेष में हैं
युधिष्ठर आज़माए जा रहे हैं

लड़े थे 'विप्लवी' जिनके लिए हम
उन्हीं से मात खाए जा रहे हैं


११. 
मैं मुसाफिर था गुमनाम चलता रहा
आपके प्यार में दिल बहलता रहा

मैं उजालों का पैगाम लेकर चला
आँधियों में दिया बनकर जलता रहा

मेरी मिहनत को नाकामियाँ क्यों मिली
होम करने में क्यों हाथ जलता रहा

हर्फ छेनी-हथौड़ी से अनगिन लिखे
हाथ की ख़म लकीरें बदलता रहा

मैं खतावार बनकर जिऊँ किसलिए
इस अना के लिए दम निकलता रहा

कौन मेहनत करे किसको सुहरत मिले
देख अन्याय यह दिल दहलता रहा

भूल जाना मिरी खामियाँ दोस्तो
फिर मिलूँगा अगर दम ये चलता रहा

विप्लवी’ कामयाबी उसी का है हक़
जो गिरा और गिरकर सँभलता रहा
१२. 

जनता‬ का हक़ मिले कहाँ से, चारों ओर ‪दलाली‬ है |
‪चमड़े‬ का दरवाज़ा है और ‪कुत्तों‬ की रखवाली है ||

‪मंत्री‬, नेता, अफसर, मुंसिफ़ सब जनता के सेवक हैं |
ये जुमला भी प्रजातंत्र के मुख पर ‪भद्दी गाली‬ है ||

उसके हाथों की ‪कठपुतली‬ हैं सत्ता के ‪शीर्षपुरुष‬ |
कौन कहे संसद में बैठा ‪गुंडा और मवाली‬ है ||

सत्ता ‪बेलगाम‬ है जनता ‪गूँगी बहरी‬ लगती है |
कोई उज़्र न करने वाला कोई नहीं ‪सवाली‬ है ||

सच को यूँ ‪मजबूर‬ किया है देखो झूठ बयानी पर |
‪माला फूल‬ गले में लटके पीछे सटी ‪दोनाली‬ है ||

‪दौलत शोहरत‬ बँगला गाड़ी के पीछे सब भाग रहे हैं |
‪फसल जिस्म‬ की हरी भरी है ‪ज़हनी रक़बा‬ खाली है ||

‪सच्चाई‬ का जुनूँ उतरते ही हम ‪मालामाल‬ हुए |
हर सूँ यही हवा है ‪रिश्वत‬ हर ताली ताली है ||

वो ‪सावन‬ के अंधे हैं उनसे मत पूँछो रुत का हाल |
उनकी खातिर हवा ‪रसीली‬ चारों सूँ ‪हरियाली‬ है ||

‪पंचशील‬ के नियमो में हम खोज रहे हैं सुख साधन |
चारों ओर ‪महाभारत‬ है दाँव चढ़ी ‪पञ्चाली‬ है ||

पहले भी ‪मुगलों-अंग्रेजो‬ ने जनता का ‪‎खून पिया‬ |
आज 'विप्लवी' भेष बदलकर नाच रही खुशहाली है ||

बैरीसाल के दोहे

जन्म: 1719,रीति काल के कवि बैरीसाल असनी, फ़तेहपुर ज़िले के रहने वाले ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए थे।
इन्होंने 'भाषा भरण' नामक एक अच्छा अलंकार ग्रंथ संवत 1825 में रचा, जिसमें प्राय: दोहे ही हैं।

ऐसे ही इन कमल कुल जीत लियो निज रंग।
कहा करन चाहत चरन लहि अब जावक संग॥

लसत लाल डोरेऽरु सित चखन पूतरी स्याम।
प्यारी तेरे दृगन मैं कियो तिं गुन धाम॥

कर छुटाइ भजि दुरि गई कनक पूतरिन माहिं।
खरे लाल बिलपत खरे नेक पिछानत नाहिं॥

निज प्रतिबिंबन में दुरी मुकुीर धाम सुखदानि।
लई तुरत ही भावते तन सुवास पहिचान॥

बिरह तई लखि नरदई मारत नहीं सकात।
मार नाम बिधि ने कियो यहै जानि जिय बात॥

तोष लहत नहिं एक सों जात और के धाम।
कियो बिधातै रावरे यातैं नायक नाम॥

अलि ये उडगन अगिनि कन अंक धूम अवधारि।
मानहु आवत दहन ससि लै निज संग दवारि॥

करत नेह हरि सों भटू क्यों नहिं कियो बिचार।
चहत बचायो बसन अब बौरी बांधि अंगार।

सेत कमल कर लेत ही अरुन कमल छबि देत।
नील कमल निरखत भयो हंसत सेत को सेत॥

बसंत देशमुख

जन्म तिथि : ११ जनवरी १९४२(बसंत पंचमी) जन्म स्थान : ग्राम टिकरी(अर्जुन्दा) जिला - दुर्ग (छत्तीसगढ़),प्रमुख कृतियाँ, मुखरित मौन ( काव्य संग्रह),गीतों की बस्ती कंहाँ पर बसायें ( काव्य संग्रह), सनद रहे ( काव्य संग्रह), धुप का पता (ग़ज़ल संग्रह), लिखना हाल मालूम हो (मुक्तक - संग्रह)

१.
देखकर माहौल घबराए हुए हैं
इस शहर में हम नए आए हुए हैं

बोल दें तो आग लग जाए घरों में
दिल में ऐसे राज़ दफ़नाए हुए हैं

रौशनी कि खोज में मिलता अंधेरा
हम हज़ारों बार आजमाए हुए हैं

दिन में वे मूरत बने इंसानियत की
रात में हैवान के साए हुए हैं

दो ध्रुवों का फ़र्क है क्यों आचरण में
एक ही जब कोख के जाए हुए हैं

२.
रुख़े-तूफ़ान वहशियाना है
शाखे-नाज़ुक पे आशियाना है

मौत आई किराए के घर में
सिर्फ़ दो गज पे मालिकाना है

ज़र्रे-ज़र्रे पे ज़लज़ला होगा
ये ख़यालात सूफ़ियाना है

वक़्त सोया है तान के चादर
किधर है पाँव कहाँ सिरहाना है

सिरफिरे लोग जहाँ हैं बसते
उन्ही के दरमियाँ ठिकाना है

३.
कस्बे सभी अब शहर हो गए हैं
यहाँ आदमी अब मगर हो गए हैं

हँसी बन्दिनी हो गई है कहीं पर
नयन आँसुओं के नगर हो गए हैं

कहो रौशनी से कि मातम मनाए
अंधेरे यहाँ के सदर हो गए हैं

विषपाइयों कि पीढ़ी से कह दो
सुकरात मर कर अमर हो गए हैं

४.
अब नही उनसे यारी रख
अपनी लडाई जारी रख

भूख ग़रीबी के मसले पे
अब इक पत्थर भारी रख

कवि मंचों पर बने विदूषक
उनके नाम मदारी रख

भीड़-भाड़ में खो मत जाना
अपनी अलग चिन्हारी रख

५.
आँखों में ख़ुशनुमा कई मंज़र लिए हुए
कैसे हैं लोग गाँव से शहर गए हुए

सीने में लिए पर्वतो से हौसले बुलंद
गहराइयों में दिल की समुन्दर लिए हुए

बदहाल बस्तियों के हालात पूछने
आया है इक तूफ़ान बवंडर लिए हुए

बिल्लियों के बीच न बँट पाए रोटियाँ
ऐसे ही फैसले सभी बन्दर किए हुए

इस राह की तक़दीर में लिखी है तबाही
इस राह में रहबर खड़े खंजर लिए हुए

बिहारी जी के दोहे

महाकवि बिहारीलाल का जन्म 1595 के लगभग ग्वालियर में हुआ। वे जाति के माथुर चौबे थे। उनके पिता का नाम केशवराय था। उनका बचपन बुंदेल खंड में कटा और युवावस्था ससुराल मथुरा में व्यतीत हुई,बिहारी की एकमात्र रचना सतसई है। यह मुक्तक काव्य है। इसमें 719 दोहे संकलित हैं। बिहारी सतसई श्रृंगार रस की अत्यंत प्रसिद्ध और अनूठी कृति है। इसका एक-एक दोहा हिंदी साहित्य का एक-एक अनमोल रत्न माना जाता है।

सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।।

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।

घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।

मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।

मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि।।

कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।
गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन।।


वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब।।


सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।

मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।

कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।

नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि।

कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥

अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥

पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥

इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥

सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥

बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥

गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥

मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥

इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ।।

भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार।।

शनिवार, 25 मई 2013

अशोक मिज़ाज 'बद्र'


१.

बहुत से मोड़ हों जिसमें कहानी अच्छी लगती है,
निशानी छोड़ जाए वो जवानी अच्छी लगती है।

सुनाऊं कौन से किरदार बच्चों को कि अब उनको,
न राजा अच्छा लगता है न रानी अच्छी लगती है।

खुदा से या सनम से या किसी पत्थर की मूरत से,
मुहब्बत हो अगर तो ज़िंदगानी अच्छी लगती है।

पुरानी ये कहावत है सुनो सब की करो मन की,
खुद अपने दिल पे खुद की हुक्मरानी अच्छी लगती है।

ग़ज़ल जैसी तेरी सूरत ग़ज़ल जैसी तेरी सीरत,
ग़ज़ल जैसी तेरी सादा बयानी अच्छी लगती है।

गुज़ारो साठ सत्तर साल मैदाने अदब में फिर,
क़लम के ज़ोर से निकली कहानी अच्छी लगती है।

मैं शायर हूँ ग़ज़ल कहने का मुझको शौक़ है लेकिन,
ग़ज़ल मेरी मुझे तेरी ज़ुबानी अच्छी लगती है।

२.

ज़रा सा नाम पा जाएँ उसे, मंज़िल समझते हैं
बड़े नादान हैं मझधार को साहिल समझते हैं।

अगर वो होश में रहते तो दरिया पार कर लेते,
ज़रा सी बात है लकिन कहाँ गाफिल समझते हैं।

अकेलापन कभी हमको अकेला कर नहीं सकता,
अकेलेपन को हम महबूब की महफ़िल समझते हैं।

बड़े लोगों के चहरों पर शिकन भी आ नहीँ सकती,
कोई कालिख भी मल दे तो उसे वो तिल समझते हैं।

अजब बस्ती है इस बस्ती में सब रंगदार हैं शायद,
शरीफों को तो वो पैदाइशी बुझदिल समझते हैं।

मिज़ाज, अपना फ़क़ीराना है फिर भी शुक्र है यारो.
हमें भी लोग अपनी भीड़ में शामिल समझते हैं।
३.

कभी खुद अपने हाथो से प्याले टूट जाते है
कभी पीने पिलाने मे ये शीशे टूट जाते है

हम इस धरती के वासी है अगर टूटे तो क्या ग़म है
फलक पर हमने देखा है सितारे टूट जाते है

बहुत कम लोग ऐसे है, जिन्हें रहजन मिले होंगे
ज्यादातर मुसाफ़िर को मुसाफ़िर लुट जाते है

वो पत्थर टुकड़े-टुकड़े हो गया जो हमसे कहता था
जो शीशे जैसे होते है वो एक दिन टूट जाते है

कदम रुकने नहीं देना, सफ़र में ऐसा होता है
नए छले उभरते है पुराने फूट जाते है

ज्ञान प्रकाश विवेक

ज्ञान प्रकाश विवेक
1875 सेक्टर-6
बहादुर गढ़-124507
हरियाणा


१.

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था

२.
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा

मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा

लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा

मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा

महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा

युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा

३.
तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था

आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था

वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था

मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था

ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था

मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था


महेश 'अश्क'



परिचय:
जन्म-01.07.1949 को गोरखपुर के एक गाँव खोराबार
पत्रिकाओं एवं अखबारों में प्रकाशन 1970 से अब तक।
संकलन
-गजलों का संकलन ‘‘ राख की जो पर्त अंगारों प’ है ’’ सन् 2000 में प्रकाशित।
१.
न मेरा जिस्म कहीं औ' न मेरी जाँ रख दे
मेरा पसीना जहाँ है, मुझे वहाँ रख दे

बगूला बन के भटकता फिरूँगा मैं कब तक
यक़ीन रख कि न रख, मुझमे कुछ गुमाँ रख दे

बिदक भी जाते हैं, कुछ लोग भिड़ भी जाते हैं
प' इसके डर से, कोई आईना कहाँ रख दे

वो रात है, कि अगर आदमी के बस में हो
चिराग़ दिल को करे और मकाँ-मकाँ रख दे

जो अनकहा है अभी तक, वो कहके देखा जाए
ख़मोशियों के दहन में, कोई ज़ुबाँ रख दे

२.
अब तक का इतिहास यही है, उगते हैं कट जाते हैं
हम जितना होते हैं अक्सर, उससे भी घट जाते हैं

तुम्हें तो अपनी धुन रहती है, सफ़र-सफ़र, मंज़िल-मंज़िल
हम रस्ते के पेड़ हैं लेकिन, धूल में हम अट जाते हैं

लोगों की पहचान तो आख़िर, लोगों से ही होती है
कहाँ किसी के साथ किसी के बाज़ू-चौखट जाते हैं

हम में क्या-क्या पठार हैं, परबत हैं और खाई है
मगर अचानक होता है कुछ और यह सब घट जाते हैं

अपने-अपने हथियारों की दिशा तो कर ली जाए ठीक
वरना वार कहीं होता है, लोग कहीं कट जाते हैं

३.
यहीं एक प्यास थी, जो खो गई है
नदी यह सुन के पागल हो गई है

जो हरदम घर को घर रखती थी मुझमें
वो आँख अब शहर जैसी हो गई है

हवा गुज़री तो है जेहनों से लेकिन
जहाँ चाहा है आँधी बो गई है

दिया किस ताक़ में है, यह न सोचो
कहीं तो रोशनी कुछ खो गई है

३. 
तमाशा आँख को भाता बहुत है
मगर यह खून रुलवाता बहुत है।

अजब इक शै थी वो भी जेरे दामन
कि दिल सोचो तो पछताता बहुत है।

किसी की जंग उसे लड़नी नहीं है
मगर तलवार चमकाता बहुत है।

अगर दिल से कहूँ भी कुछ कभी मैं
समझता कम है समझाता बहुत है।

अजब है होशियारी का भी नश्शा
मजा आए तो फिर आता बहुत है।

हसद की आग अगर कुछ बुझ भी जाए
धुआँ सीने में रह जाता बहुत है।

हमारे दुख में तो इक, बात भी थी
तुम्हारे सुख में सन्नाटा बहुत है...।

४. 
नहीं था, तो यही पैसा नहीं था
नहीं तो आदमी में क्या नहीं था।

परिंदों के परों भर आस्माँ से
मेरा सपना अधिक ऊँचा नहीं था।

यहाँ हर चीज वह हे, जो नहीं हे
कभी पहले भी ऐसा था-? नहीं था।

हसद से धूप काली थी तो क्यों थी
दिया सूरज से तो जलता नहीं था।

पर इम्कां के झुलसते जा रहे थे
कहीं भी दूर तक साया नहीं था।

हुआ यह था कि उग आया था हम में
मगर जंगल अभी बदला नहीं था।

जमीनों-आस्माँ की वुस्अतों में-
अटाए से भी मैं अटता नहीं था।

हमारे बीच चाहे और जो था
मगर इतना तो सन्नाटा नहीं था।

मुझे सब चाहते थे सस्ते-दामों
मुझे बिकने का फन आता नहीं था...

५. 
मस्खरे तलवार लेकर आ गए
हम हँसे ही थे कि धोखा खा गए।

आस्मां आँखों को कुछ छोटा पड़ा
सारे मौसम मुट्ठियों में आ गए।

हादसे होते नहीं अब शहर में
यह खबर हमने सुनी, घबरा गए।

तुमको भी लगता हो शायद अब यही
सच वही था, जिससे तुम कतरा गए।

कुठ घरौंदे-सा उगा फिर रेत पर
और हम बच्चों-सा जिद पर आ गए।

रह गई खुलने से यकसर खामोशी
शब्द तो कुछ अर्थ अपना पा गए।

जिंदगी कुछ कम नहीं, ज्यादा नहीं
बस यही अंदाज हमको भा गए।

सच को सच की तर्ह जीने की थी धुन
हम सिला अपने किए का पा गए।

अब कहाँ ले जाएगी ऐ जिंदगी
घर से हम बाजार तक तो आ गए ।

नरेश शांडिल्य के दोहे

नरेश शांडिल्य
ए-5, मनसाराम पार्क,
संडे बाज़ार रोड
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059



जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जाकर मैंने किए, काग़ज काले चार.

*
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.

*
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.

*
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.

*
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.

*
ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ.

*
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.

*
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.

*
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.

*
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.

*
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.

*
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.
*

वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.

*
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.

*
जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.

*
बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.

*
पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.

*
अपने को ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन में राग.

*
शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.

*
जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.

*
कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.

*
भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.

*
हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.

*
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.

*
हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.

*
भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.

*
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.

शाहिद कबीर

शाहिद कबीर का जन्म एक मई सन 1932 को नागपुर में हुआ था। उनकी कुछ पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं: कच्ची दीवारें (उपन्यास), चारों ओर (गज़ल संग्रह), मट्टी का मकान (गज़ल संग्रह), पहचान (गज़ल संग्रह)। उनका देहावसान 11 मई सन 2001 को हुआ।  

१.

लपक रहे हैं अन्धेरे हवा सुराग़ में है
ये देखना है कि कितना लहू चराग़ में है


सब अपने अपने उजालों को ले के चलते हैं
किसी की शम्म: में लौ है किसी के दाग़ में है


किसी दलील से कायल न होंगे दीवाने
जो बात दिल में बसी है वही दिमाग़ में है


लपक रहा है हरिक सिम्त ख़ौफ़ का आसेब
जो जंगलों में था कल तक वो आज बाग़ में है


महक रही है उजड़ कर भी ज़िन्दगी “ शाहिद”
किसी की याद की खुश्बू अभी दिमाग़ में है


२.
गम का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी
ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी

अपने गम को गीत बनाकर गा लेना
राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी

शहर में गलीयों गलीयों जिसका चर्चा है
वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी

तू मुझको और मैं तुझको समझाये क्या
दिल दिवाना तेरा भी है, मेरा भी

मैखाने की बात न कर मुझसे वाईज़
आना जाना तेरा भी है, मेरा भी

३.
नींद से आँख खुली है अभी, देखा क्या है,
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या है.


बाँध रखा है किसी सोच ने घर से हमको,
वरना अपना दर-ओ-दीवार से रिश्ता क्या है.


रेत की ईंट की पत्थर की हूँ या मिट्टी की,
किसी दीवार के साए का भरोसा क्या है.


अपनी दानिश्त में समझे कोई दुनिया “शाहिद”
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या है?


4.
आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये

कबकी पत्थर हो चुकी थीं मुंतज़िर आंखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गये

जाने क्या अहसास साज़े-हुस्न की तारों में था
जिनको छूते ही मेरे नगमे रसीले हो गये

अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरज़ू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गये

आज हम बिछ्डे हैं तो कितने रंगीले हो गये
मेरी आंखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गये


5.
हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ

जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ

मैं कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ

करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ

कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ


6.
तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए

आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए

अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए

कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए

अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए


7.
तमाम उम्र मैं आसेब के असर मे रहा
कि जो कहीं भी नहीं था मेरी नज़र मे रहा

न कोई राह थी अपनी न कोई मंज़िल थी
बस एक शर्ते-सफ़र थी जो मैं सफ़र मे रहा

वही ज़मीं थी वही आसमां वही चहरे
मैं शहर -शहर मे भटका नगर-नगर मे रहा

सब अपने-अपने जुनूं की अदा से हैं मजबूर
किसी ने काट दी सहरा मे कोई घर मे रहा

किसे बताऎं कि कैसे कटे हैं दिन "शाहिद"
तमाम उम्र ज़ियां पेशा-ए-हुनर मे रहा


8.
वो अपने तौर पे देता रहा सजा मुझको
हज़ार बार लिखा और मिटा दिया मुझको

ख़बर है अपनी न राहों कुछ पता मुझको
लिये चली है कोई दूर कि सदा मुझको

अगर है ज़िस्म तो छूकर मुझे यकीन दिला
तू अक्स है तो कभी आइना बना मुझको

चराग़ हूँ मुझे दामन की ओट मे ले ले
खुली हवा मे सरे-राह न जला मुझको

मेरी शिकस्त का उसको ग़ुमान तक न हुआ
जो अपनी फ़तह का टीका लगा गया मुझको

तमाम उम्र मैं साया बना रहा उसका
इस आरजू मैं कि वो मुड़के देखता मुझको

मेरे अलावा भी कुछ और मुझमें था "शाहिद"बस एक बार कोई फिर से सोचता मुझको

गुरुवार, 23 मई 2013

प्रताप सोमवंशी के दोहे


डूब मरूंगी देखना ताल-तलैया खोज।
भइया शादी के लिए तुम रोए जिस रोज।।


अम्मा रोये रात भर बीवी छोड़े काम।
मुंह ढांपे जागा करें दद्दा दाताराम।।


चाचा तुम करने लगे रिश्तों का व्यापार।
आए जब से दिन बुरे आए न एको बार।।



छोटे तुम चिढ़ जाओगे कह दूंगा बेइमान।
आते हो ससुराल तक हम हैं क्या अनजान।।


भाभी बेमतलब रहे हम सबसे नाराज।
उसको हर पल ये लगे मांग न लें कुछ आज।।


पूरा दिन चुक जाए है छोटे-छोटे काम।
कब लिख्खे छोटी बहू खत बप्पा के नाम।।

क्षेत्रपाल शर्मा के दोहे


Name KshetrapalSharma, Fathers Name Late Liladhar Sharma. Address:- KshetrapalSharma A-8/29, 3rd floor Sec 15 Rohini ,Delhi 85.  Date of Birth:- 05.09.1950 at Alighrah ( plla,asi), Education:- M.A. English B.A. Honours Hindi with English as main. Joint Director (Retd.)(Official Language) ,E.S.I.C. C.I.G.Marg NewDelhi 110002 Mob no. 9711477046 Email kpsharma05@yahoo.co 



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1

हाथ जेब भीतर रहे, कानों में है तेल
नौ दिन ढाई कोस का वही पुराना खेल .

छिपने की बातें सभी, छपने को तल्लीन
सच मरियल सा हो गया झूट मंच आसीन.

बचपन- पचपन सब हुए रद्दी और कबाड़,
आध – अधूरे लोग हैं करते फ़िरें जुगाड़ .

क्या नेता क्या यूनियन सबके तय हैं दाम,
जीते हैं, पर मर चुके, इतने ओछे काम.

भाषा संकर हो गई ऐसे योग-प्रयोग ,
आसपास दुर्गंध है , फूले फलते रोग.

फिर-फिर कर आती रही एकलव्य की याद ,
उसी अंगूठे के लिए, गुरू की अब फरियाद.

घर -भेदी को ही सदा मिलता आया ताज,
ना था, था ना फ़ंस गया,घर की फूट समाज.

पहर ओढ न चल सके, घर से बेटी आज,
अब भी द्रोणाचार्य-सा, चुप है सभ्य समाज.

बिना किए का भोगते ,जीवन भर यह दंस,
तिमिर सभा में निकष पर, ये सूरज के अंश.

कहीं केवड़ा फूलता कहीं कुरील के वंश,
शर्त यही निर्माण की, पहले हो विध्वंस.
2.
सब कहते हैं हो गया, जानवरों का राज l
मानुष ही भयभीत है, अब मानुष से आज ll

ट्विटर, गुटखा फ़ेसबुक, सब रूमानी ख्याल l
जेवर कट हैं बढ चले, मटरगश्त हैं लाल ll

एसेमेस क्लिपिन्ग और रातचीत के अंश l
बूढे को अब सालता, मोबाइल सा कंस ll

आम आदमी पिस रहा, कानूनों का बोझ l
निर्वचनों , निर्वाचनों में ,रहा पहेली खोज ll

सत्य अहिंसा लग रहा, ये सब बेचें तेल l
बड़का यदि होवन चला, अनिवारज है जेल ll

दागी , बागी हो गए, नौका खेवनहार l
तारेखों में फ़ंस रहे, जनता है लाचार ll

साधु शिरोमणि हो गए, नेता परमानंद l
दाने को मोहताज हैं, बेटा लखमीचंद ll

रिश्ते सब रिसने लगे, नीयत आया खोट l
कोट कचेरी मारे फ़िरें, झगड़े की हैं ओट ll

भले लोग हैं हर समय, लेकिन चुप क्यों आज l
कुछ बदचलनों ने रखा, जब गिरवी सभ्य समाज ll

सरिता सम बहती रहे, अहर्निश रसधार l
वाणी से सब मिलत है, मणी , मुकुट व्यापार ll
3
छीछालेदर हो गई सन्मानों की लाज,
नामा तो अंटी किया , फ़ेंक खोपटा –खाज II

इननें कब किसकी सुनी, जो वे सुन लें आज
चलन यहां बदचलन है , नहीं गिरेगी गाज II

एडी मत्था घिस गया, तब पाया सन्मान 
समय न हत्थे चढ सका, नहीं रहा ये ध्यान II

शब्द चेहरा मोहरा , नीयत लेते भांप 
घडियालों से बच रहे , आस्तीन के सांप II

गिरे आप से आप ही ,लौटाया ये मान 
मान सहित मरना भला, भूल गए ये ग्यान II

ये कहते हम खास हैं ,वे कहते हम खास 
कौन तिलक्धारी बने ,और हो किनका बनवास II 

रफ़्ता रफ़्ता वक्त की , चाल बडी नादान 
जो गिरता है पीठ से ,लेता है पहचान II

तमगे वालों की ठसक , अज़ब गज़ब इतरान
जो थी कौडी दूर की , अब है ठौर ठिकान II
4
भारत को ये सौपकर , टीपू की तलवार ।
विजय मलाया खुद गए सात समन्दर पार ।।

ठेलमठेल मे गुर फसे ,चेला निकला चंट ।
पीताम्बर सा ओढ़कर सौदा है निषकंट।।

ढकोसला है योग का, बाबा बेचे तेल ।
लासा का फंदा लगा , देसी कहकर पेल।।

सब एसा ही कर रहे ,तेलगी के अवतार ।
डैमेज र को कर रहे , मैनेज बारम्बार ।।

चोरी कीजै देश मे और भीख परदेस ।
चंदा कारज एक है, नही जरा लवलेश ।।

नीरव मोदी ले गया नीलामी मे कोट ।
कोट कोट की बात है, कोट ,कोट की चोट।।

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